शरणागत वत्सल परमेश्वर
विभीषण की शरणागति
(गतांक से आगे)
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लंकेश रावण के राक्षसी साम्राज्य में उसका ही छोटा भाई विभीषण "स्वधर्म" का पालन भली भांति करता था ! असंगत लगती है यह बात ! चलिए थोड़ी यह चर्चा भी हो जाये कि आखिर
वह कौन सा 'धर्म" था जिसका पालन विभीषण करता था ?
वास्तविक "धर्म" क्या है ?
"धर्म जीवन -तत्व -विज्ञान है ! " Religion , मजहब ,पन्थ तथा मत आदि "शब्द" हैं ! मत या पन्थ का शब्दार्थ ही है "राय" ! ये सब ही , समय तथा आचार्यों के अनुसार बदलते रहते हैं ! समस्त मानवता के लिए केवल एक ही यथार्थ "धर्म" है जो किसी काल में , किसी भी आचार्य द्वारा बदला नहीं जा सकता है ,यह नित्य सनातन धर्म है ;सार्वभौमिक और सर्वकालिक धर्म है ! यह 'धर्म' मानव जीवन से सीधे सीधे सम्बन्धित है और प्रत्येक मानव को आजीवन इस "धर्म" का ही पालन करते रहना चाहिए ! सद्ग्रन्थों में , इस"मानव धर्म" के दस (१०) लक्षण बताये गए हैं !" (स्वामी सत्यानन्द जी महराज - दिसम्बर १९४७ के साधना सत्संग के एक प्रवचन से )
श्रीमद्भागवत महापुराण में एक कथा आती है ! 'यक्ष" के प्रश्नों का सही सही उत्तर देकर अपने भाइयों को जीवन दान दिला लेने के बाद युधिष्टिर ने यक्ष से उसका परिचय पूछा ! उत्तर में यक्ष ने उन्हें बताया कि वह "धर्म" हैं ,बगुले के स्वरूप में वह साक्षात् "ब्रह्म अवतार' हैं और पांडवों की धर्म निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए यह लीला कर रहे हैं ! यक्ष ने युधिष्ठिर को मानव "धर्म" के " दस लक्षण" इस प्रकार बताये :
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः!
धीर्विद्या सत्यम अक्रोधो दसकं धर्म लक्षणम् !!
(धर्म के इन दस लक्षणों की सविस्तार विवेचना मैंने समय समय पर अन्यत्र की है
और भविष्य में भी अपने अनुभव और योग्यता के अनुसार करता रहूँगा )
हाँ तो लंकेश राक्षसराज रावण के छोटे भाई विभीषण के 'शरणागति' की चर्चा चल रही थी ! विभीषण ने अति "धीरज" के साथ , बड़े भाई रावण के अपराधो को "क्षमा" किया , क्रोधादि आवेश का "दमन" किया ,पूर्ण "शुचिता" के साथ सतत हरि सुमिरन से अपना सर्वस्व "शुद्ध" किया तथा अपनी इंद्रियों को पूर्णतः "निग्रहित" कर लिया था !
धर्म के उपरोक्त दसों गुणों को भली भांति अपने जीवन में उतार कर , सत्य धर्म निभाते हुए विधिवत अपने सभी सांसारिक कर्म करते हुए , उस कर्तव्य परायण छोटे भाई विभीषण ने अपने दुराचारी बड़े भाई रावण को बहुत समझाया कि वह सीताजी को स्वतंत्र करदे और उन्हें श्रीराम को लौटा दे ! लेकिन आततायी रावण न माना ,और अन्ततोगत्वा उसने विभीषण पर चरन प्रहार किया और अपमानित करके उसे लंका से निष्कासित कर दिया !
दुखित और तिरुस्कृत विभीषण राम दूत हनुमानजी के सहयोग से श्रीराम की शरण में गया! परमकृपालु दीनदयाल प्रभु नें उसे निःसंकोच अपने गले लगा लिया , उसका कुशल-मंगल जाना , उसे "लंकेश" कह कर सम्बोधित किया और तत्काल उसे लंका प्रदेश का महराजा घोषित कर दिया !
विभीषण को अपनाकर श्रीराम ने हम् जैसे सभी साधकों को यह सूत्र दिया है कि "वह अपने शरणागत को प्राण के समान प्यार करते हैं , पग पग पर हर संकट से उसको उबारते हैं और आजीवन उसका पथ प्रदर्शन करते हैं "
तुलसीदास ने रामचरितमानस में श्रीराम की शरणागत भक्तवत्सलता के स्वभाव का जगह जगह पर गुणगान किया है ! तुलसी की भाषा में , विभीषण की शरणागति के प्रति अपने उद्गार श्रीराम ने निम्नांकित शब्दों में व्यक्त किये हैं :
जो नर होई चराचर द्रोही ,आवे सभय सरन तकि मोही
(सुंदर का./दो .४७ / चौ.१)
जो सभीत आवा सरनाई , रखिहहूँ ताहि प्राण की नाई
(सुंदर का. /दो. ४३ / चौ. ४)
सखा नीति तुम नीकि बिचारी ,मम पन सरनागत भय हारी
(सुंदर का./दो.४२ / चौ. ४).
निज जन जानि ताहि अपनावा ,प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा
(सुंदर का./ दो.४९ / चौ. १)
श्री राम ने कहा " इस चराचर जगत का कोई जीवधारी चाहे वह मेरा द्रोही ही क्यों न हो ,यदि भयभीत तथा हताश होकर ,अति निर्मल मन से मेरी शरण में आता है , तो मैं उसे ठुकराता नहीं हूँ ! वह मेरा प्रिय पात्र बन जाता है क्योकिं शरणागत को अभय दान देना मेरा प्रण है ! याद रखना ,"मम पन सरनागत भयहारी "
विभीषण की 'शरणागति' प्रभु श्रीराम की 'शरणागतवत्सलता' पर हमारी निष्ठां को अविचल करती है ! हमें बताती है कि प्यारे प्रभु के प्रेम पात्र बननेके लिए हमे उनके साथ कितनी और कैसी "प्रीति" करनी होगी ! आधुनिक दिखावे वाली प्रीति से काम नहीं चलेगा ! केवल मंगल शनि को हनुमानजी के मंदिर में सवा रूपये के अथवा सवा किलो लड्डू का भोग लगा कर "डिनर" के बाद परिवार को "डेज़र्ट" स्वरूप परोस देने से "प्रभु"आपको अपना शरणागत स्वीकार नहीं कर लेंगे ! रामचरितमानस के अंतिम दो दोहो में तुलसी अपने जीवन भर की भक्ति के अनुभव के आधार पर बताते हैं कि प्रभु की प्रीति, प्रभु की अहेतुकी कृपा तथा उनकी शरणागति पाने के लिए जीवधारियों को उनसे कैसी प्रीति करनी चाहिए :
कामिहि नारि पियरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम !
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम !!
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क्रमशः
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बहुत कुछ कहना है पर एक साथ अधिक कह नहीं पाता ,
प्रात जो ज्ञान की भीख "वह" देते हैं ,वही पकाता हूँ और परोस देता हूँ !!
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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