परदादी जी की आतंरिक पीडाओं का बाँध बलिया पहुंच कर शुरू शुरू में टूट गया था, पर धीरे धीरे उन्होंने अपने आपको पुन सम्हाल लिया । हरबंस बाबू और गोपाल जी को तलब किया गया और आदेश हुआ कि परदादा जी की तिजोरी मिश्रा जी और चाचा लोगों के सामने तुरंत खोली जाये, दादी जी के आदेशानुसार तिज़ोरी खोली गयीं, तिजोरी में दादाजी का रोजनामचा, खर्चा बही, ज़मींदारी और लेनदेन के कागजात के बीच एक पोटली में परिवार के सदस्यों की जन्मं कुण्डलियाँ थीं । उसमें ना तो जेवरात थे और न कोई धनराशि ही । सबके सामने जब कुंडलियों की पोटली खोली गयी, तब उसमे एक लम्बी चिट्ठी मिली, जो परदादाजी के हाथ की लिखी हुई थी और परिवार के सभी लोगों को संबोधित थी । उसमें लिखा था-------
अचानक कार्यक्रम बदल गया, मलकिन को भी साथ लेना पड़ा । तुम सब अचरज में होगे । वह बात ही कुछ ऎसी थी जिस पर मुझे तब खुद यकीन नही हो रहा था । फिर मै तुम लोगों को कैसे बताता । मगर आज अगर मेरी जगह तुम तिज़ोरी खोल रहे हो, तो समझ लो कि वह बात सच्ची साबित हो गयी । पितामह दादा ने ख़त में लिखा था कि अगर तिजोरी उनकी जगह किसी और ने खोली तो यह विश्वास करना ही होगा कि जो कुछ उस अजनबी आगंतुक ने उनसे यात्रा प्रारंभ करने से पहले कहा था उसका एक एक अक्षर सत्य था ।
उन्होंने आगे लिखा :
वह अजनबी उन्हें बैठक के एक कोने में ले गया और भोजपुरी भाषा में, बड़ा अपनत्व दिखाते हुए बोला " मालिक आप हम के ना चीन्ह्भ, ब़र हम ता तोहार सातो पीढी के जानेली तोहार बाबूजी ब़रजोर दास, उनके पाचो भाई और तोहार बाबा राम प्रसाद दासो के हम देखले रहनी । आगन के महाबीरी धजा के नीचे तू लोग जौन रोजे गावेला हम कूल सुनले बानी । आच्छा लागेला हम के ई कूल । " उसकी बातें विचित्र थीं । उसका स्वरुप भी कुछ विचित्र ही था । उजली लुंगी और उजले अंगौछे से उसने अपना लम्बा चौड़ा तन ढक रखा था । उसके चेहरे पर एक अनोखी आभा थी । । उसने हमसे गंगोत्री की जगह गंगासागर और पुरी धाम जाने की सलाह दी और यह भी कहा कि अपने साथ मैं मलकिन को जरुर ले जाऊं । मुझे दुविधा में देख कर उसने कहा । "मालिक तोहार बोलउआ पुरी धाम से आईल बा । उहें उनके दरबार में आपके मुक्ती लीखल बा । दरसन दे के ऊ आप के बिमान पे चढा के आपन परम धाम ले जैहें । इहाँ के कूल बेबस्था करके निकलिहा " उसकी बात ने मुझे चौका दिया । अभी मैं सम्हल भी ना पाया था कि वह फिर बोला कि "बाबू हम बड़ा दूर से अइनी हां । कुछ पन पियाव ना करइबा का ? "
मैं भीतर गया उसके लिए कुछ नाश्ता मंगवाने और जब लौट के आया तब तक वो गायब हो चुका था । कितना खोजवाया मैने उसे पर वह कहीं नह़ी मिले अचरज तो यह है कि वह हमारे कुलदेव हनुमानजी की तरह "अति लघु रूप " तथा "सूक्ष्म रूप धारी " वायुमंडल में कहाँ समा गये । उनकी बात झूठलाने अथवा जग जाहिर करने का साहस मैं नह़ी कर सका अस्तु यह पत्र लिखा । लेकिन जब तुम लोग यह खत पढ़ रहे होगे, तब तक तो जो होना है हो चुका होगा ।
पितामह की परहित भक्ति से श्री हनुमान जी प्रसन्न हुए और स्वयम साक्षात प्रगट हो कर पितामह का मार्ग दर्शन किया और उनकी परमधाम यात्रा सुगम कर दी । पितामह का पार्थिव शरीर, विश्व-रंगमंच पर अपना किरदार भली भांति निभा कर नेपथ्य में विलीन हो चुका था । साक्षात महाबीर जी की प्रेरणा से हुई इस मंगलमयी तीर्थ यात्रा में पितामह की विशुद्ध पुण्यमयी आत्मा परमपिता परमात्मा के निज-धाम में प्रवेश पा चुकी थी । संसार सागर की उत्तुंग तरंगों पर थिरकने वाला चन्द्र-प्रतिबिम्ब, किरणो की सवारी कर वापस चंद्रमा में समा चुका था । अब धरती पर परिजनों के स्मृति पटल पर अंकित थी उनके साथ बितायी हुई अत्यंत सुखद और शिक्षाप्रद पलों की यादें । उनका अनुशासित जीवन, उनकी पूजा, उनकी आराधना, उनकी उपासना, उनकी परसेवा का वह अनोखा ढंग जो आज भी अनुकरणीय है ।
प्रपितामह की तीर्थ यात्रा की कथा, अटल विश्वास से समग्र समर्पण तक पहुँचने की कथा है। विश्वास से प्रेम, प्रेम से भक्ति, भक्ति से कृपा, कृपा से "समग्र समर्पण" अन्ततोगत्वा "दर्शन" अथवा परम शांति की प्राप्ति । कब किस रूप में, कहाँ और कैसे जीवन की महा यात्रा अंतिम विश्राम लेगी यह तो कोई नहीं जानता । मेरे प्रपितामह को अपने इष्ट हनुमान जी की प्रेरणा से श्री जगन्नथजी के श्री चरणों में परम विश्राम प्राप्त हुआ । मन ही मन उन्हें अटल विश्वास था कि अजनबी आगंतुक कोई और नहीं उनके इष्ट देव हनुमानजी ही थे ।
तत्व की बात यह है कि सच्चा भगत सदैव अपने इष्ट देव के आश्रित ही रहता है । सत्कर्म और सत्संग से वह परमात्मा के परमधाम में पहुँच कर परम आनंद को प्राप्त करता है । मानव जन्म का लक्ष्य है - श्रीहरी के श्री चरणों का आश्रय लेना (श्रीमद भागवत अध्याय ७/६२ )
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