मिसिर जी आगे बोले:
"अन्ततोगत्वा वह मंगल दिवस आ ही गया, सूर्योदय से पहले ही सब जग कर उठ बैठे । विश्राम चट्टी पर काफी पहले से ही चहल पहल मची हुई थी । गौडिया वैष्णव भगत ढोल मजीरा बजा बजा कर "हरे कृष्ण" मन्त्र का कीर्तन, और भजन गायन कर रहे थे । गाते बजाते, हम लोगों ने भी चट्टी से प्रस्थान किया । मंदिर के पूर्व दिशा वाले सिंघद्वार से हमने उस भव्य प्रांगण में प्रवेश किया । मंदिर का विशाल प्रांगण श्री जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा जी के जय कारों से गूंज गया । कहाँ कहाँ के भगत वहां एक प्रांगण में इकठ्ठा खड़े थे हमारे ही जत्थे में जहाँ एक तरफ अवध के गंगा किनारे यू पी के दोकती बाजिदपुर बलिया के निवासी और कहाँ सुदूर पूर्व में मेघना-ब्रम्हपुत्र तट वाले, बालुरघाट-दिनाजपुर बंगाल के यात्री एक जुट होकर, एक ही परमेश्वर की कृपा प्राप्ति हेतु, मिलजुल कर एक साथ समवेत स्वरों में एक ही भगवान को आवाज़ लगा रहे थे । कितने एकांकियों का एकीकरण श्री जगन्नाथ पुरी धाम में हो रहा था ।
बालूरघाट वाले मन्मथ सेन बाबू मालिक का हाथ पकड कर गर्भ-गृह की ओर बढ़ रहे थे, मालिक मलकिन का हाथ थामे थे और मलकिन हमारी वाली का, हम पीछे पीछे पूजा की सामिग्री लेकर चल रहे थे, मालिक बिलकुल स्वस्थ थे । मालिक ने मन्मथ बाबू से कहा, "अरे वह महाप्रभु का आसन तो आपने अभी तक दिखाया ही नही । " मन्मथ बाबू ने इशारे से उन्हें वह स्थान दिखाया और वहीं से उस आसन को साष्टांग प्रणाम किया । मालिक ने भी वहीं से प्रणाम किया, त्रिमूर्ति के सामने खड़े होकर अपनी प्रार्थना की । कुछ समय तक वह खुली आँखों से त्रिमूर्ति के मनमोहक स्वरुप का दर्शन मंत्रमुग्ध हो करते रहे फिर धीरे धीरे उनकी आँखें मुद गयीं और मन्मथ नाथ का हाथ पकड़े वह वहीं भूमि पर बैठ गये । उनकी बंद आँखों के कोनो से टप टप कर आंसुओं की बूंदें नीचे गिरने लगीं । पर उनके मुख मंडल पर चिंता या कष्ट का कोई चिन्ह नही था । उनका चेहरा एक अनोखे तेज से चमचमा रहा था ।
पितामह उस स्थान पर थे जहाँ पर खड़े हो कर निमाई ठाकुर (चैतन्य महाप्रभु ) अपनी पूजा करते थे । धीरे धीरे उनका शरीर शिथिल पड़ने लगा । मन्मथ बाबू चिंतित हो कर जोर से बोले " दादा मोशाई की होच्चे आपोनाय, चोख्ह टा खोलून । कीछू बोलूँन ना मोशायी " (दादाजी आपको क्या हो रहा है, आँखे खोलिए, कुछ बोलिए तो श्रीमान ) इस बीच पृथ्वी पर शांति से पड़े पितामह के शरीर को अन्य यात्रियों ने घेर लिया, दादी माँ मूर्छित हो गयीं । दर्शनार्थी कहीं से एक डॉक्टर खोज के ले आये । डॉक्टर ने जांच कर के पितामह को मृत घोषित कर दिया ।
मंदिर में मौजूद सभी यात्री और पंडे पुरोहित उदास हो गये । होश आने पर दादी माँ पहले तो जोर जोर से रोईं फिर आश्वस्त हो कर उन्होंने आदेश दिया कि दादा जी का दाह एवं अंतिम सारे संस्कार विधि विधान से वही जगन्नाथपुरी धाम में ही होगा । यात्रिओं की मदद से उन का अंतिम संस्कार विधिवत सम्पन्न हुआ ।"
आप आश्चर्य चकित होंगे कि अपने पितामह के देहावसान की यह करुण कथा मैं एक झटके में बिना किसी संकोच के कैसे कह गया । प्रियजन, उसी परिस्थिति में आपने हमारी परदादी माँ का गम्भीर करुण रूप भी देखा और उनके सन्तुलित विचारों से अवगत हुए । किस प्रकार उन्होंने उस विषम समय में अपनी निजी पीड़ा को नज़रंदाज़ कर, पूरी सूझ बूझ से, पितामह का " क्रिया कर्म" संपन्न करवाया, सराहनीय है ।
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