आज से लगभग एक डेढ़ शताब्दी पहले की बात है, हमारे पूर्वज बलिया सिटी में बस चुके थे । शताब्दियों पहले यह खेतिहर परिवार किसी श्रीनगर नामक स्थान से विस्थापित होकर बलिया के परगना " दोआब "- दीय्रर में (जो तब यू पी प्रोविन्स के गाजीपूर ज़िले मे पड़ता था) आकर बस गये थे । ये काश्तकार थे, बाद में डुमराव नरेश द्वारा तहसीलदार के पद पर नियुक्त हुए थे ।
मेरे प्रपितामह लाला रामहितदास परोपकारी, प्रेमी कर्मयोगी, गृहस्थ और हनुमान-भक्त थे। यद्यपि वह काम काज से अवकाश ले चुके थे, फिर भी एक काम वह आजीवन करते रहे । वह था - रात्रि का भोजन पाने से पहले नित्य प्रति घोड़े पर सवार हो पूरे गाँव का चक्कर लगाना और गाँव मे सभी का कुशलक्षेम पूछना-जानना, विशेष कर यह जानना कि सबने भर पेट खाना खाया या नहीं । गांव के हर घर मे जब तक चूल्हा नही जला उन्होने स्वयं भोजन नहीं किया। उनकी प्रजा कभी भूखी नहीं सोयी । "परहित सरिस धरम नहि भाई" को चरितार्थ करते हुए उन्होंने अपना पूरा जीवन जिया। उन्होंने एक मात्र यही धर्म निभाया, यही उनकी पूजा थी, यही आराधना ।
एक क्रम और उन्होंने आजीवन निभाया - वह था रोज़ प्रातः महावीर जी की ध्वजा के नीचे यह प्रार्थना करना कि 'हे महावीरजी हमरा के कुछू और ना चाही, बस हमरा के राम जी के भक्ती दे द, सब बचवन के सुबुद्धी द कि लगन मन लगाके प्रेम से आपन काम काज करें ।' वह आजीवन श्रद्धा विश्वास सहित परम पिता परमात्मा से केवल उनकी कृपा दृष्टि ही मांगते रहे ।
उनका दृढ़ विश्वास था कि :
"बिनु बिस्वास "प्रीति" ना होई, सघन"प्रेम"कहु "भगती" सोई "।
भगति बिना न मिलें भगवाना, बिनु उन "कृपा" न हो कल्याना "। ।
उनके पुत्रों में दो पुत्र हरवन्श सहाय और गोपाल शरण लाल, अपने पिता के समान ही सदाचारी और अपने कुलदेवता श्री हनुमानजी के भक्त थे। संयोगवश श्री गोपालसरन का देहान्त कच्ची उम्र में ही हो गया था इसलिए तत्कालीन परिस्थिति में लगभग ५०-६० प्राणियों से भरे-पूरे परिवार की परवरिश का सारा भार ज्येष्ठ भाई हरबंस सहाय के कंधों पर आ पड़ा । श्री गोपालसरन के पुत्र, मेरे पिताजी श्री बदरीनाथ का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि बलिया में अपने भाइयों के संरक्षण में हुआ । संयुक्त परिवार की प्रथा और परम्परा के अनुसार मेरे इन्हीं बड़े बाबा के नाम पर बलिया के घर का नाम हरबंस-भवन रखा गया ।
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