शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रवास

काशी हिंदू विश्व विद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जिसका संक्षिप्त नाम बी. एच. यू. है । यह भारत में आई. आई. टी. के स्थापन से पूर्व भारत के श्रेष्ठतम तकनीकी शिक्षा संस्थानों में से एक था जिसमें केवल भारत के विभिन्न प्रान्तों के ही नहीं अपितु पड़ोसी देश नैपाल, श्रीलंका, बर्मा तथा अन्य अफ्रीकी देशों से छात्र-छात्राएं उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने के लिए आया करते थे । इसकी स्थापना महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने सन १९१६ में की थी । १९४७ अगस्त में, जब मैं यहाँ अध्ययन के लिये आया उस समय विश्व विख्यात प्रवक्ता, शिक्षाविद, महान दार्शनिक, संस्कृति के संवाहक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसके कुलपति थे, जिनके ज्ञानवर्धक, रोचक, सारगर्भित, संस्कृति के अनमोल तथ्यों से भरपूर वक्तव्यों को तथा श्रीमभगवद्गीता के साप्ताहिक प्रवचन को सुनने के लिए सभी छात्र आतुरता से प्रतीक्षा किया करते थे और मंत्र मुग्ध हो कर उन्हें सुनते भी थे । छात्र नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में आचरण में उतारें यही मालवीय जी की हार्दिक अभिलाषा थी ।

मैं १५ अगस्त १९४७ को स्वतंत्रता प्राप्ति के उपलक्ष्य में आयोजित फूलबाग कानपुर में लगे स्वतंत्रता-मेला के उत्सव का आनंद लेने के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ टेक्नोलोजी मे इंडस्ट्रियल केमिस्ट्री में उच्चतम शिक्षा पाने के उद्देश्य से, बनारस पहुचा । देर से पहुँचने के कारण विश्वविद्यालय के मौर्वी होस्टल में मुझे कमरा नहीं मिला, कुछ समय के लिए विश्वविद्यालय के निकट के गाँव के एक कच्चे मकान में रहने की जगह मिली । इस कच्चे घर में न तो बिजली थी, न पानी की व्यवस्था ही थी । आधुनिक फ्लशयुक्त शौचालय, जिसका मैं जन्म से आदी था उसकी बात तो छोड़िये, यहाँ साधारण संडास की भी सुविधा नहीं थी, स्नानगृह होना भी दूर की बात थी । प्रातः अँधेरे में उठकर शौच हेतु मैदान जाइए, वहीं पास के कुएँ पर स्नान करिये, ऐसे होती थी दिनचर्या की शुरूवात ।

विश्वविद्यालय का दोष नहीं था । दोष मेरा ही था । एडमिशन का समाचार पाते ही दक्षिणी भारत, आसाम, बंगाल आदि से क्षात्र यथा समय पहुँच गये थे अत: मौर्वी हॉस्टल के कमरों में उनके रहने की उचित व्यवस्था हो गयी थी । मैं आराम से परिवार के साथ प्रथम स्वतंत्रता दिवस का आनंद लूटकर बरात की चाल से पहुंचा था देर से तो यह कष्ट मुझे झेलना ही था, लेकिन गुरुजन के आशीर्वाद और श्रीहनुमतकृपा ने मेरी इस समस्या को सुलझा दिया ।

उन दिनों बलिया निवासी मेरे फुफेरे भाई श्री प्रहलादप्रसाद (पा भैया), श्री चन्द्रमणि (चुनमुन भैया ), और मेरे भतीजे श्री अवध बिहारी लाल (छोटे भैया) इसी युनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, ब्रोचा होस्टल में रहते थे इसलिए उनके सौजन्य से मुझे वहाँ सब सुविधायें प्राप्त हो गयी और मेरा अधिकाँश समय इन्ही भाई -बंधुओं के साथ बीतने लगा । पा भैया मेरे ऑफीशियल गार्जियन थे, मुझसे बड़े और अधिक समझदार थे, यथा समय मेरी समस्याओं का समाधान करते रहते थे । छोटे भैया अवध बिहारी ने मुझे निर्भीक और निश्चिन्त रहने के लिए रामचरितमानस के अंतिम छंद में निहित रामकथा के माहात्म्य "पाई न केहि गति पतितपावन राम भज सुनु शठ मना" को कंठस्थ करा दिया था जिसे मैं स्वान्तः सुखाय आनंद पाने के लिए हर समय गुनगुनाता रहता था चाहे वह संकट मोचन हनुमानजी का मंदिर हो या विश्वनाथ मंदिर, चाहे होस्टल हो या निजी कमरा । इसके पाठ से मुझे आत्म प्रेरणा और ऊर्जा मिलती थी ।

सत्य तो यह है कि १७-१८ वर्ष की अवस्था तक मैं घर में ही रहा । अपने संचित प्रारब्ध एवं माता पिता के संस्कारों तथा उनके पूजा पाठ और पुन्यायी के सहारे, मेरी गाड़ी सब के साथ साथ भली भांति चलती रही । और जब मेरा घर छूटा, मैं बनारस आया तो अपनी छोटी मोटी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए श्री हनुमानजी को रिझाने की जरूरत महसूस हुई । विश्वविद्यालय के कुछ अन्य आस्तिक सहपाठियों के साथ मैंने मंगलवार को, निकट के नगवा गाँव में स्थित श्री हनुमान जी के संकटमोचन मन्दिर जाना प्रारम्भ कर दिया, अर्जी लगानी शुरू कर दी । उनकी कृपा हो गयी । तीन चार महीने में ही मुझे विश्वविद्यालय के मौर्वी हॉस्टल में कमरा उपलब्ध हो गया । 

मेरे कमरे में मेरा साझीदार रहा, कानपुर से ही आया "वीरेन्द्रनाथ बहल " । वह मेरा सहपाठी भी था । वीरेन्द्र में कुछ ऐसे सद्गुण थे जो अभिनंदनीय और अनुसरणीय रहे । वह अति अनुशासित जीवन जीता था । उसकी एक निश्चित दिनचर्या थी नियमित रूप से ब्रह्म बेला में उठ कर, नहा धो कर, स्वच्छ पोशाक और जूते पहिन कर, तरोताज़ा हो कर वह पढ़ने बैठ जाता था । प्रतिदिन के नोट्स सदा तैयार रहते थे । जितनी लगन से वह प्रातःकाल में अध्ययन और स्वाध्याय करता था उतनी ही लगन से सायंकाल के समय खेल के मैदान में हॉकी की प्रेक्टिस करता था । वह कॉलेज की हॉकी टीम का कप्तान था । वह अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता था । अनुशासित जीवन जीने का सुफल उसे मिला । उसने एम. टेक. की परीक्षा उच्च अंकों से पास की और केम्पस सिलेक्शन द्वारा टाटा केमिकल्स के मीठापुर इकाई के निर्माण काल में उसमें प्रोजेक्ट एसिस्टेंट नियुक्त हुआ, फिर कई वर्ष तक उस विशाल यूनिट के जनरल मेनेजर के पद पर आसीन रहा । यूनिवर्सिटी छोड़ने के लगभग १५ वर्ष बाद १९७४ में उससे मेरी भेंट मुम्बई में एक कॉन्फ्रेंस में हुई, उस समय वह "टाटा टी" का सी ई ओ कम डायरेक्टर था ।

मैं आलसी था । बड़े भैया की निगरानी में था । उन्हें सदा यह चिंता सताती थी की "कहीं बाहरी बच्चों की कुसंगति में बिगड़ न जाए" इस लिए मुझे घर से बाहर निकलने ही नही दिया जाता था । दसवीं तक भैया के साथ स्कूल जाना और उन्हीं के साथ वापस आना । इंटरमीडियट तक कभी कोई आउट ड़ोर गेम्स नही खेले । इस बार जीवन में पहिली बार, अकेले जीवन जीने, घर से बाहर निकला था, सो हतप्रभ सा रहता था । दिनचर्या ऐसी थी कि मैं आराम से सोया रहता जब वीरेन्द्र प्रातः काल पढ़ाई करता था । स्वयं ही कदाचित अपना कर्तव्य मान कर वीरेन्द्र कॉलेज जाने से पहले मुझे जगा कर जाता था । मैं जल्दी से ड्राई क्लीन स्नान करके बस्ता उठा कर बलिया वाले स्वजनो के ब्रोचा हॉस्टल नाश्ता पानी करने जाता और फिर वहां से कॉलेज जाता । शाम को भी भाई-बंधुओं के साथ भोजन करके अधिकाँश समय उन्हीं के साथ ब्रोचा हॉस्टल में बिता कर देर रात अपने कमरे लौटता था । जब तक कमरे में आता सोने का समय हो जाता, इस प्रकार मेरी पढ़ाई कैसी हुई होगी, आप स्वयं सोचें ।

वीरेन्द्र के अतिरिक्त विश्वविद्यालय में मेरा एक और मित्र बना । उसका नाम था "एन के रंगनाथ " । कालांतर में वह भारत का प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बना । यूनिवर्सिटी में भी वह बड़े अच्छे कार्टून और केरीकेचर बनाता था । विश्व विद्यालय में जो भी विशिष्ट अतिथि, अभिनेता, कवि -कवियत्री, संगीतज्ञ आदि समय समय पर आते रहते थे, तत्काल ही उनका कार्टून बनाकर उनके हस्ताक्षर ले लेता था। पंडित ओमकार नाथ ठाकुर, सरोद वादक अली अकबर खान के पिताश्री उस्ताद मुश्ताक अली, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, निरालाजी, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन आदि सब के ही कार्टून उनके समक्ष ही बना कर उनके हस्ताक्षर उसने लिए थे । उस समय मैं भी उसके साथ था, इस कारण मुझे भी इन विशिष्ठ महापुरुषों से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ । लगभग ४४ वर्ष बाद १९९४ में मेरे पुत्र माधव के शुभ-विवाह पर वह आशीर्वाद देने आया, दिल्ली में हम दोनों मित्र मिले और बनारस-प्रवास की मधुर स्मृतियों में खो गए ।

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