बरसा रहा है कृपा जिस धरनि पर हनुमान ।
फिर भला उस खेत का हो क्यों नहीं कल्यान ।।
बलिया में हरवंश भवन के आँगन वाले कुलदेवता हनुमान जी की ध्वजा तले बारह वर्ष तक की हुई भावभरी प्रार्थनाओं के फलस्वरुप हमारी अम्मा को सन १९२४ में जन्मे हमारे "भैया" उनके लिए किसी अनमोल "मणि" से कम न थे । उनका नाम रखा गया “गजाधर प्रसाद “ । कभी कभी पिताश्री उन्हें प्रिंस ऑफ वेल्स (Prince of Wales ) कहकर पुकारते थे । जब बहुत प्यार उमड़ता था तब अम्मा उन्हें बड़े दुलार से कभी "मन्नीलाल" तो कभी ”गणेश“ कह कर पुकारती थीं । लम्बी प्रतीक्षा कराके, बड़ी मनौतियों के फलस्वरूप मिले गजाधर भैया हमारे माता पिता के लिए "कोहिनूर" हीरे के समान अनमोल थे । वे उनकी प्रत्येक इच्छा को जी जान से पूरी करने का प्रयत्न करते थे । उनकी सारी इच्छाएं व्यक्त करने से पहले ही पूरी कर दी जातीं थीं ।
हमारे भैया जो मुझसे पाँच वर्ष ही बड़े थे, एक अति स्वरुपवान व्यक्तित्व के धनी थे, गौरवर्ण सुडौल काठी, घने, काले, घुंघुराले बाल, कागज़ी बादाम सा धवल सन्तुलित नाक-नक्शेदार चेहरा । अड़ोसी पड़ोसी, स्कूल के मित्रगण, निकट और दूर के संबंधी खास कर जान पहचान के युवक-युवतियां हर समय उन्हें घेरे रहते थे । उनके स्कूल के मित्रों में सबसे प्रिय थे, नगर के दो उच्च शिक्ष संस्थानो के मराठी मूल के अध्यापकों के पुत्र, अशोक हुब्लीकर और वसन्त अठावले । मोहल्ले की गली में ईंटों के विकेट बना कर, लकड़ी के तख्ते के बल्ले से क्रिकेट खेलना उन्हें पसंद नहीं था । खाली समय में वह ग्रामाफोन पर नये नये फिल्मों के गाने सुनते थे और उस के साथ साथ गा कर सीख लेते थे ।
गजाधर भैया केवल संगीतज्ञ ही नहीं थे, वह लेखन में भी पारंगत थे । मुझे याद आ रहा है, १९३४-३५ में जब वह ११ -१२ वर्ष के थे, वह घर से ही एक हस्त लिखित मासिक बालोपयोगी पत्रिका निकालते थे । उस पत्रिका में समाचारों के अतिरिक्त ज्ञान विज्ञान धर्म और सिनेमा की जानकारी होती थी । हिन्दी बोलती फिल्मे (talkies) हाल में ही भारत में चालू हुईं थीं, उनके ज्वलंत समाचार भी वह उस पत्रिका में देते थे । कैसे ? पिताश्री कानपुर के रीगल और निशात टाकीज के पार्टनर थे । सिनेमा के मेनेजर भैया को नयी फिल्मों के पोस्टर, पेम्फलेट और चित्र आदि समय समय पर पहुंचाते रहते थे ।
पत्रिका पढने वालों में सर्वप्रथम थे हम उनके तीनों भाई बहेन । इसके अतिरिक्त उनके मित्रगण और अड़ोस पड़ोस के बालवृन्द मांग मांग कर उसे पढ़ते थे । तब मुझे हिन्दी का अक्षर ज्ञान तो था पर मेरे लिए उस पत्रिका के सब विषयों को समझ पाना कठिन था । अस्तु जितना वह जानते थे, वह सब हमें बता देने के लिए और मुझे सामान्य ज्ञान से परिचित कराने के लिए मुझे अपने डेस्क पर साथ में बैठा कर अपनी मैगज़ीन का एक एक पृष्ठ पढ़ कर सुनाते और समझाते थे । वे मुझे पिताश्री के म्योर मिल वाले बंगले के ड्राइव वे पर, सायंकाल सूर्यास्त के बाद अंगुली पकड़ कर टहलाते हुए गृह नक्षत्रों, आकाश गंगा, सप्त ऋषि एवं ध्रुव तारे के दर्शन करवाते थे और उनसे सम्बंधित जानकारी देते थे ।
वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद की कहानी “बड़े भाई“ के समान ही गजाधर भैया का अंकुश और नियंत्रण मुझ पर और माधुरी पर था । उनकी भावनात्मक सुरक्षा, उनके आदेश और उनकी अनुशासन प्रियता ने जहाँ मेरा प्रगति-पथ प्रशस्त किया वहीं मुझे किसी भी प्रकार की कुसंगति में पड़ने से बचा लिया ।
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