सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

बाबा दादी की तीर्थयात्रा

तीर्थ यात्रा उन दिनो बडी दुर्गम होती थी। भाग्यशाली ही जा पाते थे । जो सकुशल लौट आता था, परम भाग्यशाली और सच्चा भगत माना जाता था। इस कारण यात्री गण और उनके परिवार वाले चिन्तित और आशन्कित रहते थे। घर मे पूजा पाठ की मात्रा अधिक हो जाती थी। मनौतिया मानी जाती थी। प्रति मास की जगह प्रति सप्ताह सत्य नारायण देव की कथा चालू हो जाती थी। वैसी ही आशंका हरवन्श भवन के सदस्यों को भी हो रही थी। आशंका का विशेष कारण था, यात्रा के कार्यक्रम मे अन्तिम क्षण का हेर फेर । बाबाजी जैसे दृढ निश्चयी व्यक्ति का अपना महीनो पहले बना कार्यक्रम रद्द कर के तुरन्त ही नयी योजना बनाना और एकाएक दादीजी तथा मनेजर मिसिर जी और मिसिराइन को साथ लेने का निश्चय करना, गंगा के उद्गमस्थान गन्गोत्री न जा कर गङ्गासागर जाने का संकल्प करना, सबको आश्चर्य चकित कर रहा था । कुछ लोगो को तो विदाई के समय उस विचित्र स्वरूपवाले अजनबी केअचानक आने और फिर उतनी ही शीघ्रता से गायब हो जाने की बात रहस्यमयी लग रही थी । जो भी कारण रहा हो, बाबा दादी तो अब जा ही चुके थे। अब क्या हो सकता था ? केवल प्रार्थना और शुभकामनाये के सिवाय ।

लगभग चार सप्ताह बीत गये, बाबा जी की यात्रा के विषय मे कोई समाचार नही मिला। सब जानते थे इतनी जल्दी कोई खबर नही मिल सकती । फिर भी चिन्ता करना मानव का जन्म सिद्ध अधिकार मान कर, केवल घर वाले ही नही वरन सभी गाँव वाले भी बाबाजी की चिन्ता कर रहे थे। गाँव के नन्हे नन्हे बालक अपनी माँ से रात मे पूछते "ए माई, घोड़ा वाला बाबा कहा चल गैले, कब अइ हइ ? " फिर एक दिन एक कार्ड आया, इस शुभ समाचार के साथ कि यात्री श्री गंगासागर पहुँच गये, वहाँ सागर मे स्नान किया और विधिवत पितरो का तर्पण भी कर लिया। एक गन्गाजली मे गंगा सागर का पवित्र जल भी भर लिया है । अब चारों यात्री श्री जगन्नाथ पुरी की ओर प्रस्थान करने वाले हैं। सबकी कुशलता का समाचार जान कर सारा परिवार या यूँ कहिये सारा गाँव ही खुश हो गया । पर इसके बाद बहुत दिनो तक कोई समाचार नही मिला । इसलिए महाबीरी ध्वजा के नीचे रोज़ रोज़ की पूजा, हनुमानचालीसा का पाठ और साप्ताहिक सत्य नारायण व्रत कथा विधिवत होती रही ।

एक दिन रेलवे स्टेशन के तार बाबू के पास बडका स्टेशन से तार आया था कि दोक्ती-बाजिदपुर-बलिया के यात्री स्टीमर से गंगा पार कर के अब रेल गाड़ी पर सवार हो चुके हैं । स्टेशन के बड़े बाबू ने आदमी दौड़ा कर हमारे डेरे पर खबर करवायी थी । यात्रिओं को घर लाने के लिए घोडा गाड़ी रवाना की गयी । एक गाड़ी में पर्दा लगाया गया जनानी सवारिओं के लिए । बाबाजी जी के साईस गिरधर उनकी बग्घी जोत कर ले गये । डेरा पर मेला सा लग गया । सब सांस रोके प्रतीक्षा करने लगे । स्टेशन से परदे वाली सवारी पहिले आयी। नियमानुसार वो ज़नानखाने के दरवाज़े पर कोठी के पिछले भाग मे लगायी गयी। अपनी ईया (दादी माँ) से हमने सुना है कि दादी माँ के उतरते ही ज़नाने दालान मे जैसे कोहराम सा मच गया । औरतो के रोने की आवाज़ दूरदूर तक सुनायी दे रही थी । बाहर का सब जन समुदाय सुन्न हो गया था ।

तब् तक मेनेजर मिसिर जी भी माल असबाब लिये स्टेशन से आगये । बाहर बारामदे मे उनके साथ बहुत से टोळे मोहल्ले के लोग जमा हो गये। इस बीच दोनो बेटे हरबन्स बाबू और गोपाल सरन जो काम काज से कही बाहर गये थे वापस आये । दूर से ही मिसिर जी को राम राम कह कर दोनो ने घर के अन्दर प्रवेश किया। आँगन का नज़ारा बहुत ही दर्दनाक था । उनके आते ही दादी माँ ज़ोर से सिसक सिसक कर रोने लगी। दोनो को उन्होने गले से लगाया और विलाप करती हुई बोली "ए बाबू तोहार बाबुजी त चल गैले। हम सब के अनाथ करि गैले। अब त कुल तोहरे कन्धा पर बा। तोहरे के सम्हारे के बा।" इतना कह कर दादी माँ बेहोश हो गयी । वह अपनी अम्मा से बाबू जी के आकस्मिक निधन का कारण जानना चाहते थे । लेकिन माँ कुछ भी बात करने से पहले ही फफक फफक कर रोने लगती थी । वह कुछ बोल ही नही पाती थी । बेटों ने इसलिए अति दुखी मन से मिसिर जी से ही पूछ लेना मुनासिब समझा ।

हरबंस बाबू और गोपाल सरन ने उनसे भी वही सवाल किये । "बाबूजी अच्छे खासे यहाँ से गए थे, अचानक क्या हो गया उन्हें ? और आपने कोई खबर भी नही भेजी, एक तार ही दे देते हम सब कितने खुश थे कि गंगा सागर में बाबूजी ने अपना सब संकल्प पूरा कर लिया । बोलिए न फिर क्या हो गया " ।

बड़े संकोच के साथ, दुखी मन, डबडबायी आँखे और रुंधे कंठ से मिसिर जी ने कहना शुरू किया । " क्या कहें भैया, मालिक यात्रा के श्री गणेश से आखरी पड़ाव तक पूरी तरह स्वस्थ और सानंद थे । उन्होंने बड़ी श्रद्धा के साथ अम्मा जी का हाथ पकड़ कर, सभी मंदिरों में देव-दर्शन किया, चढावा चढाया, प्रसाद पाया। वह नज़ारा देखने लायक था लेकिन हमें ऐसा लगा जैसे सबसे अधिक आनंद उन्हें गंगा सागर में मलकिन के हाथ में हाथ डाले, गिन कर सात डुबकी लगाते समय ही आया था । दोनों जन बिलकुल बच्चो की तरह पानी से खेलते रहे, पानी से निकल कर वह वही सागर तट पर शीतल पाटी बिछवा कर मलकिन के साथ बैठ गये और जोर जोर से समवेत स्वर में रामायण का पाठ करने लगे, गद गद स्वर में वह प्रभु को उनकी अनंत कृपा के लिए धन्यवाद देते रहे । भोजपुरी पारम्परिक गीत रास्ते में गुनगुनाते रहे।"

जय जय जगन्नाथ सुरधाम

बहिनी संग पुऱी चलि आये किशन और बलराम । 
तीनों के आये से बनि गयि जगन्नाथ सुखधाम ॥

गोकुल मथुरा बिंद्राबन तज गये द्वारिका धाम ।
सब के छोड़ इहाँ चलि आये काहे हे घनश्याम ॥

तनिको सुचला नाहि कि कैसे अइहें भगत तोहार ।
जम्मू कोची मारवाड़ के सबल अबल नर नार ॥

नीलचक्र पर ध्वजा सुहाए मस्तक साजे तीरा ।
गऊरंग चेतन नाचे बाह उठाय नयन भर नीरा ॥

हमरो ऊपर कृपा करा प्रभु दर्शनं दे द हमके ।
बहुत दूर से हम अइनीहा आस पूरावह मन के ॥

"क्या बताएं भैया गंगासागर में मालिक-मलकिन की जोड़ी इतनी दिव्य और सुंदर लग रही थी कि हम सब रोमांचित हो गये थे । शायद वहीं उन्हें हमारी नजर लग गई । " इतना कह कर मिसिर जी फूटफूट कर रो पड़े । वार्तालाप का क्रम तोडना पड़ा । परिवार के जो सदस्य वहा थे वह भी रो पड़े ।

सुबह होते ही मिसिर जी को फिर बुलाया गया, चाचा लोग भी आगये । मिसिर जी ने कहना शरू किया:" भैया, गंगासागर के तट पर मालिक ने रौनक लगा दी । उस दिन हम लोगो के अलावा देश विदेश के अनेक जगन्नाथ भक्त वही रेती पर बैठकर उनका सारगर्भित भजन मन लगा कर सुन रहे थे । उनमे से एक उड़िया भगत ने मालिक से अर्ज किया कि भजन का सरल भावार्थ बताने की कृपा करें । भैया, मालिक पर तो जैसे भगवान जी ने अपनी सारी ज्ञान-गगरी एक साथ ही उड़ेल दी थी ।

मालिक ने कहा था " प्रभु हम सब प्राणियों पर, हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी कृपा वर्षा करता रहता है- जरा सोचो, हमे पेड़ पौधे कीड़े मकोड़े और जानवरों का रूप न देकर मानव देह देने वाले परमपिता परमात्मा ने हम पर कितनी मेहरबानी की है, यह कितना बड़ा अनुग्रह है, उनका हम पर ? अब वह ही, अपनी अहेतुकी कृपा से दर्शन दे कर हमारे माया मोह के बन्धनों को काटेंगे और हमे आवागमन के चक्कर से मुक्त करवाएंगे"

अगले दिन सुबह हमे श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर जाना था सोने से पहले देर रात तक मालिक ने हरिचर्चा की और बहुत ज़ोरदार भजन कीर्तन किया तभी एक बंगाली भक्त ने बताया कि मंदिर में, ठीक जगन्नाथ जी के गर्भ गृह के सामने ही वह पत्थर का चबूतरा है जहाँ खड़े होकर चैतन्य महाप्रभु बंद नेत्रों से ही जगन्नाथ जी के विग्रह का दर्शन करते थे । कहते हैं कि महाप्रभु के प्रेमाश्रु की झड़ी से उस चबूतरे के पत्थर में अनेकों छिद्र हो गये हैं और गौरांग के श्री चरणों के चिन्ह अभी भी उस पर अंकित हैं । मालिक ने उन संत से अनुरोध किया कि वह उन्हें उस पत्थर का दर्शन अवश्य कराये । "


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