संत रैदास की
"भक्ति"
"भक्ति"
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा
ऎसी "भगति" करे "रैदासा"
(गतांक से आगे)
चौदहवीं -पन्द्रहवीं सदी में काशी महानगरी में विश्वनाथ गली तक जाने वाले किसी एक मार्ग के किनारे एक छोटी सी गुमटी में घासफूस के आसान पर बैठे "संतगुरु रैदास" अपने " प्यारे साहिब " का ध्यान लगाए, खानदानी चर्मकारी ( मोचीगीरी) का व्यवसाय करते थे !
मध्यम श्रेणी के खाते पीते "मोची" परिवार के कर्ता - उनके पिता ने उन्हें अपने घर से बेदखल कर दिया था इस कारण कि रैदास खानदानी दूकान से अर्जित धन को जरूरतमंद फकीरों को दान में दे देते थे !
घर से बेदखल हुए रैदास अपने उस छोटे से ठीहे से भी व्यापार से अधिक खैरात बाटने का ही काम करते थे ! गृहस्थी चलाने भर की कमाई हाथ में रखकर वह शेष सब निर्धनों में तकसीम कर देते थे !
लगभग नित्यप्रति ही गंगास्नान एवं काशी विश्वनाथ दर्शनार्थ पधारे ग्राहक अपने धूल-भरे पदत्राण - चमड़े के चट्टीजूते मोजरी आदि रैदास जी को रख रखाव हेतु सौंप कर निश्चिन्त हो दसास्वमेध घाट और विश्वनाथ गली की ओर चले जाते थे ! संत रैदास तीर्थयात्रियों के जूतों को बड़े प्रेम से गाँठते संवारते , उन पर रंग रोगन लगाते, उन्हें खूब चमकाते और स्नान दर्शन कर वापस आये ग्राहकों को उनके जूते स्वयम अपने हाथों से पहिनाकर श्रद्धा से उन्हें प्रणाम करके उन्हें विदा करते थे ! साधारणतः वह ग्राह्कों से अपनी उस सेवा का पारिश्रमिक भी नहीं मांगते थे !
क्यों ?
काशीविश्वनाथ के सेवक भक्तजनों के पद्त्राण की धूल मस्तक से लगा कर उन्हें महसूस होता था कि जैसे वह भक्तों की चरणधूलि नहीं बल्कि मातेश्वरी गंगा के पवित्र जल में डुबकी लगा रहे हैं और शिवालय के गर्भ गृह में स्वयम अपने हाथों से देवाधिदेव विश्वनाथ का अभिषेक कर रहे हैं ! शिव भक्तों के स्वरूप में भगवान शंकर के जीवंत विग्रह का दर्शन कर वह रोमांचित हो जाते थे ! इस अमूल्य निधि की प्राप्ति के बाद ग्राहकों से उन्हें कुछ और मेहनताना पाने की दरकार महसूस ही नहीं होती थी !
उस स्थिति में सद्गुरु संत रैदासजी की वाणी में साक्षात माता सरस्वती शारदा का वास हो जाता और उस जमाने की आम बोल चाल की भाषा में, पौराणिक ऋषि मुनियों द्वारा अनुभूत आध्यात्मिक "परम सत्य" का गूढ़ रहस्य संजोये काव्यमयी कृतियाँ उनके कंठ से स्वतः स्फुरित होने लगती थीं ! गाहक के रूप में उनके सन्मुख विराजे साधारण से साधारण प्राणी में उन्हें अपने "साहिब" का दर्शन होता था और वह आनंद से गा उठते थे -
ऐसो कछू अनुभव कहत न जाई !
साहिब मिलें तो को बिलगाई !!
सबमें हरि हैं हरि में सब हैं हरि अपनों जिन जाना !
साखी नहीं और कोई दूसर जाननहार समाना !!
केवल गंगास्नान करने जाने वाले भक्तों में ही रैदासजी अपने प्यारे "साहेब" के दर्शन नहीं करते थे , उन्हें तो प्रत्येक जीवधारी में ही उनका "मालिक" नजर आता था चाहे वह मानव हो अथवा पशु हो ,पंछी हो, जलथलचर हो , नभचर हो ! यदि वह मनुज हो तो चाहे वह किसी भी धर्म-मत का अनुयायी हो ,मुसलमान हो , हिंदू हो, यहूदी हो या ईसाई हो रैदास जी को सभी धर्मावलंबियों के इष्ट के रूप में केवल "एक परमेश्वर" के ही दर्शन होते थे ! प्रियजन ! तभी वह अक्सर कहा करते थे
कृष्ण करीम रामहरिराघव जब लगि "एक" न पेखा !
बेद कतेब कुरान पुरानन सहज राम नहीं देखा !!
यह पूछने पर कि वह तीज त्योहारों पर भी देवालय मे जाकर विधिवत पूजा पाठ क्यूँ नहीं करते ,वो प्रश्नकर्ता से कहते " मैं क्यूँ जाऊं मंदिर मस्जिद , मुझे तो आप में ही "राम रहीम" का दीदार हो रहा है "!
प्रियजन, रैदास जी रूढ़ीवादी कर्मकांडीय पूजा पाठ के मुकाबले मानसिक पूजा को अधिक महत्व देते थे ! वह बड़े से बड़े पर्व त्यौहार के दिन भी अपना निर्धारित काम अधूरा छोड़ कर गंगा स्नान अथवा शिव दर्शन को नहीं जाते थे ! वह कर्तव्य कर्म छोड़ कर ऎसी पूजा करना व्यर्थ समझते थे! कारण पूछने पर वह कहते कि ग्राहक उनके लिये भगवान है ! ग्राहक से किया गया वादा समय से पूरा करना उनके लिए पूजा से कम नहीं है !ग्राहकों के जूते बनाना और उन्हें संतुष्ट करना ही रैदास जी की पूजा थी !
संत रैदास के चरित्र में शास्त्रों में निरूपित भक्ति के निम्नांकित सभी नौ लक्षण जिन्हें "नवधा भक्ति" कहते हैं विद्यमान हैं :
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(2) कीर्तन : ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। रैदास जी में यह भक्ति लक्षण [कीर्तन] नैसर्गिक रूप से विद्यमान था ! प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा से रैदास जी अति सुंदर शब्द रचना करते थे तथा स्वयम अपने पदों को गाते भी थे !
(3) स्मरण : निरंतर अनन्यभाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्तिका स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। रैदास जी पल भर को भी प्रभु का विस्मरण नहीं करते थे ! "जिसे नाम रट लग गयी", हो वह कैसे प्रभु को बिसार सकता है ?
(4) पादसेवा : ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना। रैदासजी द्वारा ग्राहकों को भगवान मान कर उनके चरण पादुकाओं की धूल माथे लगाने से बढ़ कर और दूसरी चरण सेवा क्या होगी ?
(5) अर्चन : मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। बिना देव मंदिर में गये ,रैदासजी अपने ठीहे पर बैठे बैठे अपनी कठौती के गंगाजल से मन हीमन अपने "इष्ट" का अभिषेक किया करते थे !
(6) वंदन : भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्रभाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
रैदासजी प्राणिमात्र को भगवान का अंश मानते थे !
(7) दास्य : ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। रैदासजी ने कहा "प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा "
(8) सख्य : ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पणकर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
मित्र हितैषी होते हैं , प्यारेप्रभु से अधिक रैदास का कोई और हितैषी नहीं था !प्रभु का दासत्व स्वीकार कर उन्होंने उन्हें अपना परम हितैषी मित्र बना लिया था !
(9) आत्मनिवेदन : अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पणकर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। पिता द्वारा परिवार से निष्कासित किये जाने के बाद रैदासजी "भगवान" के श्रीचरणों में पूर्णतः समर्पित हो गये ! दरिद्र नारायन की सेवा उनके लिए पूजा थी!
प्रियजन , आपको याद ही होगा कि भक्ति के इन्ही नौ लक्षणों को बताने के बाद ,भगवान राम ने भीलनी शबरी से कहा था कि
नव् महू एकहु जिनके होई , नारि पुरुष सचराचर कोई
मम दरसन फल परम अनूपा ,जीव पाँव निज सहज सरूपा
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नव् वर्ष २०१४ के शुभागमन पर स्वजनों का अभिनन्दन करते हुए हम यह शुभकामना करते हैं कि
प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा समग्र मानवता पर सदा सदा बनी रहे !
स्वधर्म का निर्वहन करते हुए हम सब अपने अपने कर्म
लगन उत्साह और प्रसन्नचित्त से
संत रैदास के समान सतत करते रहें !
मूल मंत्र
काम करते रहें , नाम जपते रहें
मन को मंदिर बना उसमे मूरत बिठा
जाप करते रहें ,ध्यान करते रहें
नाम जपते रहें ,काम करते रहें
"भोला"
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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