शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

जन्मदात्री माँ ही गुरु माँ

हमें मानव जन्म देने की पहली "कृपा" के बाद "दूसरी कृपा" जो प्रभु ने हम पर की, वह थी "माँ स्वरूप में गुरु" की प्राप्ति । हमारा मानव-जन्म हमारी इच्छा से नहीं हुआ, परमात्मा की अहैतुकी कृपा से हुआ है । अब ये प्रश्न उठते हैं कि मेरा जन्म कहाँ हुआ?, कैसे परिवार में हुआ? संत-असंत, धनाढ्य -निर्धन, विद्वान-निरक्षर? क्या ये सब हमने निश्चित किया? नहीं, ये सब भी "उन्ही" की कृपा से हुआ ।

ऐसे कुल में जन्म दिया, जिस पर प्रभु तेरी कृपा बड़ी है ।
"महावीर" रक्षक हैं जिसके, आँगन उनकी ध्वजा गड़ी है ॥

प्रातः सायं नित्य प्रति प्रभु, होती जहाँ तुम्हारी पूजा ।
बिना मनाये तुमको हनुमत, होता कोई काम न दूजा ॥

ब्रिटिश सरकार के एक समृद्ध पोलिस अफसर की ज्येष्ठ पुत्री के रूप में अक्टूबर १८९५ में जन्मी, हमारी अम्मा, लालमुखी देवी का लालन पालन बिहार के भोजपुर क्षेत्र में उनके पिता के खानदानी गाँव सुहिया में हुआ, जहाँ पहुचने के लिए, उन दिनों के ईस्ट इंडियन रेलवे के बिहियां या ड़ूमराँव स्टेशन से मीलों तक बैलगाड़ी पर यात्रा करनी पडती थी । 

१९३० के दशक में, ७-८ वर्ष की अवस्था में हम भी उस धूल भरी राह से अनेको बार वहां गये थे । अम्मा का वह गाँव बिलकुल गंगा तट पर था और कुछ ऐसा अभिशाप था उस गाँव पर कि वह वर्ष में दो बार उजड़ कर दुबारा बसता था, क्यूंकि ग्रीष्म काल और बरसात के मौसम में गगा मैया उस छोटे से गाँव को अपनी गोद में ले लेती थी । ऐसे में कैसी शिक्षा दीक्षा मिली होगी हमारी माँ को आप समझ सकते हैं । एक दिन को भी वह किसी भी स्कूल में नहीं गयीं । गाँव के ही एक साक्षर ब्राह्मण से अक्षर ज्ञान मिला उन्हें - केवल अक्षर ज्ञान । और फिर उस जमाने के रिवाजानुसार १०-१२ वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह हो गया ।

एकमात्र "हिंदी" के अक्षर-ज्ञान वाली हमारी माँ ने केवल तुलसीदास की रामायण ही पढ़ी थी । तुलसी के मानस में दिए "धर्म" के लक्षणों को उन्होंने अपनी जीवन शैली में ज्यों का त्यों उतार लिया था । जब हम छोटे थे, हमारा सिर अपनी गोद में लेकर वह मानस की सारगर्भित पंक्तियों का गायन करती थी और उनका भावार्थ हमें बताती थीं । वह अपने साथ हम से भी उन चौपाइयों का सस्वर गायन करवाती थीं । हमसे "पाठ" सुनकर वह बहुत प्यार से भोजपुरी भाषा में कहतीं, "बबुआ तोहार गला ता खूब मीठा बा, काल फेर सुनइहा "

परम धरम श्रुति बिदित अहिंसा । पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥
धरम न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ॥
पर हित सरिस धरम नहि भाई । । पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ॥
अघ की पिसुनता सम कछु आना । धरम की दया सरिस हरि जाना ॥

प्रभु कृपा से मिली मेरी "प्यारी माँ" ने इस प्रकार लोरी सुनाते, गाते बजाते, खेल खेल में, मानव "धर्म" के आधार भूत तत्व सत्य, प्रेम, करुणा तथा सेवा आदि को हमारे मानस पटल पर अंकित कर दिया और पढ़ा दिया सत्य, प्रेम और अहिंसा का पाठ ।

बालपन में उन्होंने हमे सत्य हरिश्चंद्र की करुण कहानी सुना कर हमारे मन में बसा दी "सत्य" की महिमा, और फिर प्रति पूर्णमासी मोहल्ले में कहीं न कहीं होने वाली "भगवान सत्यनारायण की कथा" सुनकर हमने जाना, असत्य बोलने का परिणाम । कि झूठों को शतानंद के समान कष्ट झेलने पड़ते हैं । इस भय ने हमारे सत्य -भाषण के संकल्प को दृढ कर दिया ।

मेरी प्यारी माँ सत्य, प्रेम और करुणा की साकार मूर्ति थीं । अपने बच्चों को तो सभी माताएं प्यार करतीं हैं । लेकिन हमारी अम्मा तो घर में काम करने वाले नौकर-चाकर और आसपास के निर्धन और अनाथ बच्चों पर अपना प्यार लुटाती थीं । मुझे १९३४ की याद है । कभी कभी अम्मा घर की जमादारिन की नन्ही सी बच्ची "मखनिया" को सर्दी के दिनों में स्वयं गरम पानी से नहलाती धुलाती थीं और भूख लगने पर उसे चम्मच से दूध पिलाती थीं । यही नही वह हमारे साधनहीन निर्धन सहपाठियों की भी अक्सर हम से छुपा कर सब प्रकार की मदद करती रहती थीं । इस प्रकार अम्मा की रहनी और करनी की सिखावन से शैशव काल में ही सत्य, प्रेम और करुणा का समावेश हमारे जीवन में हो चुका था, जिसका प्रतिपालन श्री हनुमंत कृपा से आजीवन होता रहा ।

अम्मा ने हम सभी बच्चों को कई कई नाम दे रखे थे । दुलरा कर मुझे भी वह बहुत सारे नामों से पुकारती थीं -- "भोला" के अतिरिक्त, "भोलंग" (तैमूर लंग से "राइम" करता ), एक और "कन्हैया जी", हाँ एक और विचित्र नाम उन्होंने मुझे दिया था "तेर तेर तेर" । अम्मा ने एक विलायती नाम भी मुझे दिया था "ए. बी. भोवा" । उन्हें जब बहुत प्यार उमड़ता था तब वह मुझे इस नाम " ए. बी. भोवा " से ही पुकारती थीं । क्यों वह नाम दिया था उन्होंने मुझे, यह मैं उनसे कभी पूछ नही पाया । मेरे इस विशेष विलायती नाम का राज़ १९६२ में ५ दिसम्बर को अम्मा के साथ ही परलोक सिधार गया ।

नाम वाले बहुत आये गये, गुमनाम हुए,
बच गए वह जिन्हें उस "नाम" ने सहलाया है ।

जिस्म का नाम है कुछ, आत्मा तो है बेनाम,
सारी दुनिया ने फकत जिस्म को दुलराया है ।

देह है वह वस्त्र, जिसे डाल कर हम आये हैं,
सबने पोशाक को चाहा, हमे ठुकराया है ।


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