शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

शरणागति

शरणागवत्सल परमेश्वर

(गतांक से आगे)

"रब" की "खोज" में स्वयम अपने आप को 'खो" देना ही "शरणागति" है
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किसकी सरन में जाऊं असरन सरन तुम्ही हो ?
हमको तो हे बिहारी आसा है बस तुम्हारी
काहे सुरति बिसारी, मेरे तो इक तुम्ही हो ?
किसकी सरन में जाऊं असरन सरन तुम्ही हो ?
(एक पारंपरिक रचना)
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विभीषण और मीरा की शरणागति

निर्धन धनवान की शरण और निर्बल बलवान की शरण पाने को व्याकुल रहता है ! कूप का जल गागर से और नदी का जल सागर से मिलने को आकुल रहता है ! भिक्षुक दानी के द्वार और अज्ञानी ज्ञानी के द्वार झोली फैलाये खड़ा रहता है !

भक्त आजीवन अपने इष्ट भगवान की शरण में जाने को पल पल छटपटाता रहता है! अपने प्यारे कृष्ण की शरण में जाने के लिए विरह से व्याकुल होकर कुछ ऐसी ही वेदना झेलते हुए राजरानी मीराबाई ने कभी गाया था :

प्यारे दर्शन दीजो आय
तुम बिन रह्यो न जाय
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन बिरह करेजो खाय
प्यारे दर्शन दीजो आय
तुम बिन रह्यो न जाय
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(यदि आपके पास समय हो ,और जी करे तो ,३० वर्ष पूर्व बच्चों के
साथ मेरी आवाज़ में गाया यह भजन सुनने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें)

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साधारणतः , अन्याय के शिकार तथा असहनीय कष्ट और पीडायें झेल रहे असहाय और निर्बल व्यक्ति ही सहायता के लिए शक्तिशाली बाहुबली व्यक्तियों की "शरण" में जाते हैं! पांडुपुत्र अर्जुन जो श्रीकृष्ण का परम स्नेही सखा था वह भी कुछ ऐसी ही विषम परिस्थितियों से घिर कर भगवान श्रीकृष्ण की "शरण" में गया था !

मीरा और विभीषण की परिस्थिति अर्जुन से भिन्न थी ! मीरा और विभीषण दोनों ही भौतिक दृष्टि में अपने अपने साम्राज्य में वैभव और ऐश्वर्य से सम्पन्न थे ,उन्हें कोई अभाव न था उन्हें कुछ अप्राप्य भी न था ,उन्हें सभी सांसारिक सुख सुविधाएँ उपलब्ध थीं ! ये दोनों ही अपने अपने "इष्टदेव" से निष्काम निःस्वार्थ प्रेम करते थे ! महापुरुष कहते हैं कि , साधकों की ,"प्रभु" के प्रति ऐसी सघन प्रीति ही "भक्ति" है !

अर्जुन के समर्पण तथा मीरा-विभीषण की शरणागति में प्रमुख भेद यह था कि अर्जुन अपने खोये हुए गौरव की "खोज" में श्रीकृष्ण की सहायता लेने उनकी "शरण" में गए थे ! वह वर्षों
श्रीकृष्ण के साथ जी कर भी सखा श्रीकृष्ण मे अपने "इष्ट" को नहीं "खोज" पाये ! अर्जुन को अपना ईश्वरत्व समझाने के लिए श्रीकृष्ण को उन्हें अपना "विराट रूप " दिखलाना पड़ा था !
इसके विपरीत मीरा और विभीषण ,दोनों ने ,भौतिक सुख -सम्पदायें त्याग कर अपने अखंड समर्पण के बल से निज इष्ट को न केवल "खोज" लिया था ,बल्कि उन्होंने तो उनकी पूर्ण शरणागति भी प्राप्त करली थी और उनकी शरन में जा कर स्वयम अपने आपको उनकी मधुर सुरति में सदा सदा के लिए पूरी तरह "खो" दिया था !

प्रियजन
अपना असितत्व खोकर अपने "इष्ट" को खोज लेना ,
किसी भक्त के लिए इससे बढ़ कर और कौन सी उपलब्धि हो सकती है ?
यही वास्तविक "शरणागति" है !
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क्रमशः
निवेदक: व्ही, एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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