हमारे परिवार में ऐसा अनेक बार हुआ है कि किसी सर्वथा अपरिचित तथा अनजाने व्यक्ति ने न जाने कहां से अचानक ही प्रगट होकर हमारे पूर्वजों की जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान किया और उनका मार्ग दर्शन कर वह ऐसे अंतर्ध्यान हुए कि फिर कभी कहीं मिले ही नहीं ।
भारत पर उन दिनों ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का शासन था । तब बलिया जिला नहीं था, वह गाजीपुर जिले की एक तहसील थी और बलिया वालों के लिए कचहरी, अदालत, हस्पताल, आदि सब कुछ गाजीपुर नगर में ह़ी था । हमारे प्रपितामह लाला रामहितदासजी बलिया के एक छोटे से गाँव के एक सीधे सादे समृद्ध-सम्पन्न बड़े काश्तकार थे। उनको किसीने एक झूठे फौजदारी मुकद्दमे में फंसा दिया । वह बिना किसी वकील मुख्तियार से सलाह लिए डर के मारे घबड़ा कर घरबार छोड़ कर गाँव से भाग निकले । चलते चलते शाम हो गयी। दिया बत्ती का समय हो गया । गाजीपुर नगर निकट आ रहा था । वहाँ के सिविल लाइन के सरकारी बंगलो में और नील के कारखानेदारों की बड़ी बड़ी कोठियों के बाहर पेट्रोमेक्स में हवा पम्प करते वर्दी पगड़ी धारी कर्मचारी नजर आने लगे। दिनभर के भूखे प्यासे दादाजी सडक के किनारे वाले बागीचे में एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगे।
शायद पल भर को उनकी आँख लगी होगी कि उनके कान में कुछ खटर पटर की आवाज़ आयी, जैसे कोई भारी भरकम शरीर वाला व्यक्ति लकड़ी के खडाऊं पहने उनकी ओर आ रहा है । वह घर से भागे थे इसलिए इस आशंका से कि कोई पुलिस वाला पकड़ने आ रहा है, काँप उठे और अपने को झाड़ों के पीछे छुपाने के निष्फल प्रयास करने में लग गये । तभी एक भारी सी आवाज़ उनके कान में पड़ी । कोई ठेठ भोजपूरी भाषा में उनसे कह रहा था "का बबुआ काहे ऐसे भागत बाड़ा एन्ने ओन्ने ? बुडबक हमार बात मान । तोर कौनो दोष नइखे, तू झूट्ठे घबड़ाता रे "।
इतना सुन कर हमारे दादाजी कौतुहल वश इधर उधर घूम कर उस अनजान व्यक्ति को खोजने की कोशिश कर ही रहे थे कि उन्हें कन्धों पर किसी की भारी हथेलियों का मधुर स्पर्श महसूस हुआ । आगंतुक ने ठेठ भोजपुरी में उनसे कहा ( आपकी सुविधा के लिए मैं उसे खड़ी हिंदुस्तानी बोली में यहाँ लिख रहा हूँ ) "बच्चे । तूने कोई जुर्म नही किया है ,तू झूठमूठ के लिए ही इतना परेशान क्यों हो रहा है । ऐसे घर बार छोड़ कर दर बदर भटकने और अपने नित्य कर्म त्यागने से क्या लाभ?" फिर उसने अपने बड़े से झोले में से पीतल का एक चमचमाता हुआ लोटा और मोटे गाढे का धुला हुआ गमछा निकाल कर दादा जी को दिया और कहा, "आज मंगलवार है, सामने के कुँए पर जा कर मुंह हाथ धो कर आओ, महाबीर जी का प्रसाद पाओ उसके बाद आगे बात होगी । " आश्चर्य चकित हो दादाजी यह सोचने लगे क़ि वह अनजान व्यक्ति कैसे जान गया क़ि वह गिरफ्तारी के भय से फरार एक अपराधी हैं।
कुँए से लौटने के बाद दादाजी को प्रसाद खिला कर अनजान आगंतुक ने अपने झोले में से एक जोड़ा धुला धुलाया वस्त्र निकाल कर दादाजी को दिया और कहा कि भोर होते ह़ी वह नहा धो कर, ठीक से तैयार हो कर सामने के बड़े बंगले में जायें जहाँ उनकी सुनवायी की पूरी व्यवस्था हो गयी है और वह "जय श्रीराम" का उद्घोष कर जैसे आया था वैसे ही खडाऊं खड़खड़ाते हुए अन्धकार में अदृश्य हो गया ।
अगली सुबह दादाजी तैयार होकर उस बंगले की ओर गये जिसकी तरफ उस अनजाने व्यक्ति ने इशारा किया था । बंगले के मेन गेट पर खड़े बंदूकधारी पुलिस के सिपाही को देखते ही दादाजी के पैरों तले की धरती खिसक गयी, उनके हाथ पाँव फूल गये और जुबान लडखडाने लगी, उनके मन में नाना प्रकार की आशंकाएं एक साथ उठ खड़ी हुईं । वह समझ नही पा रहे थे कि आगे उन्हें क्या करना चाहिए । तभी दादाजी को आगंतुक द्वारा कही एक विशेष बात याद आई । सम्हल कर वह प्रबल आत्मविश्वास के साथ उस बंदूक धारी सिपाही की ओर बढ़े और उसे वास्तविक श्रद्धा से प्रणाम करने के बाद उससे धीरे से कहा कि वह कोठी की मालकिन से मिलना चाहते हैं । सिपाही खिलखिला कर हंसा और बोला " केकरा से मिलबा ? कौन मलकिन ? ई कौनों मरवाड़ी सेठ के कोठी ना हा भैया, ई कप्तान साहेब के कोठी हा । इहाँ कौनो मलकिन मालिक ना बा । इहाँ इन्ग्रेज़ साहिब बहादुर अपना मेंमसाहेब के साथे रहेले, चला रस्ता छोडा, साहेब निकले के बाड़ें"।
प्रियजन, आप समझ सकते हैं हमारे दादाजी पर उस समय क्या गुजर रही होगी । सिपाही ने धक्का देकर उन्हें एक किनारे खड़ा कर दिया । घोड़े पर सवार अंग्रेज साहिब अपने लश्कर के साथ दादाजी के सामने से निकल गये । सिपाही ने जूता पटक कर ज़ोरदार सलाम ठोका । दादाजी सडक के किनारे जमे खड़े रहे । अपने साहेब के चले जाने के बाद सिपाहीजी ने फुर्सत की सांस ली । दादाजी को छेड़ते हुए और उनका मजाक उड़ाते हुए कहा "अब मौक़ा है बाबू बतियाय लो गोरी मेंम साहेब से, अब्बे बिल्कुल अकेली बैठीं हैं " दरबान ने तो मजाक मे यह बात कही थी लेकिन दादाजी ने शाम वाले अजनबी आगंतुक के कथन को स्मरण कर के उससे प्रार्थना की कि वह किसी प्रकार भी उनकी भेंट मेंम साहेब से करवा ही दे । दरबान कुछ देर को अन्दर गया और लौटने पर बोला । " जाओ बाबू मेंम साहेब से बतियाय लेउ।"
गाजीपुर में उस अज्ञात अति प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले देवस्वरूपी पुरुष से प्रेरणा और मार्ग दर्शन पाकर केवल भोजपुरी बोलने वाले हमारे दादाजी बड़ी निर्भयता के साथ जिले के सर्वोच्च अंग्रेज अधिकारी की पत्नी के समक्ष अपनी व्यथा सुनाने जा रहे थे । उनकी चाल ढाल में कोई शिथिलता नहीं थी । वह भर पूर आत्म- विश्वास के साथ मन में हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे । कोठी के पिछवाड़े के बरामदे में मेमसाहेब की झलक मिली । वह मिले जुले सफेद और लाल रंग का बिलायती सूट पहने हुए थीं और उनके सर पर उतनी ही चटक रंग की टोपी सोह रही थी । बरामदे के सामने वाले घास के मैदान में अन्य प्रार्थियों के बीच दादाजी को भी बैठाया गया ।
सामने से मेमसाहेब को देखते ही दादाजी को ऐसे लगा जैसे वह किसी बड़े दुर्गा पूजा पंडाल में देवी माँ की भव्य मुर्ति के सन्मुख बैठे हैं । श्रद्धा से उनकी आँखें आप से आप बंद हो गयी और वह मन ही मन माँ दुर्गा को मनाने लगे । जब उनकी बारी आई तब उन्होंने भोजपुरी भाषा में ही मेंमसाहिब को बतलाया कि उनके पडोस के दबंग जमीदार के अन्याय, अनाचार और अत्याचार से गरीब गाँव वाले अत्याधिक उत्पीड़ित हैं । इस उत्पीड़ित समाज से दादाजी की सहानुभूति होने के कारण से उपजे बैमनस्य से बाबू साहेब ने दादाजी को निजी तौर पर सताने के लिए उन्हें एक झूठे फौजदारी मामले में फंसा दिया है और स्थानीय दारोगा को खिला पिला कर उनके नाम से गिरफ्तारी का वारंट जारी करवा दिया है । दादाजी ने आगे अपने वंश और बिहार सूबे के डुमराओं राज के परम्परागत मधुर सम्बन्ध का वास्ता देते हुए मेमसाहिबा को बताया कि लगभग एक सौ वर्षों से उनके वंशज अपने क्षेत्र में, उस राज्य का तहसील वसूल करते आये हैं और कभी कोई शिकायत कहीं से नहीं आयी । बाबू सज्जनसिंह हमारे परिवार की बढ़ती ख्याति के कारण ईर्ष्यावश हमें नीचा दिखाना चाहते हैं जबकि मैंने कोई अपराध नहीं किया है ।
लेडी साहिबा को दादाजी की बात तर्कसंगत लगी, उन्होंने मुंशी जी को आदेश दिया कि मोहम्दाबाद के मुख्तियार खानसाहेब अब्दुल शकूर को दादाजी के साथ बलिया भेज कर थानेदार को चेतावनी दी जाय कि ईमानदारी से तहकीकात कर के जल्द से जल्द उचित कारवायी करें अन्यथा स्वयं न्याय की तेज़ धार झेलने को तैयार रहें । खानसाहेब के साथ उनकी घोड़ा गाड़ी पर सवार हो कर दादाजी गाजीपुर से सीधे बलिया के पुलिस थाने आये और वहाँ वही हुआ जो होना चाहिए था--- "सत्य की विजय"।
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