अतीत के पृष्ठ पलटते याद आया कि मुझमें और रंगनाथ में एक समानता थी । खेल कूद जैसे मनोरंजन में न तो वह और न मैं दोनों ही कोई विशेष रुचि नहीं रखते थे । मुझे एकांत में बॉलीवुड के नामी संगीतकार नौशाद साहेब के निर्देशन में गाये गीत गुनगुनाने का और उसे ड्राइंग शीट पर पेन्सिल से कलात्मक रेखाचित्र बनाते रहने का शौक था । कला पारखी रंगनाथ शास्त्रीय संगीत का प्रेमी था, उसने ही मुझे संगीत के क्षेत्र में कुछ कर दिखाने की उमंग भरी थी, एक वही मित्र था जिसके प्रयास और प्रेरणा से मैंने विश्वविद्यालय में संगीत के क्षेत्र में प्रसिद्धि पायी थी ।
एन. के. रंगनाथ ने सुदूर देश नेपाल, अफ्रीका आदि से आये विद्यार्थियों को उत्तर भारतीय संगीत से परिचित कराने के उद्देश्य से विश्वविद्यालय में संगीत गोष्ठियों के आयोजन कराने आरम्भ किये थे । तिथि तो मुझे याद नहीं, १९४७ में वार्डन प्रोफेसर गुप्ताजी की अनुमति से ब्रोचा हॉस्टल के आगे के प्रांगण में जब उसने पहिली संगीत गोष्ठी आयोजित की तब तक वह अधिक गायकों से परिचित नहीं था । इसलिए उसने इसमें केवल मेरा ही कार्यक्रम कराया । मैंने उन्हीं दिनों रिलीज़ हुए "अंदाज़" फिल्म में मुकेश के गाये हुए दो तीन गीत गाये तथा उन्हीं दिनों अखबार में छपी श्री रामकुमार चतुर्वेदी की रचना "अभी तो रात बाक़ी है" का स्वयं स्वर-संयोजन करके उसे गाया जिसकी सभी श्रोताओं ने सराहना की । उन दिनों फिल्मी गायकी के क्षेत्र में मेरे आदर्श, मेरे मेंटर थे संगीत विज्ञ मुकेश । उन दिनों मेरी आवाज उनके जैसी ध्वनित होती थी अत: चांदी ही चांदी थी । मुझे गीत गोष्ठियों में सम्मिलित होने का और उसमें अपनी गायन-कला के प्रस्तुतिकरण का सौभाग्य मिलने लगा, मै संगीत के क्षेत्र में नाम कमाने लगा । यद्यपि मैं संकोची स्वभाव का था फिर भी मुझे बी. एच. यू. म्युज़िक एसोसिएशन का सदस्य धोषित कर दिया गया । पर प्रश्न यह है कि क्या यह कामयाबी मुझे रास आई ? सच तो यह है कि इस प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा ने मेरे वाराणसी -प्रवास को अनेकों समस्याओं से आच्छादित कर दिया ।
इन संगीत गोष्ठियों में भाग लेने के कारण जहां कई सीनियर और जूनियर साथियों से मेरे सौहार्द संबंध स्थापित हो गए वहीं मेरे व्यक्तित्व, स्वभाव, रहन-सहन, अध्ययन आदि से संबंधित चर्चाएं विद्यालय के छात्र-छात्राओं के बीच होनी शुरू हो गयी । महिला हॉस्टल की ताई ने बतलाया था कि मेरे कारण पनपी आपसी ईर्ष्या के कारण वहां की छात्राओं में परस्पर वाद-विवाद, नोक झोंक, झड़प यहां तक कि मार-पीट भी होने लगी थी । इस परिवेश में संगीत के कारण मिली प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि पारस्परिक वैमनस्य का कारण बन गयी । मेरे पठन-पाठन पर इसका असर पड़ने लगा, एकाग्रता लुप्त हो गयी, मन भटकने लगा । एक दिन की डाक में मुझे एक स्थानीय पोस्टकार्ड मिला, जिसमें लिखा था कि बी एच यू के घाटों पर रेंकने वाले ' हे भोलाजी महाराज ' क्या खूब गाते हैं आप ? लड़के लड़कियां ताली बजाते हैं आप फूल कर कुप्पा हो जाते हैं, आपके हर गाने के बाद लड़के चिल्लाते है, नो मोर नो मोर (No more No more), पर आप केवल कन्याओं की आवाज़ (once more, once more ) वंस मोर वंस मोर सुनकर फिर गाने लगते हैं, कभी नो मोर नो मोर पर भी ध्यान दीजिये । ”
विद्याध्ययन में विघ्न पड़ने की आशंका से मेरे स्थानीय अभिभावक, मित्र और हितैषी भाई-बंधुओं ने मेरे बाबूजी को मेरी इन सब उलझनों से अवगत कराया तो उन्होंने मुझे तत्काल पढ़ाई अधूरी छोड़ कर कानपुर वापिस आजाने का आदेश पारित कर दिया । ऐसी स्थिति में मेरे काम आये मेरे इष्टदेव संकटमोचन महावीरजी, उन्होंने अपना वरद हस्त मेरे मस्तक पर रखा, उनकी ही प्रेरणा से बाबूजी ने मेरी दलीलें सुनीं और मेरी मनोस्थिति की विवेचना करके, मुझ पर विश्वास रख कर मुझे पढाई का सत्र पूरा करने की अनुमति प्रदान कर दी ।
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