प्रत्यक्ष हनुमंत-कृपा दर्शाती, उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुई उपरोक्त चमत्कारिक घटना के अतिरिक्त एक अदभुत घटना जो मेरे प्रपितामह लाला रामहितदास जी के जीवन की अति महत्वपूर्ण तीर्थ यात्रा से जुडी हुई है, उसकी स्मृति आज भी मुझे अपने कुलदेवता की अहैतुकी कृपा का अहसास कराती रहती है ।
यह अदभुत घटना अक्षरश: सत्य है, इसकी सत्यता के जीवंत प्रमाण मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखे हैं । बचपन में हरबंस भवन बलिया की कचहरी में मैंने प्रपितामह के चित्र के साथ, एक दूसरे फ्रेम में जुडी हुई उनकी वह अंतिम चिट्ठी साक्षात प्रमाण-पत्र के रूप में देखी ही नहीं अपितु पढ़ी भी है ।
कचहरी में गरमी की छुट्टियाँ हो गयी थी, अग्रेज़ी सरकार के देशी मुलाजिम भी छुट्टियाँ बिताने इधर उधर जा रहे थे, कोई अपने गाँव, तो कोई अपनी रिश्तेदारी की शादी में शामिल होने और कोई सुसराल जाने की योजना बना रहा था । अपनी कोठी हरवंश भवन के मरदानखाने में जहाँ हमारे बाबा-परबाबा तहसील वसूली के लिए दरबार लगाते थे ,वहाँ रोनक इसलिए थी कि बड़े मालिक तहसीलदार साहब अपने चंद मित्रों के साथ तीरथ यात्रा पर निकलने वाले थे ।
मेरे बडे बाबा, श्री महाबीर जी की ध्वजा के नीचे, हनुमानजी के श्री चरणो पर मत्था टेके प्रार्थना कर रहे थे, अपनी यात्रा की सफ़लता और अपनी सकुशल वापसी के लिये। उधर दादीमाँ दूर कोने मे खम्भे के सहारे खड़ी, गद-गद स्वर में, अश्रु पूरित नैनो से प्रार्थना कर रही थी, " हे महाबीर जी, मालिक, हमके इस बार अपना साथे काहे नैखन ले जात ? हमके बहुत डर लागता, भोरे से हमार बयकी अन्खिया फरकत बा । रच्छा करिह इनकर, हे महाबीर जी "। एक ही समय मे, एक ही आँगन से श्री महावीर जी की सेवा मे दो अर्ज़िया भेजी गयी । देखना है किसकी सुनते हैं वह, किसकी अर्ज़ी मंजूर करते है ?
एक तरफ दादीजी ने बाबा के साथ न जा पाने के कारण दुखी मन से आंसू भींगी अर्ज़ी भेजी थी और साथ में बाबाजी की यात्रा की सफलता तथा उनकी सकुशल वापसी के लिये मंगल कामना भी की थी दूसरी ओर अपनी तीर्थ यात्रा की सफ़लता और सकुशल लौट आने की स्वार्थ से प्रेरित मनोकामना के साथ बाबाजी की अर्ज़ी औपचारिक थी । पूजा के बाद, बाबाजी की पारम्परिक विधि से घर के ज़नानखाने से विदाई हुई, दही-गुड़ से मुह मीठा कराया गया । माथे पर रोली चन्दन का टीका लगाये, वह बाहर बैठक में आये ।
और तभी बाहर से खडाऊं की खटरपटर की आवाज़ आयी और एक अजनबी बैठक मे दाखिल हुआ। आज तक उस शहर में किसी ने इस व्यक्ति को पहले कभी नही देखा था । पर वह बहुत अपनापन दिखाते हुए बाबाजी से एकान्त मे कुछ खुसुर पुसुर करने लगा। उसकी पूरी बात सुनकर बाबा जी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाये उभर आयी। वह् आगन्तुक से केवल इतना कह कर कि "महाराज अभी आता हूँ " घर के अन्दर चले गये । थोड़ी देर बाद जब वह लौटे उनके हाथ में एक नए अंगोछे में बंधा कुछ "सीधा" था जो वह उस अजनबी को देने के लिए भीतर से लाये थे । लेकिन जब वह पंहुचे तब तक वह अजनबी आगंतुक वहां से जा चका था ।
बाबाजी उस अजनबी व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने के कारण काफी चिंतित हो गये थे, वह बेचैनी से इधर उधर टहल रहे थे और एक के बाद एक सेवक तथा घर के बच्चों को बाहर रेलवे स्टेशन और घोड़ागाड़ी तथा बैल गाड़ी के अड्डों तक दौड़ा रहे थे, उनको खोजने के लिए, पर वह नहीं मिले । आखिर थक कर उस अनजान व्यक्ति की खोज का अभियान बंद कर दिया गया ।
बाबाजी की सवारी तैयार थी, साथ जाने वाले सभी यात्री भी प्रतीक्षा कर रहे थे। इस बीच बाबाजी का सामान भी बाहर आ गया था । पर उस समय सब चौंक गये जब अचानक बाबाजी वहां से उठ कर कोठी में ही अपने दफ्तर की ओर चल दिए । जाते जाते उन्होंने सब से कहा कि अब वह बद्री-केदार-गंगोत्री नहीं जायेंगे अब उनका इरादा शाम वाली गाड़ी से पूरब की ओर जगन्नाथ पुरी-गंगा सागर जाने का बन गया है । दादीजी, मेनेजर मिसिरजी और उनकी पत्नी भी अब उनके साथ यात्रा पर जायेंगे । सब आश्चर्य चकित थे कि दादी जी को साथ ले जाने को कैसे राजी हो गये वह ? क्यों बाबाजी ने अपना निर्णय बदल दिया ? यह रहस्य कोई समझ न पाया ।
अपने ऑफिस में बाबाजी ने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और लगभग दो घंटे बाद बाहर निकले । आम दिनों की तरह मुस्कुराते हुए वह पुन: बैठक में आ कर अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गये । सुबह से आने जाने वालों के शोर शराबे में और उस अजनबी व्यक्ति के अचानक गायब हो जाने से बाबाजी का चित्त कुछ उचटा उचटा था, थोड़ा एकांत मिला तो वह मन ही मन गुनगुना उठे "होइहि सोई जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावे साखा" ।
गंतव्य बदल गया । पश्चिमोत्तर हिमांचल में गंगोत्री न जा कर बाबा-दादी अब पूर्वांचल में बंगाल की खाड़ी तट पर स्थित, मां गंगा और हिंद महासागर के संगम पर स्थित मौक्ष प्रदायक तीर्थ "गंगासागर" जाने का अपना स्वप्न साकार कर रहे थे । दोनों गंगासागर में एक साथ एक दूसरे का सहारा लिए, डुबकी लगाकर, सात जन्मो तक पति पत्नी बने रहने की अपनी चिर कामना सत्य करवाना चाहते थे । साथ ही वह पुरी स्थित श्रीजगन्नाथजी के मंदिर में श्री कृष्ण, श्री बलराम एवं सुश्री सुभद्रा जी की सर्व मंगलकारिनी त्रिमूर्ति का दर्शन करना चाहते थे । ।
हाँ, एक अन्य संकल्प भी उनके मन में उठा था । श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमाश्रु से पवित्र हुई कलिंग की उस पावन धूलि को अपने मस्तक पर लगा कर वह प्रेम-योग द्वारा अपने कुटुंब के प्रियतम इष्ट श्री महाबीर जी को रिझाना चाहते थे ।
यात्रा की व्यवस्था कुछ परिवर्तित हुई । ऊनी कपड़ों की जगह सूती कपड़ों ने ली । गर्मी में बिगड़ने वाले खाद्य पदार्थों की जगह ठेकुआ, मठरी, सेव, दालमोठ, तेलवाले अचार, सत्तू, लईया, चबेना, चूरन और अमृतांजन के साथ साथ कुछ अन्य दवाइयाँ भी पोटलियों में बाँध ली गयीं । अब अधिक यात्रा रेल और पानी के जहाज़ से करनी थी ।
हनुमान मंदिर के पुरोहित पंडित गणेश मिसिर जी ने पंचांग बांच कर यात्रा की नयी साइत निकाली । तदनुसार महाबीर जी की ध्वजा के नीचे सारा परिवार जमा हुआ, चालीसा का पाठ हुआ, आरती हुई, प्रसाद चढ़ाया गया, सारे परिवार और अडोस पडोस में प्रेम से बांटा गया । सब ने मिल कर जयकार क "जय श्री राम- जय हनुमान"। शुभ मुहूर्त में, मेनेजर मिसिर जी और मिसराइन के साथ बाबा-दादी विदा किये गये । यात्रा प्रारम्भ हुई ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें