शैशव में अम्मा की ममतामयी गोदी में खेल खेल कर हम चारों भाई बहेन, जन्म से ही कला की विविध विधाओं - लेखन, चित्रान्कन, गायन, नर्तन आदि के उपासक बनते गये । हमारे बड़े भैया उस जमाने के प्रसिद्ध गायक "के .एल सहगल " के और बड़ी बहिन "कानन देवी" की दीवानी थीं । भाई साहब की आवाज़ बिलकुल "सहगल" जैसी थी और दीदी की आवाज़ "कानन" जैसी । भाईसाहब "न्यू थीएटर" की १९३५ वाली पुरानी फिल्म "देवदास" के गीत, "दुःख के अब दिन बीतत नाहीं"और "बालम आये बसों मोरे मन में" बड़े भाव से, इतना सुंदर गाते थे कि सुनने वाले रो पड़ते थे । कहते हैं कि यदि वह पर्दे के पीछे से गाते तो लोगों को "सहगल" का भ्रम हो जाता था । मेरी छोटी बहिन माधुरी जिसे प्यार से सभी मधु बुलाते रहे, और जिन्हें आज तक सभी स्वजन “बाजी“ कह कर सम्बोधित करते हैं उसके गायन में अपूर्व माधुर्य रस समाया था । ,
अम्मा के लिए बड़े भैया “गणेश”, उषा दीदी (जो मुझसे एक वर्ष बड़ी हैं,) “दुखभंजन”, मै यानी कि भोला “कन्हैया “ और छोटी प्यारी गुडिया माधुरी “माँ सरस्वती” का प्रतिरूप थे, उसी रूप में वे सबको निहारती, पुचकारती रही, प्यार की गागर ढुलकाती रहीं । बचपन से ही अम्मा से यह सीख मिली कि बच्चे भगवान होते हैं । इसी परिपेक्ष्य में छोटी बहिन माधुरी को साक्षात देवी माँ की संज्ञा देकर उसके चरणों की वन्दना अम्मा हम सबसे कराती रहीं । जब नन्हीं सी थी, तब उषा दीदी और मैं कभी कभी उसके गुलाबी कोमल चरणों को धो कर उसका चरणामृत भी ले लेते थे ।
अम्मा के दृढ़ विश्वास, उनकी अटूट आस्था, उनके संकल्प और तुषार हार धवला वीणापाणि माँ सरस्वती के आशीर्वाद से १९५0 में १५ वर्ष की अवस्था में ही मेरी छोटी बहिन आकाशवाणी लखनऊ की कलाकार हो गयी । माधुरी श्रीवास्तव के नाम से प्रति मास भजन और सुगम संगीत के कार्यक्रम प्रसारित होने लगे । उन दिनों मैं अपनी छोटी बहन माधुरी श्रीवास्तव का अभिभावक और संगीत शिक्षक बनकर उनका रेडिओ कार्यक्रम करवाने जाया करता था । अन्य कलाकारों की अपेक्षा माधुरी उस समय उम्र में काफी छोटी थी । वह १५ - १६ वर्ष की अवस्था में ही रेडिओ पर गाने लगी थी और हाँ, थोड़ा जादू मेरी सरस "शब्द एवं स्वर रचनाओं" का भी था (क्षमा प्रार्थी हूँ, अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का अपराध जो कर रहा हूँ ) जिसके कारण हम दोनों भाई बहन, " भोला माधुरी", उन दिनों लखनऊ रेडिओ स्टेशन में काफी प्रसिद्ध हो गये थे ।
१९५० के दशक में जब मेरे प्रोत्साहन से मेरी छोटी बहिन माधुरी ने रेडिओ पर गाना शुरू किया तब, जहाँ तक मुझे याद है केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भार श्री केसकर जी के हाथ में था । कदाचित उन्ही दिनों "आल इंडिया रेडिओ" का नाम बदल कर "आकाश वाणी" रखा गया और वहाँ के वाद्यों में से हारमोनियम, गिटार, चेलो आदि पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल कम कर के उनकी जगह देसी वाद्यों - तानपूरा, सितार बांसुरी, सरोद, सारंगी आदि का प्रयोग बढ़ गया । सुगम संगीत के गायन में ठुमरी, दादरा, ग़ज़ल आदि के साथ साथ हिन्दी भाषा के गीत, भजन और पारम्परिक लोक संगीत का समुचित समावेश हुआ ।
कालान्तर में माधुरी ने मुनिस्पल गर्ल्स स्कूल के शास्त्रीय संगीत शिक्षक, पंडित बी .पी .मिश्रा और श्री सुरेन्द्र नाथ अवस्थी के अतिरिक्त घर पर ही श्री दत्तात्रेय केलकर से संगीत की शिक्षा प्राप्त की । श्री दत्तात्रेय केलकर जी ग्वालियर के माधव संगीत विद्यालय के स्नातक थे जहाँ उन्होंने भातखंडे पद्धति से संगीत शिक्षा प्राप्त की थी । वह श्री कृष्णराव शंकर पंडित जी के गायन से बहुत प्रभावित थे । संगीत शिक्षण द्वारा आजीविका कमाने के लिए केलकर जी नये नये ही कानपुर में आये थे और हरि कृपा कहें या इत्तफाक, वह हमारे घर के पास ही एक लॉज मे रहने लगे । हम चारों में संगीत सीखने की तीव्र उत्कंठा देख कर और हमें सुर ताल का समझदार पा कर वह तुरंत ही हमें लगभग निःशुल्क ही संगीत सिखाने को राजी हो गये । एक के लिए पैसे लेकर वह हम चारों को ही संगीत सिखाने लगे । प्रियजन, क्या कहेंगे आप इसे ? हम पर क्या यह श्री हनुमान जी की एक अति विशिष्ट कृपा नहीं है ? सो इस प्रकार हमारे कुलदेव की एक और महती कृपा हम पर हो गयी ।
मैंने अपनी दीदी और छोटी बहन के म्युज़िक टीचरों से, जब वह संगीत सिखाने हमारे घर आते थे, तब कमरे के परदे के पीछे से या बगल के कमरे में छिप छिप कर बहुत कुछ सीखा था । वह बेशकीमती धरोहर मेरी स्मृति पिटारी के कोनों में तब से आज तक सहेजी पड़ी है । वह चोरी चोरी संगीत सीखने का अनुभव, बालगोपाल कृष्ण कन्हैया द्वारा गोकुल में गोप-गोपियों के घर से चुराए हुए माखन मिस्री की तरह बहुत मधुर था । संगीत के प्रति मेरी रूचि बढाने और उसे स्थिर करने में वह मेरा बड़ा सहायक हुआ । बहुत सी चीजें जो मैंने उन दिनों चोरी चोरी सीखीं थीं मुझे आज ७०-७५ वर्ष बाद भी ज्यों की त्यों याद हैं ।
मुझे यह भी याद है कि मेरी उषा जीजी के लिए कलकत्ते से हार्मोनियम मंगवाया गया था और उन्हें संगीत सिखाने के लिए म्यूजिक मास्टर की तलाश शुरू हुई थी । कानपुर में उन दिनों तो तीन संगीत के अध्यापक थे, जोगलेकर जी, बलवा जोशी जी और बोडस जी । इन तीनों में से नेत्रहीन श्री जोगलेकर जी हमारे घर के पास में रहते थे और उन्होंने उषा जीजी को संगीत सिखाना शुरू किया । उनसे जब मेरी दीदी सीखती थीं, तब मैं भी उनके निकट बैठ जाता था । तब उस ११-१२ की उम्र में आपके आजके यह बुज़ुर्ग मित्र 'भोला ', संगीत के नाम पर कुछ फिल्मी गाने जैसे "अछूत कन्या" का "मैं बन की चिड़िया", "बन्धन" का "चल चल रे नौजवान" और इसी टाइप के कुछ अन्य गाने कभी कभी गुनगुना लेता था ।
संयोगवश, शायद पूर्व जन्म के संस्कार एवं प्रारब्ध के कारण हमारे परिवार पर "वीणापाणी माँ सरस्वती" की असीम कृपा थी । बड़े भैया, बड़ी दीदी तो गाते ही थे, मैं भी अपनी अस्फुट बोली में ग्रामोफोन रेकोर्ड़ों के स्वर में स्वर मिला कर उनपर छपे गाने सीख लेता था । संगीत के अलावा मुझे याद है, दो सेट नाटक के थे - [१] वीर अभिमन्यू, जयद्रथ वध, [२], बिल्वमंगल सूरदास । टीन के दो रंगीन डिब्बों में ये तवे बहुत सम्हाल कर रखे गए थे । इनके अतिरिक्त ठाकुर ओंकार नाथ जी, पंडित विनायक राव पटवर्धन जी, पंडित डी. वी पलुस्कर जी तथा बिस्मिल्लाह खां साहब के शास्त्रीय संगीत के भी तवे थे । उनके गायन में शब्दों की न्यूनता के कारण बचपन में हम उनका उतना आनंद नहीं उठा पाते थे । एक गीत जिसे हम बार बार सुनते थे वह था, उस जमाने के मशहूर संगीतज्ञ पंडित नारायण राव व्यास द्वारा गाया गीत जो उस छोटी उम्र में ही मेरा मन छू गया था, तभी तो आज ८० वर्ष बाद भी वह मुझे सस्वर याद है ।
भारत हमारा देश है, हित उसका निश्चय चाहेंगे ।
और उसके हित के कारण हम कुछ न कुछ कर जायेंगे ।।
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