१९६२ में अम्मा को एकाएक भयंकर द्रुतगामी केंसर रोग ने घेर लिया । कानपूर के सिविल सर्जन और मेडिकल कोलेज के कन्सल्टेंट डॉक्टरों ने पूरी जाँच पड़ताल कर के यह कह दिया था कि वह अब कुछ दिनों की ही मेहमान हैं ।
कैसे बताता उनसे यह सच्चाई कि उस सप्ताह में ही किसी दिन 'वह' यह संसार, यह घरबार, यह परिवार छोड़ कर जाने वाली हैं । शीघ्र ही हम चारों भाई-बहन अपनी प्यारी प्यारी माँ को खोने वाले हैं । हमारे बच्चे रवी, छवी, शशि, रूबी, प्रीती, मोना, रामजी अपनी दादी के प्यार दुलार से सदा सदा के लिए वंचित होने वाले हैं और कैसे हमारे वयोवृद्ध पिताश्री अर्धशताब्दी से भी अधिक वर्षों की अपनी जीवन संगिनी से जल्दी ही हमेशा हमेशा को जुदा होने वाले हैं ।
उनके जीवन के अंतिम दो तीन दिन शेष थे । एक दिन प्रातः वह बाहर बरामदे की बड़ी आराम कुर्सी में बैठीं थीं । पीडाओं की मंजूषा उन्होंने अपने हृदय में संजो रखी थी । एक अनूठे तेज से जगमगाते उनके चेहरे में आगे के उनके दो दांत जैसे उनके अंतर में समाये भाव व्यक्त कर रहे थे । उन्हें परमधाम लेजाने वाला विशेष विमान "ए. टी. एस." से लेंडिंग का निर्देश पाने की प्रतीक्षा में एयर पोर्ट के आकाश में बेताबी से मंडरा रहा था । इस विचार से कि वह विमान किसी भी क्षण उतर सकता था और बोर्डिंग का आदेश पारित होते ही माँ उस विमान पर सवार हो, अपने गोपाल जी के धाम "गोलोक" की ओर प्रस्थान कर जाएंगी और हम कुछ न कर पाएंगे, बस हाथ मलते रह जायेंगे, मैं विचलित हो रहा था । मेरी रूह कांप रही थी यह सोच कर कि अगले किसी पल ही हमारे सिर से माँ की क्षत्र छाया छिनने वाली थी ।
मन ही मन, केंसर की भयंकर पीड़ा झेलते हुए अम्मा ने किसी को भी यह महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें कितनी पीड़ा है । हमें चिंतामुक्त रखने के लिए वह एक बार भी हमारे सामने पीड़ा से कराही नहीं । कभी किसी ने उनकी आँखों से आंसू बहते नहीं देखे । हम जब भी उनके सामने गए, वह हमे मुस्कुराती हुई दिखाई दी । प्यारी अम्मा ने बड़े प्यार से मुझे हृदय से लगाकर अनेक आशीर्वाद दिये ।
उस दिन मुझे घबडाया देख कर माँ ने निकट ही खड़े बड़े भैया, उषा दीदी और छोटी बहिन माधुरी को भी पास बुला लिया और माहौल बदलने के लिए भोजपुरी भाषा में कहा "आज भजन ना होखी का? " । ( क्या आज भजन नहीं होगा? )
उस सुबह हम सबने मिलकर अम्मा को "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण बासुदेव " की धुन सुनाई और उन्होंने एकएक करके हम चारों को जी भर कर खूब सारे आशीर्वाद भी दिए । मेरा तीसरा नम्बर था । मैं अम्मा का छोटका, दुलरुआ लडिका जो था, हमेशा की तरह उन्होंने मुझे कसके चिपका लिया और इशारतन मुझे समझा दिया कि उन्हें मेरी सारी फर्माइशे ज्ञात हैं, इसलिए बिना मुझसे कुछ पूछे ही उन्होंने मुस्कुराते हुए भोजपुरी में मुझे आशीर्वाद दे दिया, बोलीं "होखी ना, कूल वैसने होखी, जईसन तू चहिबा । ("होगा, जरूर होगा, सब वैसा ही होगा जैसा तुम चाहोगे ) । अचानक माँ को कैसे मेरे बचपन में मुझे दिया हुआ वह आशीर्वाद, संसार छोड़ते समय याद आ गया । तब उनसे पूछ न सका क्योंकि उसी शाम ---अम्मा यह संसार छोड़ कर अपने गोपालजी के धाम चली गयीं ।
उदर के केंसर की भयंकर पीड़ा सहते हुए भी, उन्होंने एक अत्यंत मधुर मुस्कान के साथ शरीर त्यागा था । जब मेरी प्यारी माँ अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थीं । हम सब उनको कीर्तन सुनाया करते थे । और वह अपने नैनो से बूंद बूंद प्रेमाश्रु बहा कर अपने मन मन्दिर में बालपन से बिराजे लड्डू गोपाल के चरण पखारतीं रहतीं थीं । इतनी प्रबल थी उनकी हरि प्रीति ।
जाते जाते वह हमे समझा गयी थीं कि "रोना मत बच्चों, मैं हँसते हुए जाउंगी, तुम हँस हँस कर हमे विदा करना " । तदन्तर परिवार सहित हम चारोँ बच्चों ने उनकी इच्छानुसार उनके समक्ष खड़े होकर अखंड हरि कीर्तन किया उस क्षण तक जब तक ह्मारे साथ साथ उनके होठ भी हिलते रहे, उनकी ऑंखें खुली रहीं और उनकी साँस चलती रही । हम तो कीर्तन करते ही रहे कि पडोस के चाचाजी प्रोफेसर चन्द्रदेव प्रसाद ने हमे बताया कि "बेटा वह चली गयी हैं " । हमे विश्वास नहीं हुआ क्योंकि माँ के मुखारविंद की मुस्कराहट तब भी लोप नहीं हुई थी । प्रिय जन, अपना वचन निभाकर वह तो मुस्कुराते मुस्कुराते विदा हो गयीं । ।
हमने वैसा ह़ी किया, जैसा अम्मा चाहतीं थीं । बयान नहीं कर पाउँगा कि कितनी मधुर मुस्कान थी उनके प्रफुल्लित मुखारविंद पर, हल्की गुलाबी बनारसी परिधान में वह एक "बालिका वधू" सी लग रहीं थीं । "लाल विला" से उसकी स्वामिनी "लाल मुखी देवी " जा रहीं थीं । बाबूजी अस्वस्थ थे, हम दोनों भाइयों को उन्हें घर की सकरी सीढ़ी से उतारना था । दोनों भाई एक साथ उन सीढियों पर उन्हें सम्हाल नहीं पाए अस्तु मैंने अकेले ही उन्हें गोदी में उठा लिया । ऐसा लगा जैसे मैं अम्मा के परम प्रिय इष्ट "गिरिधर गोपाल"जी के श्री चरणों पर चढ़ाने के लिए गुलाब की एक पंखुरी लेकर सीढ़ी से नीचे उतर रहा हूँ । तबसे लेकर उस घड़ी तक जब अम्मा की पार्थिव काया अग्नि को समर्पित हुई, हम दोनों भाई अपनी मित्र मंडली के सहयोग से निरंतर "श्री राम जय राम जय जय राम" का संकीर्तन करते रहे ।
मेरे सपने असम्भव थे लेकिन वे सब असम्भव स्वप्न, समय आने पर सत्य सिद्ध हुए । मुझे ऐसी अप्रत्याशित सफलताएं मिली जिनकी भविश्यवाणी किसी भी ज्योतिषी ने नहीं की थी, उनकी प्राप्ति के लिए मैंने कोई अनुष्ठान भी नहीं करवाये थे और न कोई कीमती नगीने ही धारण किये थे । माँ के आशीर्वाद से असम्भव भी सम्भव हो जाता है । गुरुजनों और माता -पिता के आशीर्वाद, कुलदेवता श्री महावीर और प्यारे प्रभु की कृपा दृष्टि, अपना दृढ संकल्प, तथा कर्तव्य निष्ठा के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य उपाय और साधन था ही नहीं । अवश्य मैं इनकी प्राप्ति के लिए सतत अथक प्रयास करता रहा, प्रार्थना करता रहा और फिर प्रारब्ध को भी मेरे अनुकूल होना पड़ा ।
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