शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

बड़े भैया के जीवन से सीख

अपने स्कूल में, १९३७ से १९४१ तक गजाधर भैया अपने आकर्षक व्यक्तित्व और संगीत कला के कारण हमेशा प्रशंसकों से घिरे रहते थे । वह अपनी मित्रमंडली को नयी फिल्मों की कहानियाँ और गाने सुनाते थे और "सिने संसार" की ताज़ी खबरे बताते थे । मित्रमंडली की हर ऐसी बैठक के बाद भैया के मित्रगण एक स्वर में उन्हें बम्बई जा कर फ़िल्मो मे काम करने की मन्त्रणा देते थे । चित्रकला, आधुनिक संगीत और लेखन आदि में तो वह पारंगत थे ही अस्तु, छोटी अवस्था में ही सन १९४१-४२ में उन्होंनें अपने भविष्य की योजना बनायी जिसके आधार पर उन्हें सिनेमा जगत में प्रवेश करने के लिए बंबई जाने की अनुमति मिल गयी । इतना प्यार करतीं थीं अम्मा उनसे कि वह भैया से थोड़े समय का भी बिछोह सहन नहीं कर सकती थीं । पर "ऊपरवाले" (Navigator) की योजना के अनुसार बड़े भैया को अम्मा से दूर जाना था, वह बंबई गये और वहाँ श्री हनुमान जी की कृपा से उन्हें पहली कोशिश में ही सफलता भी मिल गयी ।

उन दिनों प्रसिद्ध फिल्म निर्माता "व्ही.शांताराम जी" अपनी नयी फिल्म "शकुन्तला" के लिए कलाकारों का चयन कर रहे थे । ऐतिहासिक और धार्मिक चित्रों के उस जमाने के हीरो "साहू मोदक" "चन्द्रमोहन", "प्रेम अदीब", "अरुण" (आज के हीरो "गोविंदा" के पिता) आदि से कहीं अधिक प्रभावशाली व्यक्तित्व और आकर्षक स्वरूप वाले भइया अपनी सुंदर गायकी और हिन्दी भाषा के शुद्ध उच्चारण के कारण पहले ही साक्षात्कार में बाजी मार ले गये और शांताराम जी ने उन्हें "शकुन्तला" में भाग लेने के लिए स्वीकार कर लिया । विश्व विख्यात सिने जौहरी श्री व्ही .शांताराम जी ने भली भांति कसौटी कर के, नाप जोख करके, हर तरह से परख कर, हमारे बड़े भैया को अपनी "शकुन्तला" में कोई अति महत्वपूर्ण रोल निभाने के लिए सिलेक्ट कर लिया था । उन्हें जयश्री जी के अपोजिट, महाराजा दुष्यंत का रोल मिल सकता था, मेनका के साथ विश्वमित्र का रोल अथवा शकुंतला के पिताश्री "कणव ऋषि" का रोल भी मिल सकता था ।

कानपुर में हम सब बंबई से प्राप्त उपरोक्त उत्साहवर्धक समाचार सुन कर बहुत प्रसन्न थे । अम्मा बाबूजी के मन में बड़े पुत्र से बिछड़ने की थोड़ी कसक थी लेकिन हम छोटे बच्चों में बड़ा उत्साह था । थोड़ा बहुत अहंकार तो हमें हो ही रहा था कि हमारे बड़े भैया हीरो बन रहे थे । स्कूल में भी विद्यार्थी हमे अधिक मान सम्मान देने लगे थे ।

निर्माता निर्देशक ने फिल्म की मुहूर्त के लिए दुर्गापूजा वाली नवरात्री की सप्तमी तिथि का निश्चय लिया । तैयारियां जोर शोर से चल पड़ी । स्क्रिप्ट, डायलोग, वेशभूषा तथा सेट डिज़ाइन पर युद्ध स्तर से काम होने लगा । "प्रभात" से अलग होने के बाद शांताराम जी द्वारा स्थापित की गयी, नयी फिल्म कम्पनी "राजकमल कला मंदिर" के दफ्तर में, उनकी नई हीरोइन (latest discovery) "जयश्री" के पदार्पण से वैसे ही काफी चहल पहल मची रहती थी पर अब उन्हें लेकर बनने वाली "शकुन्तला" के मुहूर्त की तैयारी के कारण वहाँ की रौनक और भी बढ़ गयी थी । प्लान ये था कि बरसात के बाद नवरात्रि में शूटिंग शुरू होगी ।

भैया को फिल्म जगत में सहजता से मिली उनकी सफलता से अम्मा बाबूजी प्रसन्न तो थे पर बम्बई की फिल्मी चमक धमक में उनके बिगड़ जाने का डर उनके मन से निकल नहीं पा रहा था । किसी प्रकार उन्हें जल्दी ही कानपुर वापस बुला लेने की प्रबल इच्छा उनके मन में जम कर बैठी हुई थी । अपनी प्रत्येक प्रार्थना में वे इष्टदेव हनुमान जी से यही अर्ज़ करते थे कि कोई अनिष्ट होने से पहले भैया बंबई छोड़ कर कानपुर लौट आयें । अम्मा ने भैया को बंबई इस विश्वास से भेजा था कि वह उलटे पाँव वहाँ से लौट आएंगे, वह घर की सुख सुविधा छोड़ कर बहुत दिन बाहर नहीं रह सकेंगे । उन दिनों, पिताश्री को भी मैंने बार बार यह कहते हुए सुना था कि हफ्ते दो हफ्ते बम्बई की पक्की सडकों पर जूते घिस के, दादर, अंधेरी, मलाड में स्टूडियोज में धक्के खा के बबुआ लौट ही आयेंगे । धोबी तलाव में नुक्कड़ वाले इरानी रेस्तोरांत की चाय मस्का पाव आमलेट या वर्ली में "फेमस बिल्डिंग" के बाहर, फुटपाथ की दुकानों पर और चलती फिरती गाडिओं पर बिकने वाली डालडा वनस्पती घी में तली मिर्च मसाले से भरी बम्बैया पाव भाजी वह बहुत दिनों तक नहीं झेल पायेंगे ।

जून जुलाई की भयंकर बम्बैया वर्षा और उमस ने भैया को त्रस्त तो किया लेकिन उनसे वह निरुत्साहित नहीं हुए । शांताराम जी की फिल्म मे काम करने का अवसर मिलना बड़े सौभाग्य की बात थी । वह किसी प्रकार भी यह सुनहरा मौका गंवाना नहीं चाहते थे । अपनी सफलता की कामना लिए वह बिना नागा निश्चित दिनों पर मुम्बादेवी, सिद्धविनायक, हाजीअली, हनुमान जी एवं महालक्ष्मी मंदिर अवश्य जाते थे ।

अगस्त १९४२ के वे दिन बहुत महत्वपूर्ण थे । बम्बई की एक विशाल जन सभा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महात्मा गांधी का ब्रिटिश सरकार से असहयोग करने का प्रस्ताव सर्व सम्मति से मंज़ूर कर लिया था । इसके फलस्वरूप बापू के नेतृत्व में पूरे देश में "अंग्रेजों भारत छोड़ो" नाम से एक शांति पूर्ण आन्दोलन (QUIT INDIA MOVEMENT) का श्री गणेश हुआ । उस आन्दोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने आनन फानन दफा १४४ और Defence of India Rules नामक एक दमन कारी कानून देश भर में लगा दिया । आम जनता पर बर्बरता से लाठी चार्ज हुए और कहीं कहीं तो गोलियां भी चलीं । कांग्रेस के बड़े छोटे सभी नेता जेल मे डाल दिए गये । जन साधारण ने भी बड़ी तादाद में गिरफ्तारी दी ।

अगस्त के पहले सप्ताह में एक दिन ओपेरा हाउस सिनेमा से निकल कर समुद्र की ठंढी हवा का आनंद लेने और भेलपूरी खाकर नारियल का पानी पीने के इरादे से गजाधर भैया चौपाटी की ओर मुड़ गये । जब भैया चौपाटी पहुंचे तो देखा कि उस समय वहाँ कांग्रेस की असहयोग आन्दोलन से संबंधित एक बड़ी रेली चल रही थी । भैया तो एक मात्र फिल्म स्टार बनने का संकल्प संजो कर कानपुर से बम्बई आये थे । उन्हें राजनीति से कोई लेना देना कभी भी नहीं था । वह केवल फिल्मों मे अपना केरिअर बनाने के विषय में ही सोचते थे । आस पास संसार में क्या हो रहा है उससे उनका कोई सरोकार नहीं था ।

भेलपूरी का दोना अभी उन्होंने हाथ में लिया ही था कि वहाँ भगदड़ मच गयी । जनता का एक जबर्दस्त रेला दरिया के ज्वार (High tide) के समान लहरा कर "अंग्रेजों भारत छोड़ो", "महात्मा गाँधी की जय" और "वन्दे मातरम", के नारे लगाता हुआ उनकी तरफ ही आ रहा था । जनता के पीछे पुलिस का घुड़सवार दस्ता बंदूक ताने उन्हें खदेड़ रहा था और सैकड़ों पैदल सिपाही बर्बरता से लाठी भांजते हुए निहत्थे नागरिकों के हाथ पैर तोड़ने की धमकी दे रहे थे । "भागो, भागो, पुलिस आयी" की पुकार और भागती हुई जनता के आर्तनाद से चौपाटी का वातावरण बड़ा उत्तेजक हो गया था ।

बड़ी मनौतियों और मेहनत से कमायी, तिजोरियों में बंद संपत्ति के समान भैया ने तब तक एक बहुत ही संरक्षित जीवन (Protected Life) जिया था । कानपुर में, पढाई छोड़ने के बाद वह सुबह से शाम तक कमरा बंद करके हारमोनियम पर स्वर छेड़ कर घंटों गाना गाते रहते थे । इसके सिवाय उन्हें और कोई दूसरा काम था ही नहीं । कानपुर में वह घर से अधिक बाहर निकलते ही नहीं थे । सडकों पर क्या क्या होता है, कैसे उपद्रव और अपराध होते रहते हैं वह इन सब से अनिभिज्ञ थे । हिंसा का जो वीभत्स दृश्य चौपाटी पर देखा वैसा उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था । वह घबडा कर सोचने लगे, " ये सब क्या है ? मैं कैसे फंस गया ?अब मेरा क्या होगा ? क्या करुं? कहाँ जाऊं ?"

जीवन रक्षा के लिए बड़े भैया "मगनोलिया आइसक्रीम" और यू .पी.  के "चौरसिया पान" की बड़ी वाली अस्थायी दूकानों (किओस्क्स) के बीच की गली में छुप कर खड़े हो गये । वहाँ पर कुछ स्त्रियाँ पहले से ही अपने भयभीत बच्चों के साथ दुबक कर खड़ी थीं । दूकानदारों ने बत्तियां बुझा दीँ थी । इस कारण पुलिस वाले उन्हें देख नहीं पाए । वहाँ खड़े सभी लोग सांस रोके हुए अपने अपने इष्ट देव की याद कर रहे थे । बड़े भैया भी बड़ी तन्मयता से मन ही मन कुलदेवता श्री हनुमान जी को मनाने का प्रयास कर रहे थे । "संकटमोचन" की कृपा से थोड़ी देर में ही चौपाटी का माहौल सामान्य हो गया । सरकार ने वहाँ से पुलिस का बन्दोबस्त उठाने का निश्चय लिया और शीघ्र ही उनकी आखरी टुकड़ी भी चौपाटी से हटा ली गयी । पुलिस के जाते ही चौपाटी की बची खुची भीड़ भी धीरे धीरे छंटनें लगी । दूकानों में ताले लगने लगे । बड़े भैया भी बड़ी सावधानी से दायें बांयें देखते, साथ वाली महिलाओं और बच्चों के झुण्ड में शामिल हो कर लुकते छिपते, चौपाटी से बाहर निकल गये । भगवान की दया से उन्हें कोई चोट चपेट नहीं आयी थी, वह शारीरिक दृष्टि से पूरी तरह स्वस्थ थे पर सायं के उस कटु अनुभव के कारण उनका मनोबल बहुत क्षीण हो गया था ।

चौपाटी की घटना के कारण "बेस्ट" की बसें और "लोकल" ट्रेने दोनों ही बंद हो गयी थीं । भैया सोच में पड़ गये, वह अब कैसे अपने निवास (lodge ) पहुँच पायेंगे ? उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । उनका सिर चकरा गया । उन्हें कानपुर में भी अकसर सिर दर्द होता था और चक्कर भी आते थे । ऐसे में तुरंत ही उन्हें पलंग पर लिटा दिया जाता था, डॉक्टर बुलाये जाते थे, और अच्छे से अच्छा उपचार चालू हो जाता था । यहाँ बंबई मे वह निसहाय थे, कहाँ जाएँ क्या करें ?

हमारे राष्ट्र पिता बापू द्वारा चलाये शांति पूर्ण असहयोग आन्दोलन का बर्बरता से दमन करने की अपनी पशुवत क्षमता प्रदर्शित करने के लिए अंग्रेज सरकार ने उस दिन, चौपाटी पर ही नहीं वरन देश के विभिन्न भागों में निहत्थी भारतीय जनता पर बड़े बड़े ज़ुल्म किये । सब प्रकार से हमे दुःखी करके उन्होंने यह लोकोक्ति सही साबित कर दी कि "पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं " । देशविदेश में खाद्य सामग्री के प्रचुर भंडार होते हुए भी भारतीयों को भूखा मरने पर मजबूर किया गया । देश के अनाज के भंडार जला दिए गये । अमेरिका से आयातित गेहूँ भारत पहुंचने ही नहीं दिया, अन्यत्र भेज दिया गया । हमें याद है एक अमरीकी जहाज का गेंहू तो हिंद महासागर में डाल दिया गया था । पूरा देश एक भयंकर भुखमरी के कगार पर खड़ा था । बंगाल में दुर्भिक्ष से हजारों लोग भूख से प्राण गँवा चुके थे । इसके अलावा "महात्मा गांधी जिंदाबाद " का नारा लगाने भर से लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटा जाता था और जेलों में डाल दिया जाता था ।

हमारी जन्म भूमि, बलिया की स्थिति थोड़ी भिन्न थी । बलिया के, नौजवान शेर नेता "चीतू पाण्डे" ने अंग्रेजों की दमन नीति से खीझ कर उन्हें "गुरिल्ला लड़ाई " में ऐसा फँसाया कि उनके नाक में दम हो गयी । यहाँ तक कि कुछ दिनों के लिए उन्होंने बलिया को अंग्रेजी शासन से मुक्त ही करा लिया । बलिया जेल के सभी राजनैतिक कैदी छोड़ दिए गये । कलेक्टर साहिब और पुलिस कप्तान ने जिले की बागड़ोर कांग्रेसियों के हाथ में सौंप दी और उनसे आज्ञा ले ले कर राज काज चलाने लगे । लेकिन दोबारा बलिया पर कब्ज़ा कर लेने के उपरांत अंग्रेजों ने जो दमन नीति अपनाई और जितने जघन्य अत्याचार किये, उन्हें याद करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।

गांधी जी के असहयोग आन्दोलन को दबाने के लिए अपनायी ब्रिटिश सरकार की दमन नीति से भयभीत हो कर बाबूजी-अम्मा ने बार बार तार भेज कर और बंबई के अपने जान पहचान के लोगों से जोर डलवाकर बड़े भैया को वहाँ से वापस कानपुर बुला लिया ।

१९४३ में "शकुन्तला", "शांताराम जी " के "राज कमल कला मंदिर" द्वारा निर्मित पहली टेक्नीकलर फिल्म, रिलीज़ हुई । सम्पूर्ण भारत में इस फिल्म का ज़ोरदार स्वागत हुआ । कलकत्ते के चित्रा सिनेमा में उस फिल्म ने लगातार लगभग २०० सप्ताह तक चल कर एक नया रिकॉर्ड कायम किया । फिल्मी दुनिया में इस फिल्म की धूम मच गयी । हीरोइन "जयश्री", प्रोड्यूसर डायरेक्टर -"व्ही .शांताराम जी" और संगीत निदेशक "वसंत देसाई" की ख्याति में इस फिल्म ने चार चाँद लगा दिए । एक्टरों में चन्द्र मोहन, मदन मोहन, के नाम सुनने में आये थे । लेकिन इस फिल्म में हमारे बड़े भैया का कोई अता पता नहीं था । वह इस फिल्म में कहीं दिखायी ही नहीं दिए । वह न महाराज दुष्यंत के रोल में दिखे, न ऋषि विश्वमित्र के, न आश्रम के किसी शिष्य की भूमिका में ही दिखाई दिए । इसे देख कर भैया को अहसास हुआ कि उनके हाथ में आयी हुई वह अप्रत्याशित सफलता अनायास ही उनके हाथों से सरक गयी । भैया कितने निराशा हुए होंगे आप उसका अनुमान लगा सकते हैं । उनके तो सारे सपने एक झटके में ही टूट चुके थे ।

तब मैं वयस में बहुत छोटा था, नौवीं कक्षा में पढ़ता था, मुझे दुनियादारी का ज्ञान नहीं था अस्तु बड़ी बड़ी अहंकार भरी बातें मैंने अपने मित्रों से उस समय की थीं जब बड़े भइया को व्ही. शांताराम जी ने "शकुंतला" में भाग लेने के लिए अभिनेता के रूप में चुन लिया था । अब किस मुँह से उन्हें बताता कि बड़े भैया बंबई छोड़ कर वापस कानपुर आ गये । कैसे कहता उनसे कि इस फिल्म में हमारे बड़े भैया का कोई अता पता नहीं है । शर्म के मारे मैं यह बात बहुत दिनों तक अपने स्कूल के दोस्तों से छुपाये रहा ।

बड़े भैया को बम्बई की फिल्म नगरी में जब जयश्री के साथ शांताराम जी की फिल्म शकुन्तला में काम करने का अवसर मिला था तब हमने भी कानपुर में बड़े रंगीन मंसूबे बाँधने शुरू कर दिए थे । कल्पना करने लगा था कि मुझे भी कम से कम हीरोइन अथवा हीरो के छोटे भाई का रोल तो मिल ही जायेगा । मैं "बंधन" के मास्टर सुरेश की तरह हिरोइन लीला चिटनिस के छोटे भाई के रोल में नई सायकिल पर घंटी बजाते बजाते स्कूल जाऊंगा और स्कूल के मास्टर हीरो अशोक कुमार के साथ मिल कर प्रदीप जी की यह अमर रचना "चल चल रे नौजवान" गा गा कर देश के नौजवानों को जगाऊंगा और उन्हें जीवन पथ पर आगे बढते रहने को प्रोत्साहित करूँगा । परन्तु भाई साहब की असफलता और निराशा ने मेरा विचार बदल दिया । किसी ने सच ही कहा है -- "मेरे मन कछु और है कर्ता के कछु और" ।

जीव अपने विषय में उतना ही जानता हैं जितना वह आईने में देख पाता है या जितना आस पास के लोग उसको जाँच कर बताते रहते हैं । प्रकृति का यह नियम है कि जीव के अन्तर में छुपा बैठा उसका "परम कृपालु इष्ट “ उसे टोक देता है जब भी उसका कोई कदम गलत दिशा की ओर मुड़ता है ।

दैवयोग अथवा प्रारब्धानुसार हुई बड़े भइया की बम्बई की असफलता और उनके नैराश्य और उनकी कुंठाओं को देखते ही उनके समान फिल्म एक्टर बनने की मेरी इच्छा धीरे धीरे आप से आप ही काफूर हो गयी । हमारे परिवार के "कुल देवता" श्री हनुमान जी महाराज ने अपना वरद हस्त मेरे सिर पर रख कर मेरी वह ११-१२ वर्ष के उम्र वाली बचकानी सोच ही बदल दी । उन्होंने मेरी फिल्मी कलाकार बनने की सोच को उस जमाने के चिंतन एवं माता-पिता की इच्छा के अनुरूप आई. सी .एस., पी. सी. एस. अथवा डॉक्टर, इंजीनियर बनने की तैयारी के लिए इंटरमीडियेट के बाद किसी विश्वविद्यालय में दाखिला पाने की इच्छा में बदल दिया और शनैः शनैः मैं इस मार्ग पर गम्भीरता से अग्रसर हुआ ।

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