मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सद्गुरु संत रैदास की भक्ति



   संत रैदास की 
"भक्ति"

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा 
ऎसी "भगति" करे  "रैदासा"  

(गतांक से आगे)

चौदहवीं -पन्द्रहवीं सदी में काशी महानगरी में विश्वनाथ गली तक जाने वाले किसी एक मार्ग के किनारे एक छोटी सी गुमटी में घासफूस के आसान पर बैठे "संतगुरु रैदास" अपने " प्यारे साहिब " का ध्यान लगाए, खानदानी चर्मकारी ( मोचीगीरी) का व्यवसाय करते थे ! 

मध्यम श्रेणी के खाते पीते "मोची" परिवार के कर्ता - उनके पिता ने उन्हें अपने घर से बेदखल कर दिया था इस कारण कि रैदास खानदानी दूकान से अर्जित धन को  जरूरतमंद फकीरों को दान में दे देते थे !
  
घर से बेदखल हुए रैदास अपने उस छोटे से ठीहे से भी व्यापार से अधिक खैरात बाटने का ही काम करते थे ! गृहस्थी चलाने भर की कमाई हाथ में रखकर वह शेष सब निर्धनों में तकसीम कर देते थे !

                      

लगभग नित्यप्रति ही गंगास्नान एवं काशी विश्वनाथ दर्शनार्थ पधारे ग्राहक अपने धूल-भरे पदत्राण - चमड़े के चट्टीजूते मोजरी आदि रैदास जी को रख रखाव हेतु सौंप कर निश्चिन्त हो दसास्वमेध घाट और विश्वनाथ गली की ओर चले जाते थे ! संत रैदास तीर्थयात्रियों के जूतों को बड़े प्रेम से गाँठते संवारते , उन पर रंग रोगन लगाते, उन्हें खूब चमकाते और स्नान दर्शन कर वापस आये ग्राहकों को उनके जूते स्वयम अपने हाथों से पहिनाकर श्रद्धा से उन्हें प्रणाम करके उन्हें विदा करते थे ! साधारणतः वह ग्राह्कों से अपनी उस सेवा का पारिश्रमिक भी नहीं मांगते थे !

क्यों ?                      

काशीविश्वनाथ के सेवक भक्तजनों के पद्त्राण की धूल मस्तक से लगा कर उन्हें महसूस होता था कि जैसे वह भक्तों की चरणधूलि नहीं बल्कि मातेश्वरी गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगा रहे हैं और शिवालय के गर्भ गृह में स्वयम अपने हाथों से देवाधिदेव विश्वनाथ का अभिषेक कर रहे हैं ! शिव भक्तों के स्वरूप में भगवान शंकर के जीवंत विग्रह का दर्शन कर वह रोमांचित हो जाते थे ! इस अमूल्य निधि की प्राप्ति के बाद ग्राहकों से उन्हें कुछ और मेहनताना पाने की दरकार महसूस ही नहीं होती थी !  

उस स्थिति में सद्गुरु संत रैदासजी की वाणी में साक्षात माता सरस्वती शारदा का वास हो जाता और उस जमाने की आम बोल चाल की भाषा में, पौराणिक ऋषि मुनियों द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक "परम सत्य" का गूढ़ रहस्य संजोये काव्यमयी कृतियाँ उनके कंठ से स्वतः स्फुरित होने लगती थीं ! गाहक के रूप में उनके सन्मुख विराजे साधारण से साधारण प्राणी में उन्हें अपने "साहिब" का दर्शन होता था और वह आनंद से गा उठते थे -
ऐसो कछू अनुभव कहत न जाई ! 
साहिब मिलें  तो  को  बिलगाई !!
सबमें हरि हैं हरि में सब हैं हरि अपनों जिन जाना !
साखी नहीं  और  कोई  दूसर  जाननहार समाना !!


केवल गंगास्नान करने जाने वाले भक्तों में ही रैदासजी अपने प्यारे "साहेब" के दर्शन नहीं करते थे , उन्हें तो प्रत्येक जीवधारी में ही  उनका  "मालिक" नजर आता था चाहे वह मानव हो अथवा पशु हो ,पंछी हो, जलथलचर हो , नभचर हो ! यदि वह मनुज हो तो चाहे वह किसी भी धर्म-मत  का अनुयायी हो ,मुसलमान हो , हिंदू हो, यहूदी हो या ईसाई हो रैदास जी को सभी धर्मावलंबियों के इष्ट के रूप में केवल "एक परमेश्वर" के ही दर्शन होते थे ! प्रियजन ! तभी वह अक्सर कहा करते थे

कृष्ण करीम रामहरिराघव जब लगि "एक" न पेखा !
    बेद कतेब  कुरान  पुरानन  सहज  राम   नहीं देखा !!   

यह पूछने पर कि वह तीज त्योहारों पर भी देवालय मे जाकर विधिवत पूजा पाठ क्यूँ नहीं करते ,वो प्रश्नकर्ता से कहते " मैं क्यूँ जाऊं मंदिर मस्जिद , मुझे तो  आप में ही "राम रहीम" का दीदार हो रहा है "!

प्रियजन, रैदास जी रूढ़ीवादी कर्मकांडीय पूजा पाठ के मुकाबले  मानसिक पूजा को अधिक महत्व देते थे ! वह बड़े से बड़े पर्व त्यौहार के दिन भी अपना निर्धारित काम अधूरा छोड़ कर गंगा स्नान अथवा शिव दर्शन को नहीं जाते थे ! वह कर्तव्य कर्म छोड़ कर ऎसी पूजा करना व्यर्थ समझते थे! कारण पूछने पर वह कहते कि ग्राहक उनके लिये भगवान है ! ग्राहक से किया गया वादा समय से पूरा करना उनके लिए पूजा से कम नहीं है !ग्राहकों के जूते बनाना और उन्हें संतुष्ट करना ही रैदास जी की पूजा थी ! 


संत रैदास के चरित्र में शास्त्रों में निरूपित भक्ति के निम्नांकित  सभी नौ लक्षण जिन्हें "नवधा भक्ति" कहते हैं  विद्यमान हैं  :

 श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

(1) श्रवण : तीन लोकों से न्यारी काशी की गली गली में सिद्ध महापुरुषों का निवास था ! उस नगर में ,चाह कर भी कोई भी संत-हृदय मानव , परमेश्वर की अलौलिक लीला, कथा, महत्व,  स्त्रोत इत्यादि को बिना सुने नहीं रह सकता था ! रैदासजी परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर हरि कथा सुनते रहते थे ! 

(2) कीर्तन : ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। रैदास जी में यह भक्ति लक्षण [कीर्तन] नैसर्गिक रूप से विद्यमान था ! प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा से रैदास जी अति सुंदर शब्द रचना करते थे तथा स्वयम अपने पदों को गाते भी थे !     
(3) स्मरण : निरंतर अनन्यभाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्तिका स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। रैदास जी पल भर को भी प्रभु का विस्मरण नहीं करते थे ! "जिसे नाम रट लग गयी", हो वह कैसे प्रभु को बिसार सकता है ? 

(4) पादसेवा : ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व  समझना। रैदासजी द्वारा ग्राहकों को भगवान मान कर उनके चरण पादुकाओं की धूल माथे लगाने से बढ़ कर और दूसरी चरण सेवा क्या होगी ?

(5) अर्चन : मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। बिना देव मंदिर में गये ,रैदासजी अपने ठीहे पर बैठे बैठे अपनी कठौती के गंगाजल से मन हीमन अपने "इष्ट" का अभिषेक किया करते थे !

(6) वंदन : भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्रभाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
रैदासजी प्राणिमात्र को भगवान का अंश मानते थे !


(7) दास्य : ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। रैदासजी ने कहा "प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा "


(8) सख्य : ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पणकर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
मित्र हितैषी होते हैं , प्यारेप्रभु से अधिक रैदास का कोई और हितैषी नहीं था !प्रभु का दासत्व स्वीकार कर उन्होंने उन्हें अपना परम हितैषी मित्र बना लिया था !


(9) आत्मनिवेदन : अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पणकर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। पिता द्वारा परिवार से निष्कासित किये जाने के बाद रैदासजी "भगवान" के श्रीचरणों में पूर्णतः समर्पित हो गये ! दरिद्र नारायन की सेवा उनके लिए पूजा थी!   
प्रियजन , आपको याद ही होगा कि भक्ति के इन्ही नौ लक्षणों को बताने के बाद ,भगवान राम ने भीलनी शबरी से कहा था कि 


नव्  महू  एकहु  जिनके   होई , नारि पुरुष  सचराचर  कोई 
मम दरसन फल परम अनूपा ,जीव पाँव निज सहज सरूपा

भगवान राम ने इन नौ लक्षणों में से केवल एक लक्षण के स्वामी को भी सर्वोच्च भक्त का पद प्रदान किया है , ऐसे में भक्ति के सभी नौ लक्षणों के स्वामी महान संत रैदास जी की स्थिति कितनी ऊंची है हम साधारण मनुजों की  समझ से परे है !


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नव् वर्ष २०१४ के शुभागमन पर स्वजनों का अभिनन्दन करते हुए हम   यह शुभकामना करते हैं कि 
प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा समग्र मानवता पर सदा सदा बनी रहे !
स्वधर्म का निर्वहन करते हुए हम सब अपने अपने कर्म 
लगन उत्साह और प्रसन्नचित्त से 
संत रैदास के समान सतत करते रहें !
मूल मंत्र 
काम करते रहें , नाम जपते रहें
मन को मंदिर बना उसमे मूरत बिठा 
जाप करते रहें ,ध्यान करते रहें
नाम जपते रहें ,काम करते रहें 
"भोला"    
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    निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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शनिवार, 14 दिसंबर 2013

भक्ति सूत्र

"भक्ति" 
किसकी और कैसे 
की जाये ?
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"निज अनुभूति" 
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१९२९ की जुलाई में ,यू पी के पूर्वी छोर पर स्थित ,अति पिछड़े जनपद --"बलिया" में मेरा जन्म एक पढे लिखे तहसीलदार ,जज, मजिस्ट्रेट और वकीलों के परिवार में हुआ था जिसमे सदियों से प्रचलित था मूर्ति पूजन

ऐसे में  मेरे लिए स्वाभाविक था जन्म से ही परिवार की पारंपरिक मूर्ति -पूजन विधि  का अनुयायी बन जाना ! 

सत्य तो यह है कि बचपन में मैं केवल देसी घी से निर्मित धनिया की पंजीरी , सूजी का हलवा और अति स्वादिष्ट पंचामृत का प्रसाद पाने की लालच में पारिवारिक धार्मिक अनुष्ठानों में अनुशासन  से बैठ कर ध्रुव प्रहलाद सा "भक्त" दीखने का प्रयास करता था !  तत्पश्चात -

हां , ६-७ वर्ष से अधिक का नहीं था तभी मैंने परिवार में "मूर्ति पूजा" के विरोध के स्वर उभरते सुने ! मेरी एक बुआ और दो तीन चचेरी बहनों ने पारम्परिक "मूर्ति पूजा" के विरोध में अपने बलिया के खानदानी घर के परम पवित्र महाबीर ध्वजा वाले आंगन में ही युद्ध का बिगुल बजा दिया ! उन्होंने  उसी आंगन में ,भजन कीर्तन की जगह पने ठेठ भोजपुरी लहजे में ,परिवार के बुजुर्गों को सुनाने के लिए एक नया गीत गाना शुरू कर दिया  - (नहीं जानता कि यह रचना उनमे से किसी एक की थी अथवा वह आर्य- समाज की किसी पुस्तिका से उन्हें मिली थी) ! जो भी हो उस नये गीत का मुखडा कुछ ऐसा था:

"हम आर्या समाज की लड़किन हैं पत्थर को कभी न पूजेंगीं"  

आज लगभग ८० वर्ष बाद मुझे , इस गीत के मुखड़े के आगे का एक भी शब्द याद नहीं आ रहा है ! लेकिन अपने परिवार में मूर्ति पूजन के विद्रोह की इस पहली लहर को मैं भुला नहीं पाया ! आगे क्या हुआ सुनिए ----

कुछ समय बाद १९३८ से ४४ तक कानपुर के डी ए वी हाई स्कूल में नित्य की प्रातःकालीन समवेत प्रार्थना सभा तथा धर्म शिक्षा के प्रत्येक 'पीरियड' में मूर्ति पूजन के खंडन की अति गम्भीर चर्चा सुनने को मिली जिससे मैं एक अजीब दुविधा में पड गया ! एक तरफ  घर में पारंपरिक मूर्ति पूजन और दूसरी ओर विद्यालय में उसका प्रचंड खंडन !

इन दोनों में सत्य क्या है ?  एक भयंकर द्वंद उठता रहा मेरे मन में ! हमारे परिवार में बाप दादों के जमाने से चली आ रही मूर्ति पूजक सनातनी पद्धति अथवा आर्यसमाजियों द्वारा पुनः आविष्कारित समझा जाने वाला,  परम पुरातन भारतीय ऋषिमुनियों द्वारा अनुभूत "परमसत्य" !

 यह "परम सत्य" क्या है ?

मन में यह जानने की उत्सुकता तो थी लेकिन १९४९ तक यूनिवर्सिटी की पढाई में व्यस्त रहने के कारण  इस परम सत्य को खोज निकालने के लिए मेरे पास समय नहीं था !

दैव योग से ,१९४९ - ५० में अवसर और अवकाश मिला कुछ स्वाध्याय करने के लिए ! ( इससे पूर्व मैं इसी श्रंखला के आलेखों मे आत्म कथा में सविस्तार लिख चुका हूँ कि कैसे वाराणसी के संकट मोचन महावीर जी ने फाइनल परीक्षा में फेल करवाकर - मेरी - इस दासानुदास के जीवन को एक चमत्कारिक मोड़ दिया , जिसका अमृततुल्य फल ,मैं आज   ( १२ , दिसम्बर २०१३ ) तक  भोग रहा हूँ ! )

हां तो  १९४९ -५० में मुझे गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका कल्याण का एक वार्षिक विशेषांक पढ़ने का अवसर मिला : उसमे मैंने श्रीमद भागवत का एक सूत्र पढ़ा -


"एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति" 
अर्थात 
एक ही सत्य है 

ब्रह्मज्ञानी जन इस  एक ही परमसत्य का वर्णन  अपनी  अनुभूति के आधार पर भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं ! उन ज्ञानियों की शैली जुदा जुदा है लेकिन उनके भाष्य में वर्णित " परमार्थ  -तत्व" एक ही है ,उसमें कोई भेद नहीं है !
 उस परमसत्य - ईश्वर से की गयी "प्रीति"भक्ती है ! अस्तु प्यारे अपनी प्रीति ईश्वर से जोड़ो ! शास्त्रीय  मार्ग से भक्ति करोगे तो "परम दयालु"  के रूप में ईश्वर तुम्हे मिल जाएगा ! 

इस परम दयालु  सत्ता का सम्पूर्ण श्रद्धा से भजन करने से साधक का हृदय सात्विक हो जाता है , सर्वत्र परमानंद की गंगा बहने लगती है ! 


संत कबीर ने कहा है : 

१.जो सुख पाऊँ राम भजन में ,सों सुख नाहीं अमीरी में !
मन लागो मेरो यार फकीरी में !!

२. कहत कबीरा राम न जा मुख , ता मुख धूल भरी ! 
भजो रे भैया राम गोविन्द हरी !!

३. कहत कबीर सुनो भाई साधो पार उतर गये संत जना रे !!
बीत गये दिन भजन बिना रे 

इस परमानंद 'गंग' के मूल स्रोत को इंगित करते हुए कबीर ने स्पष्ट किया:    
रस गगन गुफा में अजर झरे -
जुगन जुगन की तृषा बुझाती करम भरम अध् व्याधि हरे ,
कहे कबीर सुनो भाई साधो ,अमर होय कबहूँ न मरे !!

आकाश की गुफा में निरंतर रस झरता रहता है ! अमृतरस में सराबोर गंगा रूपी झरना हृदय में बहता है ! उस जल के रस, गंध, रूप, स्पर्श, ध्वनि, में निहित आनंद अतुलनीय है निर्मल है सच पूछिए तो सर्वथा अकथनीय है !


तो क्या यह अतुलनीय दिव्य आनंद केवल सघन बनों तथा दुर्गम पर्वतीय कन्दराओं में तपश्चर्या करने वाले साधकों को ही उपलब्ध है ? 

प्रियजन , ऐसा कुछ भी नहीं है ! हम आप जैसे साधारण मनुष्यों को प्यारे प्रभु ने अपनी अहेतुकी कृपा से भरे पूरे परिवार दिये हैं और अपने अपने परिवार के लालन पालन करने की क्षमता-योग्यता दी है ! वह "प्यारा"  यह जानता है कि इस कलिकाल में हमआप घरबार छोड़ अपने उत्तरदायित्वों 
को बलाए ताख रख कर जंगलों में तपस्या करने नहीं जा सकते हैं ! अस्तु 

प्यारे प्रभु ने हम आप जैसे साधारण व्यक्तियों के समक्ष रोजगारी करके जीवनयापन करने वाले अनेकों सिद्ध महात्माओं के उदाहरण प्रस्तुत किये जिन्होंने घर बार नहीं छोड़ा और ईमानदारी से रोज़ी कमाने के दैनिक कार्य कलाप के साथ साथ अपनी ईशोपासना भजन चालू रखी ! ऐसे संतात्माओं ने भी कबीर के शब्दों में वर्णित उस "गगन गुफा " में अजर झरती आनंद गंगा का सुरस पान किया ! उन्हें भी उस अतुलनीय निर्मल आनंद का आस्वादन हुआ ! 

प्रियजन अपने निज अनुभूतियों के आधार पर मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि  सदगुरु नानक देव , नरसी भगत , संत तुलसीदास आदि के समान ही ,जुलाहे- 'कबीरदास'  , मांस ब्यापारी कसाई- 'सदना' , भीलनी- 'शबरी' तथा चर्मकार (मोची ) 'रैदास जी' को वह निर्मल आनंद बिना अपना पेशा छोड़े , इमानदारी से अपने अपने दैनिक कर्म करते हुए , सहजता से मिल गया होगा !

मीरा बाई ने ऐसे कुछ सिद्ध महात्माओं के नाम याद दिलाए :  


तुम तो पतित अनेक उधारे भव सागर से तारे 
मैं सब का तो नाम न जानूँ कोई कोई नाम उच्चारे  
धना भगत का खेत जमाया ,  
सबरी का जूठा फल खाया 
सदना औ सेना नाई को तुम लीन्हा अपनाई 
कर्मा की खिचडी तुम खाई , गनिका पार लगाई  

चर्मकार संत रैदास ने कहा था कि एक बार जो नाम भक्ति का नशा  चढ़ गया तो फिर वह उतरता नहीं ! आजीवन उस नाम की रटन  लगी रहती है! अन्ततोगत्वा नाम और नामी तो एक हो ही जाते हैं "नामाराधक साधक" भी नाम और नामी में ऐसे रचबस जाता है जैसे त्रिवेणी में गंगा यमुना और सरस्वती ! साधक साध्य से वैसे ही मिलजाता है जैसे चन्दन और पानी , सघन बन और मोर , दीपक और बाती तथा श्रेष्ठ स्वामी और उसका सच्चा निष्कपट सेवक ! 

रैदास जी का एक पद है जिसमे इस भाव का सारांश समाहित है : बहुत दिनों बाद मुझे आज उस भजन की याद आई , सहजता से उसके शब्द भी मिल गये , मैंने गाया, रेकोर्ड किया और कृष्णाजी ने चित्रांकन कर , उसको "यू ट्यूब" पर प्रेषित कर दिया , आप भी सुने :


भजन है   


                                 अब कैसे छूटे नाम रट लागी 



  अब कैसे छूटे नाम रट लागी 
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प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा , ऎसी भगति करे  रैदासा
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संत रैदास संत कबीर आदि महात्माओं की निजी अनुभूतियों के अनुसार कोई भी कर्मठ व्यक्ति यदि अपने सांसारिक "कर्म" ईमानदारी से करता हुआ ,साथ साथ श्रद्धायुक्त भजन (उपासना) भी करता रहे तो निश्चय ही वह परमानंद स्वरूपी प्यारे प्रभु का साक्षातकार पा सकता है !

निवेदक : व्ही एन श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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बुधवार, 27 नवंबर 2013

नारद भक्ति - गतांक से आगे


प्रथम भगति सन्तन कर संगा ! दूसरि रति मम कथा प्रसंगा !!
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ! 
चौथि भगति मम गुनगन करहि कपट तजि गान!!
 मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ! पंचम भजन सुवेद प्रकासा !!
[ तुलसी मानस - नवधा भक्ति प्रसंग से ]
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"श्रीहरि-नारायण" के भजनीक भक्त - संगीतज्ञ  देवऋषि नारद ने अपने तम्बूरे के गम्भीर नारायणी नाद के सहारे '' नारायण नारायण" की मधुर धुन लगाकर समग्र सृष्टि को "नारायण मय" बना दिया और इस प्रकार ,आध्यात्म  के क्षेत्र में मेरे जैसे अनाड़ी साधकों के लिए एक सहज संगीतमयी भक्ति साधना का मार्ग प्रशस्त किया !

सोच कर देखें , हम कलियुगी साधारण साधकों को सारे दिन  (जी हाँ कभी कभी तो रातों में भी ) रोटी कपड़ा और मकान की तलाश में यत्र तत्र सर्वत्र इधर उधर भटकना पड़ता है !  ऐसे में हमारे जीवन का अधिकांश भाग ऎसी आपाधापी में ही कटता  जाता है ! प्रियजन - कहाँ उपलब्ध है हमे वह पर्वतों के कन्दराओं वाला एकांत और वह नीरव शान्ति जहां हम कुछ पल के लिए सबकुछ भुला कर , अपनी  तथाकथित  साधना [तपश्चर्या]  के लिए थोड़े भी इत्मीनान से बैठ सकें ?  

वर्तमान परिस्थिति में  लगभग हम सब को ही ,"ध्यान" के लिए नेत्र मूदते ही , हमारी प्रभु दरसन की प्यासी , दरस दिवानी अखियों के आगे ,स्वयम  निजी एवं अपने बीवी बच्चों के फरमाइशों की फेहरिस्त प्रबल दामिनी के समान अनायास  कौंधती नजर आती है ! प्रियजन , हम कलियुगी नर नारी उतने बडभागी कहाँ हैं कि हमे नीलवर्ण कौस्तुभ  मणि धारी भगवान विष्णु का साक्षात्कार मिले ! 

हमारे लिए तो नारद जी का यह सरलतम नुस्खा " गाते बजाते अपने राम को रिझाने " की साधना कर पाना ही सम्भव है ! 

लीजिए शुरू हो गयी भोला बाबू की गपशप भरी आत्म कथा ! पूज्यनीय बाबू [माननीय शिवदयाल जी , चीफ जस्टिस मध्य प्रदेश ,मेरे उनके बीच के नाज़ुक रिश्ते को मान देते हुए ,अक्सर कहा करते थे कि " एकबार भोला बाबू के हाथ में बाजा आया फिर तो वह उसे छोड़ेंगे ही नहीं , औरउसके आगे किसी और को गाने बजाने का चांस मिलने से रहा ] !

प्रियजन ,आप देख ही रहे हैं कि  , आजकल हमारे विभिन्न  न्यायालय किस प्रकार भारत सरकार को भी कटघरे में खडा कर रहे  है ! ऐसे में मुझ नाचीज़  की क्या मजाल कि अपने चीफ जस्टिस साले साहिब द्वारा लगाए आरोप को झुठला ने की सोचूँ भी ! नतमस्तक हो आज तक उनकी आज्ञा मान रहा हूँ ! बाजा तब पकड़ा तो आज तक छोड़ा नहीं ! और इस प्रकार गुरु सदृश्य अपने परम स्नेही साले साहेब के इशारे  और उनके मार्गदर्शन से मिले श्री राम शरणम के संस्थापक सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की अहेतुकी कृपा से मुझे इस जीवन में मिले अन्य महात्माओं की अनुकम्पा एवं उनके प्रोत्साहन के बल पर मैंने अपनी "साधना" को यह संगीतमय "नारदीय" मोड़ दे दिया ! 

अब तो प्रियजन " मोहिं भजन तजि काज न आना " ! भजन के अतिरिक्त और कुछ न मैं जानता हूँ न जानने का प्रयास करता हूँ !  

प्रियजन , न कवि हूँ , न शायर हूँ , न लेखक हूँ न गायक हूँ , लेकिन पिछले साठ साल से अनवरत लिख रहा हूँ , अपनी रचनाओं के स्वर संजो रहा हूँ स्वयम गा रहा हूँ , बच्चों से गवा रहा हूँ !

इन भावनाओं के वशीभूत होकर ही मैंने (शतप्रतिशत केवल ईश्वरीय प्रेरणा से ही )  सैकड़ों पारंपरिक भजनों की स्वर रचना की !इन भजनों ने श्रोताओं का मर्मस्पर्श किया ! देश विदेश में लोग मेरी स्वर एवं शबद रचनाओं को गाने लगे ! आत्मकथा में अन्यत्र लिख चुका हूँ कि कैसे "साउथ अमेरिका" के एक देश के रेडियो स्टेशन के "सिग्नेचर ट्यून" में नित्य प्रति मुझे अपनी एक शबद व संगीत रचना सुनाई पडी थी ! उसी देश के हिंदू मंदिर में मैंने अपनी बनाई धुन में बालिकाओं को भजन गाते सुना था ! मैं क्या मेरा पूरा परिवार ही भौचक्का रह गया था ! श्री राम शरणम के अनेक साधक और  हमारे राम परिवार के सभी गायक साधक सदस्य अतिशय आनंद सहित मेरे भजनों को गाते हैं !

लगभग ६० वर्ष पूर्व मेरे जीवन की यह यात्रा १९५० से प्रारंभ हुई थी ! आज भी यह यात्रा उसी प्रकार आगे बढ रही है !  कभी मध्य रात्रि में तो कभी प्रातः काल की अमृत बेला में अनायास ही किसी पारंपरिक भजन की धुन आप से आप मेरे कंठ से मुखरित हो उठती है और कभी कभी किसी नयी भक्ति रचना के शब्द सस्वर अवतरित हो जाते हैं !  धीरे धीरे पूरे भजन बन जाते हैं  ! 

मुझे अपने इन समग्र क्रिया कलापों में अपने ऊपर प्यारे प्रभु की अनंत कृपा के दर्शन होते हैं , परमानंद का आभास होता है ! इस प्रकार हजारों वर्ष पूर्व अपने ऋषि मुनियों द्वारा बताए इस संगीत मयी भक्ति डगर पर चलते चलते आनंदघन प्रियतम प्रभु की अमृत वर्षा में सरोबार मेरा मन सदा आनंदित बना रहता है !

आप सोच रहे हैं न कि ये सज्जन क्यूँ इस निर्लज्जता से अपने मुहं मिया मिटठू बने हुए हैं ! 

प्रियजन सच मानिए मैं अपने नहीं "उनके" गुन गा रहा हूँ ! आपको याद होगा ऐसा मैंने इस लेखमाला के प्रथम अध्याय में ही स्पष्ट कर दिया था  


करता हूँ केवल उतना ही जितना "मालिक" करवाता है,
लिखता हूँ केवल वही बात जो "वह"मुझसे लिखवाता है
मेरा है कुछ भी नहीं यहा  ,सब " उसकी " कारस्तानी है 
(भोला) 


चलिए मियां मिटठू की थोड़ी और सुन लीजिए ! किसी चमत्कार की नहीं ये प्यारे प्रभु की अनन्य कृपा की कथा है ! १९७८ में गयाना से लौट कर भारत आने पर मुम्बई स्थित "जी डी बिरला ग्रुप"  के एक उच्च अधिकारी ने तुलसी रामायण के कुछ प्रसंगों के आलेख मुझे दिए और अनुरोध किया कि मैं उनकी धुन बना कर रेकोर्ड करवाऊँ ! 

इस रिकार्ड में स्वनाम धनी -आदरणीय घनश्याम दास जी बिरला, स्वयम बाल्मीकि रामायण पर कुछ अपने विचार रिकार्ड करवाने को राजी हो गये थे ! मानस मे से चुन चुन कर मुझे बाबूजी की पसंद के प्रसंग ही दिए गये थे और उनमे प्रमुख था नवधा भक्ति प्रसंग !

दिल्ली में काम काज से छुट्टी लेकर इस प्रोजेक्ट के लिए मुझे बम्बई आना पड़ा ! रामकृपा हुई फ्रंटियर मेल के २० घंटे के सफर में सभी धुनें बन गयीं ! बम्बई में मेरे भतीजे छवि बाबू ने गाने के लिए कुछ कलाकारों को चुन रखा था ! इन कलाकारों में उन दिनों की उभरती गायिका कविता कृष्ण मूर्ती भी थीं ! वह कभी कभी छवी के साथ स्टेज कार्यक्रमों में और रेडियो सीलोंन के जिंगिल्स गाती थी तब तक उनका फिल्मों में अवतरण नहीं हुआ था !अति भाव भक्ति के साथ उन्होंने मेरी धुनों में मानस के वे सभी प्रसंग गाये ! 

मेरी धुन में कविता बेटी (जी हाँ रिहर्सल्स के दौरान मैं उन्हें बेटी ही कह कर संबोधित करता था ) के द्वारा गाया मानस के नवधा भक्ति प्रसंग को सुन कर अभी भी मुझे रोमांच हो जाता है ! लीजिए आप भी सुनिए -----
प्रथम भगति सन्तन कर संगा ! दूसरि रति मम कथा प्रसंगा !!




प्रियजन , राम राम कहिये , सदा मगन  रहिये !

काफी दिनों से आँखों में कष्ट था !  नेत्र विशेषज्ञ ने Wet -  age related Macular Degeneration  बताया , एक इंजेक्शन लग गया अभी प्रति मास एक एक कर के पांच और लगेंगे ! पहले इंजेक्शन से ही सुधार शुरू हो गया है ! तभी तो आज जम कर कम्प्यूटर पर काम कर सका और यह लेख सम्पन्न हुआ !  

आज यहा अमेरिका में THANKS GIVING DAY है ! मैं भी " नकी " अनंत कृपाओं के लिए , नतमस्तक हो, अपने "प्यारे प्रभु" को कोटिश धन्यवाद दे रहा हूँ !

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(क्रमशः)

निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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 http://youtu.be/SjJHM-cscrU

शनिवार, 9 नवंबर 2013

नारद भक्ति सूत्र (गतांक से आगे)



भक्ति और भक्त के लक्षण
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सांसारिक प्रेम की चर्चा बहुत हुई ! चलिए अब "ईश्वर" से "परमप्रेम" करने वाले भक्तों की अमूल्य उपलब्धि "भक्ति" की चर्चा हो जाए !

अनुभवी महापुरुषों का कथन है कि भक्ति साधना  का आरम्भ ही प्रेम से होता है ! संसार के प्रति प्रेम भाव का व्यवहार ही धीरे धीरे सघन हो कर परम प्रेम में परिवर्तित हो जाता है ! सांसारिक निष्काम प्रेम की परिपक्वता ही भक्ति है ! साधक का ईश्वर के प्रति यह अनन्य प्रेम ही भक्ति है !

मानव हृदय में जन्म से ही उपस्थित प्रभुप्रदत्त "प्रेमप्रीति" की मात्रा जब बढ़ते बढ़ते निज पराकाष्ठा तक पहुँच जाए , जब जीव को सर्वत्र एक मात्र उसका इष्ट ही नजर आने लगे  (चाहे वह इष्ट राम हो रहीम हो अथवा कृष्ण या करीम हो )   जब उसे स्वयम उसके अपने रोम रोम में तथा परमेश्वर की प्रत्येक रचना में , हर जीव धारी में ,प्रकति में ,वृक्षों की डाल डाल में ,पात पात में केवल उसके इष्ट का ही दर्शन होने लगे ,जब उसे पर्वतों की घटियों में ,कलकल नाद करती नदियों के समवेत स्वर में मात्र ईश्वर का नाम जाप ही सुनाई देने लगे ,जब उसे आकाश में ऊंचाई पर उड़ते पंछियों के कलरव में और नीडों में उनके नवजात शिशुओं की आकुल चहचआहट में एकमात्र उसके इष्ट का नाम गूँजता सुनाई दे   तब समझो कि जीवात्मा को उसके इष्ट से "परमप्रेमरूपा -भक्ति" हो गयी है ! 


स्वामी अखंडानंद जी की भी मान्यता है कि " अनन्य भक्ति का प्रतीक है, सर्वदा सर्वत्र ईश दर्शन ! साधक के हृदय में भक्ति का उदय होते ही उसे सर्व रूप में अपने प्रभु का ही दर्शन होता है !"

प्रियजन , उस सौभाग्यशाली जीव  का  जीवन सुफल जानो जो इस दुर्लभ मानव काया में "भक्ति" की यह बहुमूल्य निधि पा गया !

उदाहरणतः

शैशव में यशोदा मा का बालकृष्ण के प्रति जो प्रेम था वह " स्नेह प्रधान "
था ! नन्दगांव में बालसखा ग्वालों का नंदगोपाल कृष्ण के प्रति जो प्रेम था वह " मैत्री प्रधान " था ! 

त्रेता युग में भगवान श्री राम के परमप्रेमी  भक्त महाराज दसरथ , हनुमान ,भरत , लक्ष्मण ,जटायु आदि का श्री राम के प्रति जो परमप्रेम था वह ,    " सेवा एवं समर्पण प्रधान" था !  वे सब ही , एकमात्र अपने इष्ट राम को ही जानते मानते थे ! उनका सर्वस्व उनके इष्ट की इच्छा तक सीमित था !   
इनके अतिरिक्त , आप तो जानते ही हैं कि बृजमंडल की कृष्ण प्रेम दीवानी गोपियों को सदा , सर्वत्र, सर्वरूप में अपने प्रियतम नटवर नागर कृष्ण का ही दर्शन होता था  ! ये गोपियाँ श्री कृष्ण के प्रति पूर्णतः समर्पित थीं !  दिन रात भक्ति के दिव्य आनंद  सरोवर में डुबकी लगाती ये गोपियाँ नख शिख कृष्णमयी हो गयी थीं ! कृष्ण के प्रति गोपियों की यह भक्ति पूर्णतः "परम प्रेम एवं समर्पण प्रधान" थी !

प्रियस्वजन ,  तन्मयता की ऎसी पराकाष्ठा केवल परम प्रेमा भक्ति में ही दृष्टिगत होती है ! उसमे भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं रह जाता !ऐसी स्थिति में ही ,"कृष्ण राधा रूप"  और "राधा कृष्ण रूप" हो जातीं हैं !

भक्त का ईश्वर के प्रति  अटूट विश्वास ,निःस्वार्थ सेवा - भाव तथा प्रेम का सम्बन्ध होना  ही भक्ति योग है ! परम योगी संत श्री विनोबा भावे जी का सूत्रात्मक वक्तव्य है , "भाव पूर्वक ईश्वर  के साथ जुड़ जाने का अर्थ है भक्तियोग ! जैसे हमारे घर का बिजली का बल्ब पावर हाउस की लाइन से जुड कर ही जलता है वैसे ही  भक्ति , भक्त को भगवान से जोड़ने वाला कंडक्टर - बिजली का तार है !

भक्ति जब भक्त के  ह्रदय में आती है तो अकेली नहीं आती वह अपने साथ साधक के आराध्य  को लेकर आती है ! ऐसे भक्त की पहचान बन जाती है उसे  ईश्वर के अचिंत्य,अनंत स्वरूप का ज्ञान होना ,उस ,दिव्य एवं अदृश्य शक्ति के प्रति अतिशय श्रद्धा-विश्वास होना तथा , हर घड़ी उसका सुमिरन ध्यान  होना और उसके प्रति परमप्रेम होना ! 

अनुभवी महापुरुषों के अनुसार , "ऐसी भक्ति के आते ही भक्तजन अच्छी अच्छी बातें सुनने लगते हैं ,उनके नेत्र केवल अच्छी चीजें ही देखते हैं , उनकी नासिका मात्र अच्छे गंध सूँघती है , उनकी रसना केवल अच्छी वाणी ही बोलती है , उनके पाँव उन्हें अच्छी जगह ही लेजाते हैं ,उनके हाथ केवल अच्छे ही  काम करते हैं ! "भक्त" का समग्र जीवन सदगुण सम्पन्न हो जाता है !

स्नेही स्वजनों , मुझे विश्वास है कि आप सब को भी ऎसी अनुभूतियाँ होतीं हैं !  मैं दावे के साथ कह सकता हूँ ! किसी न किसी मात्रा में आप सब को किसी न किसी वस्तु , व्यक्ति एवं परिस्थिति से विशेष प्रेम तो है ही जो होना भी चाहिए ! सच सच बताइए, है न ? 

स्वजनों यदि प्रत्येक वस्तु ,व्यक्ति अथवा परिस्थिति में नहीं तो , कम से कम अपनी उसी प्रेयसी से ऎसी प्रीति करें कि आपको उसमे ही आपके "इष्ट" के दर्शन होने लगें ! प्यारे पाठक , धीरे धीरे आपकी स्थिति वैसी ही हो जाएगी जैसी किसी फिल्म के उस किरदार की हुई होगी जो झूम झूम कर गाता है  :" तुझ में रब दिखता है यारां मैं क्या करूं ?" 

अंतर केवल ये होगा कि मुझ पागल के समान आप "तुझमे रब दिखता है " की जगह  "सबमें रब " गाने लगोगे ,! आपको सभी चेतन अचेतन पदार्थों में "रब" के दर्शन होने लगेंगे ! आप  गाओगे --   


"सब में रब दिखता है , यारां मैं क्या करूं" 

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क्रमशः 
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निवेदक :  व्ही . एन .श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

भक्ति सूत्र (गतांक के आगे)

 प्रेमस्वरूपा भक्ति 
(गतांक के आगे)

नारद भक्ति सूत्र के  प्रसंग पर विस्तृत चर्चा छेडने से पहिले,
मेरे प्यारे स्वजनों,आप सबको,
दीपावली की हार्दिक शुभकामना 
संजोये यह भक्तिरचना सूना दूँ !
 नमामि अम्बे दी्न वत्सले 
रचना श्रद्द्धेया "मा योग शक्ति " की है 
धुन बनाई है छोटी बहन श्रीमती माधुरी चंद्रा ने 


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चलिेये  अब् प्रसंग विशेष पर चर्चा हो जाये 
प्रेम 
प्रेम मानवीय जीवन का आधार है ! प्रेम मानव ह्रदय की गुप्त निधि है ! जीव को यह निधि  उस ईश्वर ने ही दी है जिसने उसे यह मानव शरीर दिया है ! प्रेम का संबंध ह्रदय से है और ईश्वर ने मानव ह्रदय में ही प्रेम का स्रोत  स्थापित कर दिया है !

हृदय मानव शरीर का वह अवयव है जो उसके शरीर में उसके जन्म से लेकर देहावसान तक पल भर को भी  बिना रुके धड़क धडक कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता  रहता है ! 

मानव शरीर का दाता- 'ईश्वर' स्वयम प्रेम का अक्षय आगार हैं ! प्यारा प्रभु अपनी संतान - मानव के हृदय में भी इतना प्रेम भर देता है जो मानव के हृदय में आजीवन बना रहता है ! मानव का यह प्रेम बाँटने से घटता नहीं और बढ़ता ही जाता है !प्रेम के स्वरुप में ईश्वर स्वयम ही प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है ! 

श्रीमद भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि: 
ईश्वर :्सर्व  भूतानाम ृहृद्देशे  अर्जुन तिष्ठति !

"भक्ति" विषयक चर्चा में भगवान कपिल ने भी ,
अपनी 'माता" से कुछ ऐसा ही कहा था :   
"सब जीवधारियों के ह्रदयकमल ईश्वर के मंदिर है" 
(श्रीमद भागवत पुराण - स्क.३/ अध्या.३२ /श्लोक ११)

 श्री राम के परमभक्त गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा कि 
ईस्वर अंस जीव अविनासी ! चेतन अमल सहज सुखरासी !! 

जीव परमात्मा का अंश है अत स्वभावत : वह अपने अंशी सर्व व्यापक ईश्वर से मिलने के लिए आतुर रहता है !  जैसे नाले नदी की ओर और नदियाँ सागर की ओर स्वभावतः ही बहती जातीं हैंवैसे हीजीव भी अपने अंशी से मिलने के लिए सतत व्याकुल रहता है ! यही उसकी सर्वोपरि चाह है ! ईश्वर अंश मानव शिशु के समान जीव अपनी अंशी 'जननी मा ' के आंचल की शीतल छाया में प्रवेश पाने को  आजीवन मचलता रहता है ! 


कृष्णप्रेमी भक्त  संत रसखान ने इस संदर्भ में यह कहा कि " सच्चा प्रेम स्वयमेव 'हरिरूप' है और हरि 'प्रेमरूप' हैं" ! उनका मानना था कि " हरि और प्रेम" में किसी प्रकार का कोई तत्विक भेद नहीं है ! उन्होंने कहा था  


प्रेम हरी कौ रूप है , त्यों  हरि  प्रेम सरूप 
एक होय द्वै यों लसै ,ज्यों सूरज औ धूप
तथा   
कारज-कारन रूप यह 'प्रेम' अहै रसखान 


[ प्रियजन अपने पिछले ब्लॉग में प्रेमीभक्तों की नामावली पर जो तुकबंदी मैंने की थी उसमें रसखान का नाम मुझसे कैसे छूटा ,कह नहीं सकता ! सच तो ये है कि १४ वर्ष की अवस्था में  ही उनकी ," या लकुटी अरु कामरिया" और "छछिया भर छाछ पे नाच नचावें" वाले सवैयों ने मुझे, क्या कहूँ , क्या (पागल या दीवाना) बना दिया था ! मैं हर घड़ी उनकी ये प्रेम रस पगी सवैयाँ गुनगुनाता रहता था ! मेरी उस आशु तुकबंदी में अब रसखान भी शामिल हो गये हैं , देखिये -------

प्रेमदीवानी मीरा ,सहजो  मंजूकेशी
 यारी नानक सूर भगतनरसी औ  तुलसी , 
महाप्रभू,  रसखान प्रेम रंग माहि रंगे थे
परम प्रेम से भरे भक्ति रस पाग पगे थे
अंतहीन फेहरिस्त यार है उन संतों की 
प्रेमभक्ति से जिन्हें मिली शरणी चरणों की 
(भोला, अक्टूबर २१.२०१३) 

आदर्श गृहस्थ संत माननीय शिवदयाल जी ने फरमाया है 

वही रस है जहां प्रेम है ,प्रीति  है !  प्रेम जीवन का अद्भुत सुख है ! प्रेम हमारे ह्रदय की अंतरतम साधना है ! प्रेमी को तभी आनंद मिलता है जब उसका प्रेमास्पद से मिलन होता है ! अपने नानाश्री  अपने समय के मशहूर शायर मुंशी हुब्ब  लाल साहेब "राद" का एक शेर गुनगुनाकर वह फरमाते हैं : 

दिले माशूक में जो घर न हुआ तो ,मोहब्बत का कुछ असर न हुआ 

प्रेम लौकिक भी है और अलौकिक भी है ! जगत व्यवहार का प्रेम लौकिक है और प्यारे प्रभु से प्रेम पारमार्थिक है  ! 

पारमार्थिक परमप्रेम अनुभव गम्य है ,! यह उस मधुर मिठास का अहसास है जिसके अनुभव से प्रेमी अपना  अस्तित्व तक खो देता है ,उसकी गति मति निराली हो जाती है ! अनुभवी प्रेमी भक्त स्वयम कुछ बता नहीं सकता ! उसका व्यक्तित्व अन्य साधारण जनों से भिन्न हो जाता है ! उसका  रहन सहन , उसकी चालढाल , उसकी बातचीत स्वयम में उसकी भक्ति को प्रकट करते हैं इसी भावना से नारदजी ने यह सूत्र दिया कि भक्ति को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, वह अपने आप में स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रमाण है  स्वयम प्रमाणत्वात  (ना.भ.सूत्र ५९)

परम प्रेम' अनिर्वचनीय है ! प्यारे स्वजनों , इस प्रेम का स्वरूप  शब्दों में बखाना नहीं जा सकता ! इस अनिर्वचनीय "परम प्रेम" से प्राप्त "आनंद" का भी वर्णन नहीं किया जा सकता ,वह भी अनिर्वचनीय है ! इस परमानंद को अनुभव करने वाले  की दशा वैसी होती है जैसी उस गूंगे की जो गुड खाकर परम प्रसन्न और अति आनंदित तो है लेकिन वह गुड के मधुर स्वाद का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं कर सकता ,वह गूंगा जो है ! 

अनिर्वचनीयम्  प्रेम स्वरूपम्" - ( नारद भक्ति सूत्र - ५१ )
मूकास्वादनवत् - ( ना. भ. सूत्र  ५२ )

प्रीति की यह प्रतीति ही भक्ति है 

क्रमशः
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निवेदक :  व्ही , एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग :  श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

परम प्रेम - गतांक से आगे

"परमप्रेमरूपा भक्ति"
(गतांक से आगे)  

पौराणिक काल से आज तक मानव परमशांति ,परमानन्द तथा उस दिव्य ज्योति की तलाश में भटकता रहा है , जिसके प्रकाश में वह अपने अभीष्ट और प्रेमास्पद "इष्ट" -(परमेश्वर परमपिता) का प्रत्यक्ष दर्शन पा सके , उसका साक्षात्कार कर सके ! मानव के इस प्रयास को भक्तों द्वारा "भक्ति " की संज्ञा दी गयी !

भारतीय  त्रिकालदर्शी ,दिव्यदृष्टा ,सिद्ध परम भागवत ऋषियों  एवं वैज्ञानिक महात्माओं ने निज अनुभूतियों के आधार पर मानव जाति को " भगवत्- भक्ति"  करने के  विभिन्न साधनों से अवगत कराया ! 

नारद जी ने उद्घोषित किया कि 'प्यारे प्रभु'  से हमारा मधुरमिलन केवल परमप्रेम से ही सिद्ध होगा !  नारदजी वह पहले ऋषि थे जिन्होंने "परमप्रेम स्वरूपी भक्ति"  के ८४ सूत्रों को एकत्रित किया और उन्हें बहुजन हिताय वेदव्यास जी से प्रकाशित भी करवाया !

समय समय पर अन्य ऋषीगण जैसे पाराशर [वेद व्यास जी] ने  पूजा -अर्चन को ,गर्गऋषि ने कथा-श्रवण को और शांडिल्य  ने आत्मरति के अवरोध {ध्यान } को  परम प्रेम की साधना का साधन निरूपित किया !

इन अनुभवी ऋषियों ने अपनेअपने युगों के साधकों को आत्मोन्नति के प्रयोजन से भगवत्प्राप्ति के लिए  समयानुकूल  भिन्न भिन्न उपाय बताये !,उदाहरण के लिए उन्होंने  सतयुग में घोर तपश्चर्या , त्रेतायुग में योग साधना एवं यज्ञ ; द्वापर में पूजा अर्चन हवनादि विविध प्रकार के अनुष्ठान बताये  और   कलियुग के साधकों के लिए प्रेम का आश्रय लेकर "परमप्रेम स्वरूपा भक्ति" के प्राप्ति की सीधी साधी विधि बतलायी - "कथाश्रवण,भजन कीर्तन गायन"! 

कलिकाल के महान रामोपासक,  भक्त संत तुलसीदास की निम्नांकित चौपाई नारद भक्ति सूत्र की भांति ही अध्यात्म तत्व के मर्म को संजोये है! 

रामहि केवल प्रेम पियारा ! जान लेहू जो  जाननि हारा  !

 तुलसी के अनुसार उनके इष्टदेव श्रीराम को वही  भक्त  सर्वाधिक प्रिय है जो सबसे प्रेम पूरित व्यवहार करता है ! 

प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंदजी के अनुसार प्रीति का चिन्मय स्वरूप ,दिव्य तथा अनंत है ! जो चिन्मय है ,वह ही  विभु है ! उनका सारग्राही सूत्र है : -
"सबके प्रेम  पात्र हो जाओ, यही भक्ति है" 
"प्रेम के प्रादुर्भाव में ही मानव-जीवन की पूर्णता निहित है! "

सर्वमान्य सत्य यह है कि जहाँ "परम प्रेम रूपा भक्ति"  है ,वहीं रस है वहीं आत्मानंद और परम शांति है ! सच पूछिए तो हमारा आपका ,सबका ही "इष्ट" वहीं बसता है जहाँ उसे "परम प्रेम" उपलब्ध होता है !

प्रेमी भक्तों की सूची में सर्वोच्च  हैं :

(१) स्वयम "देवर्षि नारद" ! 

(२) त्रेता युग में अयोध्यापति महाराजा दशरथ जिन्होंने परमप्रिय पुत्र राम के वियोग में, तिनके के समान अपना मानव शरीर त्याग दिया था !

(३) बृजमंडल की कृष्ण प्रिया गोपियों का तो कोई मुकाबला ही नहीं है ! ये 
वो बालाएं हैं जिन्हें विश्व में "कृष्ण" के अतिरिक्त कोई अन्य पुरुष दिखता ही नहीं , जो डाल डाल, पात पात, यत्र तत्र सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण के दर्शन करतीं हैं ! दही बेचने निकलती हैं तो  दही की जगह अपने "सांवले सलोने गोपाल कृष्ण को ही बेचने लगतीं हैं !, 

चलिए अनादि काल और बीते हुए कल से नीचे आकर अपने  कलिकाल के प्रेमी भक्त नर नारियों की चर्चा कर लें ! 

 [ प्रियजन , उनकी कृपा से ,इस विषय विशेष पर कुछ तुकबंदी हो रही है ,नहीं बताउंगा तो स्वभाववश बेचैन रहूँगा सों  प्लीज़ पढ़ ही लीजिए ] 


प्रेमदीवानी मीरा ,सहजो  मंजूकेशी ,
यारी नानक सूर भगतनरसी औ  तुलसी , 
महाप्रभू चैतन्य प्रेम रंग माहि रंगे थे
परम प्रेम से भरे भक्ति रस पाग पगे थे
अंतहीन फेहरिस्त यार है उन संतों की 
प्रेमभक्ति से जिन्हें मिली शरणी चरणों की 
(भोला, अक्टूबर २१.२०१३) 

हां तो लीजिए उदाहरण कुछ ऐसे प्रेमीभक्तों के जिनके अन्तरंग बहिरंग सर्वस्व ही "परमप्रेम" के रंग में रंगे थे और जिनके अंतरमन की प्रेमभक्ति युक्त भावनाएं "गीत" बन कर उनकी वाणी में अनायास ही मुखरित हो उनके आदर्श प्रेमाभक्ति के साक्षी बन गये : --

प्रेम दीवानी मीरा ने  गाया 
एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोय" !
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गुरु नानक देव ने गाया -
प्रभु मेरे प्रीतम प्रान पियारे 
प्रेम भगति निज नाम दीजिए , दयाल अनुग्रह धारे
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 संत कबीर दास ने गाया :
मन लागो मेरो यार फकीरी में
जो सुख पाऊँ राम भजन में सों सुख नाहि अमीरी में
 मन लागो मेरो यार फकीरी में
प्रेम नगर में रहनि हमारी भलि बन आइ सबूरी में
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यारी साहेब ने गाया: 
दिन दिन प्रीति अधिक मोहि हरि की  
काम क्रोध जंजाल भसम भयो बिरह अगन लग धधकी
धधकि धधकि सुलगत अति निर्मल झिलमिल झिलमिल झलकी 
झरिझरि परत अंगार अधर 'यारी' चढ़ अकाश आगे सरकी
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हमारे जमाने के एक भक्त कवि श्री जियालाल बसंत ने गीत बनाया,
और ६० के दशक में हमारे बड़े भैया ने गाया   
रे मन प्रभु से प्रीति करो
प्रभु की प्रेम भक्ति श्रद्धा से अपना आप भरो
रे मन प्रभु से प्रीति करो
ऎसी प्रीति करो तुम प्रभु से प्रभु तुम माहि समाये 
बने आरती पूजा जीवन रसना हरि गुण गाये 
रे मन प्रभु से प्रीति करो
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महात्माओं की स्वानुभूति है कि हृदय मंदिर में प्रेमस्वरूप  परमात्मा के बस जाने के बाद जगत -व्यवहार की सुध -बुध विलुप्त हो जाती है और केवल प्रेमास्पद "इष्ट"का नाम ही याद रह जाता है ! 
अहर्निश, मात्र "वह प्यारा" ही आँखों में समाया रहता है !
वृत्तियाँ "परम प्रेम" से जुड़ जाती हैं .
और परमानंद से सराबोर हो संसार को भूल जातीं हैं !
जब सतत प्रेमास्पद का नाम सिमरन, स्वरूप चिंतन और यशगान होता है    तभी साधक को परमानंद स्वरूप 
 प्रियतम प्रभु का दर्शन होता है ! 
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आदर्श गृहस्थसंत हमारे बाबू ,दिवंगत  माननीय शिवदयाल जी 
के नानाजी ,अपने जमाने के प्रसिद्द शायर ,प्रेमी भक्त 
स्वर्गीय मुंशी हुब्बलाल साहेब "राद" की इस सूफियानी रचना में 
"मोहब्बत" - परम प्रेम का वही रूप झलकता है जैसा 
  गोपियों ने सुध बुध खोकर अपने प्रेमास्पद श्री कृष्ण से किया !
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राद साहेब फरमाते हैं 
मेरे प्यारे 

सबको मैं भूल गया तुझसे मोहब्बत करके ,
एक तू और तेरा नाम मुझे याद रहा


  /

तेरे पास आने को जी चाहता है
गमे दिल मिटाने को जी चाहता है

इसी साजे तारे नफस पर  इलाही

तिरा गीत गाके को जी चाहता है 

तिरा नक्शे पा जिस जगह देखता हूँ 

वहीं सिर झुकाने को जी चाहता है 
[कलामे "राद"]
गायक - "भोला" 
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ई मेल से ब्लॉग पाने वालों के लिए यू ट्यूब का 
लिंक -   http://youtu.be/Fl0kvV19G0c
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कहाँ और कैसे मिल सकता है वह परम प्रेम 
और ऎसी प्रेमाभक्ति ?
अगले अंक में इसकी चर्चा करेंगे,
आज इतना ही! 
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निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

नारद भक्ति सूत्र [गतांक के आगे ]


अथातो   भक्तिं व्याख्यास्याम: 
सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा ,
अमृतस्वरूपा
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"भक्ति" रमप्रेम रूपा है , अमृतस्वरूपा है 
  "मन में, ईश्वर के लिए परमप्रेम का होना ही "भक्ति" है"  
(देवर्षि नारद)
+++++++++

भक्ति के आचार्य देवर्षि  नारद ने अपने  "भक्ति सूत्र" के उपरोक्त ३ सूत्रों में भक्ति का सम्पूर्ण सार निचोड़ दिया है ! शेष ८१ सूत्रों में उन्होंने  'रम प्रेम रूपा भक्ति' की विस्तृत व्याख्या की है तथा वास्तविक भक्ति के लक्षण समझा कर उन्हें साधने की प्रक्रिया बतलायी है इसके साथ ही , उन्होंने साधकों को प्रेमाभक्ति की सिद्धि से मिलने वाले दिव्य परमात्म 
स्वरूप "परमानंद" की अनुभूतियों से अवगत किया है और अन्ततोगत्वा यह तक कह दिया है कि भक्ति को किसी सीमा में बांधना कठिन है तथा , उसके लिए अलग से प्रमाण खोजना व्यर्थ है , भक्ति स्वयम ही भक्ति का प्रमाण है !

भक्ति प्रदायक यह प्रेम है क्या ?

कहते हैं कि संसार का आधार ही प्रेम है !  हम  सब  स्वभाववश नित्य ही  "प्रेम"  करते हैं ! उदाहरणतः माता पिता का उनके बच्चों के प्रति और बच्चों का अपने माता पिता के प्रति प्रेम ! मिया बीवी का प्रेम ! सास बहू का प्रेम ! नंद भौजाई का प्रेम ! आज के नवयुवक -युवतियों का "वेलेंटाइनी तींन शब्दों वाला "आइ लव यू" तक सीमित  प्रेम इत्यादि  ! 

इनके अतिरिक्त हम जीवधारी तो निर्जीव पदार्थों से भी प्रेम करते हैं ! छोटे छोटे बच्चे अपने खिलौनों से और हम आप जैसे वयस्क अपनी चमचमाती प्यारी "फरारी कार" और "थ्री बेड रूम कम डी डी विध टू फुल एंड वन हाफ बाथ" के अपार्टमेंट के प्रेम में मग्न रहते हैं ! हमारी देवियाँ अपने रंग रूप एवं वस्त्राभूषण से और अपने पति परमेश्वर के वैभव से प्रेम करती हैं !शायद ही कोई प्राणी इस प्रेम से अछूता हो !

कैसे भूल गये हम उन ऊंची कुर्सी वाले वर्तमान राजनेताओं को ,जो निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपनी कुर्सी से सदा के लिए चिपके रहने का प्रयास करते रहते हैं! इतना प्रेम है उन्हें अपनी जड़ कुर्सियों से ! 

कहाँ तक गिनाएं ?  किसी ने ठीक ही कहा है कि इस  जगत में प्रेम हि प्रेम भरा है ! आज की दुनिया में नित्य ही ,हर गली कूचे में  हम और आप इस स्वार्थ से ्ओतप्रोत प्रेम  के नाटकों का मंचन देख रहे हैं पर प्रश्न यह हैकि यह सर्वव्याप्त प्रेम ही क्या वास्तविक प्रेम है ? यह समझने की बात है ! सच पूछिए तो केवल आज का जगत ही इस कृ्त्रिम प्रेम से नहीं भरा है , हमारा पौराणिक साहित्य भी ऎसी अनेकानेक प्रेम कथाओं से परिपूरित है!

सर्वाधिक चर्चित पौराणिक प्रेम कथा हैं इन्द्र लोक की अप्सरा मेनका के प्रति राजर्षि विश्वामित्र का प्रेम प्रसंग ! इसके अतिरिक्त -

आप कदाचित यह कथा भी जानते ही होंगे कि अपने किसी अवतार में , देवर्षि  नारद जी भी माया रचित "विश्वमोहिनी" के रूप सौंदर्य एवं ऐश्वर्य से इतने आकर्षित हुए कि एक साधारण मानव के समान उसपर मोहित होकर वह उससे प्रेम कर बैठे ! करुणाकर विष्णुजी को अपने परम प्रिय भक्त नारद का यह अधोपतन कैसे सुहाता ?  अपने भक्त नारद को उस मोह से मुक्ति दिलाने के लिए विष्णु भगवान को  उनके साथ एक अति अशोभनीय छल करना पड़ा था ! विष्णु भगवान ने नारद को मरकट- काले मुख वाले परम कामी बंदर  का स्वरूप प्रदान कर उनकी जग हसाई करवा दी ! नारद जी अति लज्जित हुए !  कभी कभी भगवान को भी अपने भक्तों को सीख देने और उन्हें पाप मुक्त करने के लिए ऐसे बेतुके काम करने पड़ते हैं !

तदनंतर इन भुक्त भोगी ब्रह्म ज्ञानी नारद जी ने अपने ब्रह्मज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर समग्र मानवता  को परमप्रेमरूपा एवं अमृतस्वरूपा भक्ति की सिद्ध  हेतु  उनका मार्ग दर्शन करने के प्रयोजन से ये भक्ति विषयक ८४ सूत्र  निरूपित किये ! , 

[ प्रियजन , "परमप्रेम"  स्वार्थ प्रेरित सांसारिक प्रेम से सर्वथा भिन्न है ! अगले अंकों में देखिये कि इन  भुक्त भोगी नारद जी ने अपने भक्ति सूत्रों में , इस " परमप्रेम" को कैसे परिभाषित किया है ]

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चलिए अब हम पौराणिक काल से नीचे उतर कर आज के वर्तमान काल में प्रवेश करें !  आप जानते ही हैं कि यह आलेख श्रंखला आपके प्रिय इस भोले स्वजन  की आत्म कथा का एक अंश हैं और इस आत्मकथा में उसने उसके  निजी अनुभवों के आधार पर अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों के संस्मरण संकलित किये हैं  , तो आगे सुनिए - 

लगभग ३० वर्ष की अवस्था तक मैं सनातनधर्म एवं आर्यसमाज  की पेचीदियों में भ्रमित था ! तभी  प्यारे प्रभु की अहेतुकी  कृपा से,  १९५९ में मुझे सद्गुरु मिले ! मुझे अनुभव हुआ कि जीव के भाग्योदय का प्रतीक है सद्गुरु मिलन और ऐसा भाग्योदय बिना हरि कृपा के हो नहीं सकता ! ऐसे में हमरे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी का यह कथन कि,


भ्रम भूल में भटकते उदय हुए जब भाग , 
मिला अचानक गुरु मुझे लगी लगन की जाग 

तथा परम राम भक्त गोस्वामी तुलसीदासजी का यह कथन कि  

बिनु हरि कृपा मिलहिं नहि संता  

दोनों ही सर्वार्थ सार्थक सिद्ध हुए !

आत्म कथा है ,निजी अनुभव सुना रहा हूँ ! 

मुझे 'नाम दान' दे कर दीक्षित करते समय गुरुदेव ने मुझे आजीवन 'श्रद्धायुक्त प्रेम ' के साथ अपने इष्टदेव  के परम पुनीत नाम का जाप , सुमिरन ,ध्यान, एवं भजन कीर्तन द्वारा उनकी भक्ति करते रहने का परामर्श दिया ! उन्होंने प्रेम पर जोर देते हुए कहा था कि ग्रामाफोन के रेकोर्ड पर रुकी सुई के समान मशीनी ढंग से नाम जाप न करना ! भक्ति करने का ढंग बताते हुए उन्होंने कहा कि :


भक्ति करो भगवान की तन्मय हो मन लाय
श्रद्धा प्रेम उमंग से भक्ति भाव में आय 

प्रेम भाव से नाम जप तप संयम को धार 
आराधन शुभ कर्म से बढे भक्ति में प्यार

श्रद्धा प्रेम से सेविये भाव चाव में आय 
राम राधिये लगन से यही भक्ति कहलाय

सच्चा धर्म है प्रीति पथ समझो शेष विलास 
मत मतान्तर जंगल में अणु है सत्य विकास
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तब उम्र में छोटा था , विषय की गम्भीरता समझ में नहीं आई थी ! इस संदर्भ में याद आया कि बचपन में अपनी माँ की गोद में मीरा बाई का एक भजन सुना था जो तब से आज तक अति हृदयग्राही लगा है तब उस भजन का भी भाव मेरी समझ के परे था लेकिन आज मैं उसे भली भाँती समझ पाया हूँ ! अब् यह जान गया हूँ कि जब साधक के मन में मीरा बाई जैसी लगन  होगी तथा उनके समान ही प्रभु दरसन की उत्कट लालसा होगी तब ही उसे वास्तविक प्रेमा भक्ति की रसानुभूति होगी और तब ही परमानंद के सघन घन उमड घुमड कर उसके मन मंदिर में बरसेंगे !

प्यारी अम्मा की गोदी में सुना हुआ भजन था 

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई!!

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई, 
तात मात भ्रात बंधू ,आपनो न कोई!! 

छाड दयी कुल कि कांन कहा करिये कोई, 
संतन ढिंग बैठ बैठ लोक लाज खोई !!
[शेष नीचे लिखा है] 
लीजिए आप भी सुन लीजिए
(मेरे थकेमांदे बूढे अवरुद्ध कंठ की कर्कशता पर ध्यान न दें 
केवल उस प्रेमदीवानी मीरा के प्रेमाश्रुओं से भींगे शब्दों को सुनिए) 




प्रियजन इस भजन की निम्नांकित पंक्तियाँ , हमारे आज के 
इस प्रेम भक्ति योग के विषय में पूर्णतः सार्थक हैं   

 असुवन जल सींच सींच प्रेम बेल बोई  
अब् तो बेल फैल गयी आनंद फल होई!! 

भगत देख राजी भई जगत देखि  रोई
दासी मीरा लाल गिरिधर तारों अब् मोही !! 
(प्रेम दीवानी मीरा )
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यथासंभव क्रमशः अगले अंकों में 
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 निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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