१९३३-३४ में जब मैं ५ वर्ष का था, आजकल के "डे केयर सेंटर" जैसे एक बाल आश्रम जो कानपुर के रामलीला ग्राउंड, परेड के निकट स्थित था, मेरा दाखिला कराया गया । इस बाल शिक्षा आश्रम के संस्थापक थे एक खादीधारी, गांधीवादी देश भक्त नवयुवक । उनकी नवविवाहिता देविओं जैसी तेजस्वनी पत्नी पौराणिक आश्रमों की गुरु माँ की भांति बच्चों के प्रति और अपने पति के समान इस आश्रम की व्यवस्था के प्रति समर्पित थीं । उन दिनों हमारे बाबूजी (पिताश्री) एक अंग्रेजी कम्पनी के उच्च अधिकारी थे और हम एक बड़े बंगले में अंग्रेज परिवारों के बीच रहते थे । मेरे अध्यापक सक्सेनाजी मुझे बंगले से सायकिल पर बिठा कर स्कूल ले जाया करते थे । वहाँ कुछ पढ़ने लिखने के बाद खाना खा कर श्रीमती सक्सेना की प्यार भरी गोदी में मैं अक्सर सो भी जाता था । आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि उस जमाने में भी, "सान्दीपन आश्रम ", "बाल्मीकि आश्रम"और "गांधी आश्रम " की तरह, हमारे उस "डे केयर सेंटर" का नाम था, "बाल शिक्षा आश्रम" । उस आश्रम जैसे "डे केअर" में हमारे गुरुजी और गुरुमाँ हम बच्चों से नित्य प्रातः जो प्रार्थना करवाते थे, उसके बोल थे --
शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन ।
सम्हालो बिगडी दशा हमारी, दया करो हे दयालु भगवन ।।
हम सब "तोते" के समान इस प्रार्थना को नित्य प्रति गाते रहे । आश्रम के बालकों में मैं सर्व श्रेष्ठ गायक था अस्तु गुरु माँ बाजा बजातीं थीं और मुझे आगे आगे प्रार्थना गानी पडती थी । सो मैंने यह प्रार्थना इतनी गायी कि उसका एक एक शब्द मुझे जीवन भर के लिए कंठस्थ हो गया । कोई सवाल ही नहीं है कि तब ५ -६ वर्ष की अवस्था में हम में से कोई एक बच्चा इस प्रार्थना का सही अर्थ समझ पाता; इसके गहन भाव को, ईश्वर की असीम कृपा को हृदय में समा पाता । इस प्रार्थना में व्यक्त शरणागति की उच्चतम भावना तो हमें इस भौतिक जगत की विषम वास्तविकताओं से अनेकों वर्षों तक जूझ लेने के बाद ही समझ में आयीं । बाल शिक्षा आश्रम की अपनी उन "गुरु माँ" और गुरु को मैं शत शत नमन करता हूँ जिन्होंने शैशव में ही मेरे मानस में शरणागति के विशाल वटवृक्ष का बीजारोपण कर दिया ।
१९३६ में बाबूजी की नौकरी छूट जाने पर जब बंगले से आ कर हम सूटरगंज के घर में रहने लगे तब श्री प्रताप विद्यालय में मेरा दाखिला हुआ जहां मैंने अवधी, भोजपुरी और खडी बोली के मिश्रण से हास्य रस से भरी कविता के नाम पर एक तुकबंदी की, जो विद्यालय की पत्रिका में प्रकाशित हुई --
सो 'जेंटल मैंन' कहावत हैं
जो 'पैंट-कोट औ शर्ट' डार, 'गर कंठ लंगोट' लगावत हैं
सो 'जेंटल मैंन' कहावत हैं
जो 'सोला' टोपी शीश धरे, मुख 'गोल्ड फ्लेक' को धुवाँ भरे
'एल्शेशियन कूकुर' का पकरे नित 'ग्रीन पार्क' टहरावत हैं
सो जेंटल मैंन कहावत हैं
कहते हैं “होनहार विरवान के होत चीकने पात“ । माँ सरस्वती की कृपा से अपने भावों को शब्दों में संजो कर उसकी काव्यमयी प्रस्तुति कर उसे संगीत बद्ध करने की प्रवृत्ति मुझमें बचपन से ही रही है जिसके कारण मैं सदा अपने अध्यापकों का और अपने सहपाठियों का प्रिय पात्र बना रहा हूँ ।
१९४७ में कानपुर की नगरपालिका द्वारा आयोजित स्वतंत्रता दिवस के सांस्कृतिक कार्यक्रम में गाने के लिए मैंने अपनी छोटी बहिन माधुरी के लिए, जो तब केवल १२ वर्ष की थी, एक गीत लिखा --
आज के दिन हम आज़ाद हुए हैं
हम भूले नहीं उन शहीदों को माँ,
जिनने हँसते ही हँसते से दी अपनी जाँ
दिल के दागों में बैठा भगत सिंह महान,
दे गया देश को जो आजादी का दान
आज मस्तक झुकाये हुए हम खड़े,
उन शहीदों की याद में आंसू भरे
अपने हाथों में झंडा तिरंगा लिए,
दे गये अपनी जाँ जो वतन के लिए
आज के दिन हम आज़ाद हुए हैं
इस गीत की धुन बनाई और उसको सिखाया । कार्यक्रम से लौट कर माधुरी ने बताया कि उसके गीत में देशभक्त शहीदों के नाम और उनकी कुर्बानी की बातें सुन कर हाल में उपस्थित जनता तथा मंच पर बैठे सभी नेता, स्कूल के टीचर और अधिकारी रो पड़े और उसके स्कूल की हेड मिस्ट्रेस श्रीमती आर. के. आगा ने उसे गले से लगा लिया ।
एक बार गणतन्त्र दिवस पर जो रचना हुई उसकी झलक --
नव प्रभात जीवन में लाया एक नया उत्साह,
नव जीवन सन्देश ला रहा स्वर्णिम वर्ण प्रभात
जिनकी कुर्बानी से भारत बना स्वतंत्र महान,
जिस सेनानी ने हँस हँस कर दे दी अपनी जान
नहीं भूलना भारत वासी उनकी वह कुर्बानी ...
मैंने माधुरी के मुनिस्पल गर्ल्स स्कूल के लिए दहेज-प्रथा उन्मूलन के विषय को ले कर नाटक लिखा जो लक्ष्मी चान्दापुरी, शरद चतुर्वेदी आदि सहपाठिनियों के साथ माधुरी ने स्कूल के मंच पर मंचित किया ।
लगभग ७० वर्ष से मेरे जीवन की यह यात्रा आज भी उसी प्रकार आगे बढ रही है । कभी मध्य रात्रि में, तो कभी प्रातः काल की अमृत बेला में अनायास ही किसी पारंपरिक भजन की धुन आप से आप मेरे कंठ से मुखरित हो उठती है और कभी कभी किसी नयी रचना के शब्द सस्वर अवतरित हो जाते हैं !! न कवि हूँ, न शायर हूँ, न लेखक हूँ न गायक हूँ, लेकिन शैशव काल से अनवरत लिख रहा हूँ, अपनी रचनाओं के स्वर संजो रहा हूँ, स्वयं गा रहा हूँ, बच्चों से गवा रहा हूँ । साउथ अमेरिका के एक देश के रेडियो स्टेशन के "सिग्नेचर ट्यून" में नित्य प्रति मुझे अपनी एक शब्द व संगीत रचना सुनाई पडी थी । उसी देश के हिंदू मंदिर में मैंने अपनी बनाई धुन में बालिकाओं को भजन गाते सुना था । मैं क्या, मेरा पूरा परिवार ही भौचक्का रह गया था ।
जरा यह भी सोच कर देखिये, "चर्मकारी" के पेशे से आजीविका कमाने वाला मैं पशुओं के कच्चे खाल के दुर्गन्ध भरे गोदाम में, कभी अपनी कुर्सी पर बैठ कर, कभी सुपरविजन का आडम्बर करते हुए इधर उधर टहल टहल कर, मशीनों की गड़गड़ाहट के स्वर और ताल के सहारे इन गीतों को स्वर बद्ध करता था । पर कुछ ऐसी कृपा प्रभु हुई कि वहाँ के उस दुर्गंधमय वातावरण का कोई दूषित प्रभाव न उन दिव्य रचनाओं पर हुआ न उनके लिए मेरी बनाई धुनों पर ही हुआ । सच पूछिए तो वहाँ पर बनी धुनें इतनी हृदयग्राही बनी कि जब जिसने भी उन रचनाओं को सुना वह संगीत के स्वर रसामृत में डूब गया, आनंद विभोर हो गया ।
कैसे होते रहते हैं यह कार्य केवल और केवल हनुमत कृपा से । आप में से अनेको के मन मे यह प्रश्न उठ रहा होगा कि अपनी हर उपलब्धि को मैं "हनुमत कृपा" कह कर ही क्यों संबोधित करता हूँ । बात ऐसी है कि हमारे परिवार के "कुल देवता" श्री हनुमान जी महाराज का वरद हस्त सदा मेरे सिर पर रहता है और वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में साकार हो कर मुझे प्रेरणा देते हैं, मेरी सहायता और रक्षा करते हैं ।
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