सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

कटु सत्य की चपेट में

अप्रैल में वार्षिक परीक्षा होने वाली थी कि मेरे अध्ययन की कर्मभूमि पर अनायास ही एक और बिजली आ गिरी । मेरा और वीरेन्द्र का एक और मित्र था "शिव स्वरूप" । एक विशेषता उसमें यह थी कि वह हम दोनों के अतिरिक्त किसी अन्य सहपाठी से आत्मीय संबंध नहीं रखता था और हमसे भी वह यह अपेक्षा रखता था कि हम दोनों भी उसके अतिरिक्त किसी अन्य सहपाठी से अंतरंग सम्बन्ध न रखें । वह अंतर्मुखी प्रवृत्ति का अति भावुक व्यक्ति था, छोटी से छोटी अप्रिय बात को भी अपने मन की गहराइयों में सदा के लिए संजो लेता था । 

एक शाम को अनहोनी घटना घटी । मैं ब्रोचा हॉस्टल में अपने भाई-बंधुओं के साथ मनोविनोद में व्यस्त था कि मौर्वी होस्टल से हमारा सहायक समाचार लाया कि हमारी घंटे भर की गैरहाजिरी में शिव स्वरूप ने मर्क्यूरिक क्लोराइड (पारे का विष) खा लिया है, आत्महत्या का प्रयास किया है । खबर सुनते ही मेरे होश उड़ गये, किसी तरह साहस जुटा कर उससे मिलने गया । वह विश्वविद्यालय के अस्पताल में अचेतन अवस्था में पड़ा था, होश आने पर केवल दो शब्द ही अति कठिनाई से बोलता था, "भोला और वीरेंद्र " । सर सुन्दरलाल अस्पताल में उपलब्ध अच्छे से अच्छे उपचार भी काम न आये, शीघ्र ही वह ब्रह्मलीन हो गया । इकलौता पुत्र था, पुत्र निधन से आहत पिताश्री रोते बिलखते आये । एकांत में सबसे पूछ ताछ की । पिता थे,  पुत्र की मनःस्थिति और उसके नैसर्गिक स्वभाव से पूर्णतः अवगत । अस्तु किसी अन्य को अपने पुत्र के आत्महत्या का कारण न मान कर उन्होंने विश्वविद्यालय अथवा वहाँ के किसी व्यक्ति पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की ।

जब हमारे जीवन में कोई ऐसी घटना घटती है जहाँ हमारा सामर्थ्य, हमारा बल, हमारा विवेक, हमारा विचार सभी निष्फल हो जाता है तब उस समय कोई अनजान अदृश्य शक्ति हमें उस आपत्ति से निकाल कर हमारी रक्षा करती है । मेरे कुलदेव महाबीर हनुमानजी ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्वरुप में प्रकट हो कर एक से एक भीषण आपत्तियों से मुझे निकाल कर हर बार की तरह इस बार भी मेरी रक्षा की । "वह" सर्वदा मुझे सुबुद्धि और विवेक प्रदान करते रहे जिससे मुझे कठिन से कठिन परिस्थिति से जूझने की क्षमता मिली । दो वर्षों तक प्रतिपल अपने निकट रहे एक मित्र के निधन के पश्चात, मेरे मन की स्थिति कैसी हो गयी होगी, यह अनुमान तो लगा ही सकते हैं । दुखी, भयभीत और आतंकित मन के कारण विद्याध्ययन के लिए अपेक्षित एकाग्रता लुप्त हो गयी, पठन-पाठन कठिन हो गया फिर भी किसी प्रकार अपने इष्टदेव हनुमानजी का आश्रय ले कर जी जान से पढाई करने की कोशिश करने लगा ।

मेरा अटूट विश्वास था कि श्री हनुमान जी का स्मरण करते ही साधक को बल-बुद्धि, यश-कीर्ति, निर्भयता, सुदृढ़ता, आरोग्यता आदि की प्राप्ति होती है अत: बेचेलर डिग्री की परीक्षा के दिनों में अपने आत्मविश्वास और विवेकबुद्धि को प्रबुद्ध करने की अभिलाषा से सहपाठियों के साथ प्रति सप्ताह मंगलवार को हनुमानजी के संकटमोचन मन्दिर जाने लगा । वहां मैं पूरे जोर शोर से हनुमान चालीसा का और हनुमान अष्टक का पाठ करता और उसके बाद मन ही मन कभी कभी बिलकुल अकेले ही रामचरितमानस के अंतिम तीन छंद जिसकी प्रथम पंक्ति है :”पाई न केहि गति पतित पावन, राम भज सुनु शठ मना” अवश्य गुनगुना लेता । ज्यों ज्यों परीक्षा निकट आती गयी, हनुमत भक्ति का वेग दिनों दिन बढ़ता गया और सप्ताह में दो बार मंगलवार और शनिवार को मन्दिर जाना शुरू कर दिया, जहां हनुमान चालीसा का पाठ अधिक लगन और निष्ठा के साथ होने लगा । "हम आज कहीं दिल खो बैठे" जैसे फिल्मी गीत गाने वाले मेरे जैसे किशोर बालक ने अब बाथरूम में भी फिल्मी गीत गाने बंद कर दिए और प्रतिपल गुनगुनाने लगा --

“एक आसरा तेरा हनुमत, एक आसरा तेरा ।
कोई और न मेरा, तुझ बिन कोई और न मेरा ।।"

इन प्रार्थनाओं के माध्यम से वाराणसी में पढाई के दौरान पूरे समय मैंने अपने इष्ट श्री हनुमान जी को अपने अंग संग रखा जिनके सम्बल से मैं विषम से विषम कठिनाइयों में भी मैं अपने पठन -पाठन के ध्येय से विलग नहीं हुआ । समय पर वार्षिक परीक्षा दे दी, ग्रीष्मकाल की छुट्टी होते ही सकुशल घर पहुँच गया ।

अम्मा ने शैशव काल में ही मेरी यह दृढ धारणा बना दी थी कि सब जीवधारिओं पर उनके परम पिता "प्यारे प्रभु" की असीम अनुकम्पा जन्म से ही रहती है । माँ के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त इस अटूट प्रभु कृपा के कवच और अपने पूर्व जन्म के संस्कार तथा प्रारब्ध के अवशेषों के फलस्वरूप मेरे मन में बालपन से ही यह भाव घर कर गया था कि मेरे जीवन में मेरे साथ जो कुछ भी हुआ है, हो रहा है और भविष्य में, जो कुछ भी होगा, कडुआ या मीठा, वह सब प्रभु की इच्छा से ही होगा; उनकी अनन्य कृपा से ही होगा और उसमे ही मेरा कल्याण निहित होगा ।

रविवार, 27 फ़रवरी 2022

संगीत-रस भीनी प्रसिद्धि का प्रभाव

अतीत के पृष्ठ पलटते याद आया कि मुझमें और रंगनाथ में एक समानता थी । खेल कूद जैसे मनोरंजन में न तो वह और न मैं दोनों ही कोई विशेष रुचि नहीं रखते थे । मुझे एकांत में बॉलीवुड के नामी संगीतकार नौशाद साहेब के निर्देशन में गाये गीत गुनगुनाने का और उसे ड्राइंग शीट पर पेन्सिल से कलात्मक रेखाचित्र बनाते रहने का शौक था । कला पारखी रंगनाथ शास्त्रीय संगीत का प्रेमी था, उसने ही मुझे संगीत के क्षेत्र में कुछ कर दिखाने की उमंग भरी थी, एक वही मित्र था जिसके प्रयास और प्रेरणा से मैंने विश्वविद्यालय में संगीत के क्षेत्र में प्रसिद्धि पायी थी ।

एन. के. रंगनाथ ने सुदूर देश नेपाल, अफ्रीका आदि से आये विद्यार्थियों को उत्तर भारतीय संगीत से परिचित कराने के उद्देश्य से विश्वविद्यालय में संगीत गोष्ठियों के आयोजन कराने आरम्भ किये थे । तिथि तो मुझे याद नहीं, १९४७ में वार्डन प्रोफेसर गुप्ताजी की अनुमति से ब्रोचा हॉस्टल के आगे के प्रांगण में जब उसने पहिली संगीत गोष्ठी आयोजित की तब तक वह अधिक गायकों से परिचित नहीं था । इसलिए उसने इसमें केवल मेरा ही कार्यक्रम कराया । मैंने उन्हीं दिनों रिलीज़ हुए "अंदाज़" फिल्म में मुकेश के गाये हुए दो तीन गीत गाये तथा उन्हीं दिनों अखबार में छपी श्री रामकुमार चतुर्वेदी की रचना "अभी तो रात बाक़ी है" का स्वयं स्वर-संयोजन करके उसे गाया जिसकी सभी श्रोताओं ने सराहना की । उन दिनों फिल्मी गायकी के क्षेत्र में मेरे आदर्श, मेरे मेंटर थे संगीत विज्ञ मुकेश । उन दिनों मेरी आवाज उनके जैसी ध्वनित होती थी अत: चांदी ही चांदी थी । मुझे गीत गोष्ठियों में सम्मिलित होने का और उसमें अपनी गायन-कला के प्रस्तुतिकरण का सौभाग्य मिलने लगा, मै संगीत के क्षेत्र में नाम कमाने लगा । यद्यपि मैं संकोची स्वभाव का था फिर भी मुझे बी. एच. यू. म्युज़िक एसोसिएशन का सदस्य धोषित कर दिया गया । पर प्रश्न यह है कि क्या यह कामयाबी मुझे रास आई ? सच तो यह है कि इस प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा ने मेरे वाराणसी -प्रवास को अनेकों समस्याओं से आच्छादित कर दिया ।

इन संगीत गोष्ठियों में भाग लेने के कारण जहां कई सीनियर और जूनियर साथियों से मेरे सौहार्द संबंध स्थापित हो गए वहीं मेरे व्यक्तित्व, स्वभाव, रहन-सहन, अध्ययन आदि से संबंधित चर्चाएं विद्यालय के छात्र-छात्राओं के बीच होनी शुरू हो गयी । महिला हॉस्टल की ताई ने बतलाया था कि मेरे कारण पनपी आपसी ईर्ष्या के कारण वहां की छात्राओं में परस्पर वाद-विवाद, नोक झोंक, झड़प यहां तक कि मार-पीट भी होने लगी थी । इस परिवेश में संगीत के कारण मिली प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि पारस्परिक वैमनस्य का कारण बन गयी । मेरे पठन-पाठन पर इसका असर पड़ने लगा, एकाग्रता लुप्त हो गयी, मन भटकने लगा । एक दिन की डाक में मुझे एक स्थानीय पोस्टकार्ड मिला, जिसमें लिखा था कि बी एच यू के घाटों पर रेंकने वाले ' हे भोलाजी महाराज ' क्या खूब गाते हैं आप ? लड़के लड़कियां ताली बजाते हैं आप फूल कर कुप्पा हो जाते हैं, आपके हर गाने के बाद लड़के चिल्लाते है, नो मोर नो मोर (No more No more), पर आप केवल कन्याओं की आवाज़ (once more, once more ) वंस मोर वंस मोर सुनकर फिर गाने लगते हैं, कभी नो मोर नो मोर पर भी ध्यान दीजिये । ”

विद्याध्ययन में विघ्न पड़ने की आशंका से मेरे स्थानीय अभिभावक, मित्र और हितैषी भाई-बंधुओं ने मेरे बाबूजी को मेरी इन सब उलझनों से अवगत कराया तो उन्होंने मुझे तत्काल पढ़ाई अधूरी छोड़ कर कानपुर वापिस आजाने का आदेश पारित कर दिया । ऐसी स्थिति में मेरे काम आये मेरे इष्टदेव संकटमोचन महावीरजी, उन्होंने अपना वरद हस्त मेरे मस्तक पर रखा, उनकी ही प्रेरणा से बाबूजी ने मेरी दलीलें सुनीं और मेरी मनोस्थिति की विवेचना करके, मुझ पर विश्वास रख कर मुझे पढाई का सत्र पूरा करने की अनुमति प्रदान कर दी ।


शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी प्रवास

काशी हिंदू विश्व विद्यालय वाराणसी में स्थित एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जिसका संक्षिप्त नाम बी. एच. यू. है । यह भारत में आई. आई. टी. के स्थापन से पूर्व भारत के श्रेष्ठतम तकनीकी शिक्षा संस्थानों में से एक था जिसमें केवल भारत के विभिन्न प्रान्तों के ही नहीं अपितु पड़ोसी देश नैपाल, श्रीलंका, बर्मा तथा अन्य अफ्रीकी देशों से छात्र-छात्राएं उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने के लिए आया करते थे । इसकी स्थापना महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने सन १९१६ में की थी । १९४७ अगस्त में, जब मैं यहाँ अध्ययन के लिये आया उस समय विश्व विख्यात प्रवक्ता, शिक्षाविद, महान दार्शनिक, संस्कृति के संवाहक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसके कुलपति थे, जिनके ज्ञानवर्धक, रोचक, सारगर्भित, संस्कृति के अनमोल तथ्यों से भरपूर वक्तव्यों को तथा श्रीमभगवद्गीता के साप्ताहिक प्रवचन को सुनने के लिए सभी छात्र आतुरता से प्रतीक्षा किया करते थे और मंत्र मुग्ध हो कर उन्हें सुनते भी थे । छात्र नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में आचरण में उतारें यही मालवीय जी की हार्दिक अभिलाषा थी ।

मैं १५ अगस्त १९४७ को स्वतंत्रता प्राप्ति के उपलक्ष्य में आयोजित फूलबाग कानपुर में लगे स्वतंत्रता-मेला के उत्सव का आनंद लेने के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ टेक्नोलोजी मे इंडस्ट्रियल केमिस्ट्री में उच्चतम शिक्षा पाने के उद्देश्य से, बनारस पहुचा । देर से पहुँचने के कारण विश्वविद्यालय के मौर्वी होस्टल में मुझे कमरा नहीं मिला, कुछ समय के लिए विश्वविद्यालय के निकट के गाँव के एक कच्चे मकान में रहने की जगह मिली । इस कच्चे घर में न तो बिजली थी, न पानी की व्यवस्था ही थी । आधुनिक फ्लशयुक्त शौचालय, जिसका मैं जन्म से आदी था उसकी बात तो छोड़िये, यहाँ साधारण संडास की भी सुविधा नहीं थी, स्नानगृह होना भी दूर की बात थी । प्रातः अँधेरे में उठकर शौच हेतु मैदान जाइए, वहीं पास के कुएँ पर स्नान करिये, ऐसे होती थी दिनचर्या की शुरूवात ।

विश्वविद्यालय का दोष नहीं था । दोष मेरा ही था । एडमिशन का समाचार पाते ही दक्षिणी भारत, आसाम, बंगाल आदि से क्षात्र यथा समय पहुँच गये थे अत: मौर्वी हॉस्टल के कमरों में उनके रहने की उचित व्यवस्था हो गयी थी । मैं आराम से परिवार के साथ प्रथम स्वतंत्रता दिवस का आनंद लूटकर बरात की चाल से पहुंचा था देर से तो यह कष्ट मुझे झेलना ही था, लेकिन गुरुजन के आशीर्वाद और श्रीहनुमतकृपा ने मेरी इस समस्या को सुलझा दिया ।

उन दिनों बलिया निवासी मेरे फुफेरे भाई श्री प्रहलादप्रसाद (पा भैया), श्री चन्द्रमणि (चुनमुन भैया ), और मेरे भतीजे श्री अवध बिहारी लाल (छोटे भैया) इसी युनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, ब्रोचा होस्टल में रहते थे इसलिए उनके सौजन्य से मुझे वहाँ सब सुविधायें प्राप्त हो गयी और मेरा अधिकाँश समय इन्ही भाई -बंधुओं के साथ बीतने लगा । पा भैया मेरे ऑफीशियल गार्जियन थे, मुझसे बड़े और अधिक समझदार थे, यथा समय मेरी समस्याओं का समाधान करते रहते थे । छोटे भैया अवध बिहारी ने मुझे निर्भीक और निश्चिन्त रहने के लिए रामचरितमानस के अंतिम छंद में निहित रामकथा के माहात्म्य "पाई न केहि गति पतितपावन राम भज सुनु शठ मना" को कंठस्थ करा दिया था जिसे मैं स्वान्तः सुखाय आनंद पाने के लिए हर समय गुनगुनाता रहता था चाहे वह संकट मोचन हनुमानजी का मंदिर हो या विश्वनाथ मंदिर, चाहे होस्टल हो या निजी कमरा । इसके पाठ से मुझे आत्म प्रेरणा और ऊर्जा मिलती थी ।

सत्य तो यह है कि १७-१८ वर्ष की अवस्था तक मैं घर में ही रहा । अपने संचित प्रारब्ध एवं माता पिता के संस्कारों तथा उनके पूजा पाठ और पुन्यायी के सहारे, मेरी गाड़ी सब के साथ साथ भली भांति चलती रही । और जब मेरा घर छूटा, मैं बनारस आया तो अपनी छोटी मोटी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए श्री हनुमानजी को रिझाने की जरूरत महसूस हुई । विश्वविद्यालय के कुछ अन्य आस्तिक सहपाठियों के साथ मैंने मंगलवार को, निकट के नगवा गाँव में स्थित श्री हनुमान जी के संकटमोचन मन्दिर जाना प्रारम्भ कर दिया, अर्जी लगानी शुरू कर दी । उनकी कृपा हो गयी । तीन चार महीने में ही मुझे विश्वविद्यालय के मौर्वी हॉस्टल में कमरा उपलब्ध हो गया । 

मेरे कमरे में मेरा साझीदार रहा, कानपुर से ही आया "वीरेन्द्रनाथ बहल " । वह मेरा सहपाठी भी था । वीरेन्द्र में कुछ ऐसे सद्गुण थे जो अभिनंदनीय और अनुसरणीय रहे । वह अति अनुशासित जीवन जीता था । उसकी एक निश्चित दिनचर्या थी नियमित रूप से ब्रह्म बेला में उठ कर, नहा धो कर, स्वच्छ पोशाक और जूते पहिन कर, तरोताज़ा हो कर वह पढ़ने बैठ जाता था । प्रतिदिन के नोट्स सदा तैयार रहते थे । जितनी लगन से वह प्रातःकाल में अध्ययन और स्वाध्याय करता था उतनी ही लगन से सायंकाल के समय खेल के मैदान में हॉकी की प्रेक्टिस करता था । वह कॉलेज की हॉकी टीम का कप्तान था । वह अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता था । अनुशासित जीवन जीने का सुफल उसे मिला । उसने एम. टेक. की परीक्षा उच्च अंकों से पास की और केम्पस सिलेक्शन द्वारा टाटा केमिकल्स के मीठापुर इकाई के निर्माण काल में उसमें प्रोजेक्ट एसिस्टेंट नियुक्त हुआ, फिर कई वर्ष तक उस विशाल यूनिट के जनरल मेनेजर के पद पर आसीन रहा । यूनिवर्सिटी छोड़ने के लगभग १५ वर्ष बाद १९७४ में उससे मेरी भेंट मुम्बई में एक कॉन्फ्रेंस में हुई, उस समय वह "टाटा टी" का सी ई ओ कम डायरेक्टर था ।

मैं आलसी था । बड़े भैया की निगरानी में था । उन्हें सदा यह चिंता सताती थी की "कहीं बाहरी बच्चों की कुसंगति में बिगड़ न जाए" इस लिए मुझे घर से बाहर निकलने ही नही दिया जाता था । दसवीं तक भैया के साथ स्कूल जाना और उन्हीं के साथ वापस आना । इंटरमीडियट तक कभी कोई आउट ड़ोर गेम्स नही खेले । इस बार जीवन में पहिली बार, अकेले जीवन जीने, घर से बाहर निकला था, सो हतप्रभ सा रहता था । दिनचर्या ऐसी थी कि मैं आराम से सोया रहता जब वीरेन्द्र प्रातः काल पढ़ाई करता था । स्वयं ही कदाचित अपना कर्तव्य मान कर वीरेन्द्र कॉलेज जाने से पहले मुझे जगा कर जाता था । मैं जल्दी से ड्राई क्लीन स्नान करके बस्ता उठा कर बलिया वाले स्वजनो के ब्रोचा हॉस्टल नाश्ता पानी करने जाता और फिर वहां से कॉलेज जाता । शाम को भी भाई-बंधुओं के साथ भोजन करके अधिकाँश समय उन्हीं के साथ ब्रोचा हॉस्टल में बिता कर देर रात अपने कमरे लौटता था । जब तक कमरे में आता सोने का समय हो जाता, इस प्रकार मेरी पढ़ाई कैसी हुई होगी, आप स्वयं सोचें ।

वीरेन्द्र के अतिरिक्त विश्वविद्यालय में मेरा एक और मित्र बना । उसका नाम था "एन के रंगनाथ " । कालांतर में वह भारत का प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बना । यूनिवर्सिटी में भी वह बड़े अच्छे कार्टून और केरीकेचर बनाता था । विश्व विद्यालय में जो भी विशिष्ट अतिथि, अभिनेता, कवि -कवियत्री, संगीतज्ञ आदि समय समय पर आते रहते थे, तत्काल ही उनका कार्टून बनाकर उनके हस्ताक्षर ले लेता था। पंडित ओमकार नाथ ठाकुर, सरोद वादक अली अकबर खान के पिताश्री उस्ताद मुश्ताक अली, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, निरालाजी, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन आदि सब के ही कार्टून उनके समक्ष ही बना कर उनके हस्ताक्षर उसने लिए थे । उस समय मैं भी उसके साथ था, इस कारण मुझे भी इन विशिष्ठ महापुरुषों से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ । लगभग ४४ वर्ष बाद १९९४ में मेरे पुत्र माधव के शुभ-विवाह पर वह आशीर्वाद देने आया, दिल्ली में हम दोनों मित्र मिले और बनारस-प्रवास की मधुर स्मृतियों में खो गए ।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

शिक्षण संस्थानों की देन

कौन है वह जो अज्ञान के गहन अंधकार से अंगुली पकड़ कर हमें बाहर निकालता है, हमारा उचित मार्ग दर्शन करता है और हमारी हर गलती पर टोक कर हमें सुधरने की प्रेरणा देता है ? वह अपने इष्ट के सिवाय और कौन हो सकता है ? अपनी शैशवावस्था और किशोरावस्था के मोड़ पर बड़े भैया की निराशा में डूबी मनोवृत्ति से दुखित हो कर मेरे मन में बार बार यही प्रश्न उठ रहा था कि श्रीहनुमान जी महाराज की यह कैसी करुणा है, कैसी कृपा है कि उन्होंने पहले तो बड़े भैया को फिल्मी दुनिया के बड़े बड़े फले फूले हरे भरे बाग़ दिखाये और फिर जब प्रारब्ध ने उन्हें बेदर्दी से काँटों के झाड़ पर फेंक दिया तब उन्हें असहाय छोड़ कर अंतर्ध्यान हो गये । मेरे इस प्रश्न का उत्तर दिया मेरे कुलदेव विक्रम बजरंगी ने, मगर एक अप्रत्यक्ष अनुभव के साथ । हम जीवन में क्या करना चाहते हैं, और वास्तव में क्या करते हैं ?

मैं ८ वीं कक्षा में पढ़ता था । महात्मा गांधी का "असहयोग" तथा "अंग्रेजों भारत छोड़ो" आन्दोलन देश भर में जोर शोर से चालू हो चुका था । जगह जगह पर गरम दल के देश भक्त युवक तोड़ फोड़ भी कर रहे थे । पूर्वी यू. पी. में उपद्रव अधिक हुए थे । यहाँ तक कि कुछ दिनों के लिए हमारा बलिया जिला स्वतंत्र हो गया । जिलाधीश महोदय ने जिला जेल का दरवाज़ा खुलवाकर सब आन्दोलनकारी कैदियों को आज़ाद कर दिया और उनके नेता चीतू पण्डे के हाथ जिले की बागडोर सौंप कर जिले के काम काज से अपने हाथ धो लिए । हाँ, बहुत दिनों तक नहीं चला बलिया में वह अपना राज । शायद एक सप्ताह के अंदर ही गवर्नर ने केप्टन स्मिथ के नेतृत्व में फ़ौजी हमला करवा कर बड़ी बर्बरता से आन्दोलनकारियों का दमन कर दिया । काफी दिनों के बाद हमने समाचार पत्रों से यह जाना जब लखनऊ से यू. पी. के गवर्नर सर मौरिस हेलेट ने ब्रिटिश सरकार को यह समाचार दिया कि "अंग्रेज़ी फौजों ने बलिया फिर से फतेह कर लिया" । समाचार के अंग्रेजी के शब्द हमें अभी तक याद हैं, 'British Forces Conquer Ballia".

उन्ही दिनों दुर्गापूजा की छुट्टियों में यूनिवरसिटी के फाइनल इम्तहान देने वाले टेक्निकल विद्यार्थी औद्योगिक इकाइयों का भ्रमण करने निकलते हैं । ऐसे ही एक टूर पर मेरे एक हनुमान भक्त बड़े भैया बनारस यूनिवरसिटी के विद्यार्थियों के साथ कानपुर आये । इत्तेफाक से उनके टूर के दौरान मंगलवार पड़ा और वह हम सब को भी अपने साथ लेकर पनकी में श्री हनुमान जी के दर्शन करने गये । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उन सभी बी. मेट. के विद्यार्थियों ने उतनी ही श्रद्धा भक्ति से पनकी में श्री हनुमान जी के दर्शन किये जितनी श्रद्धा से वे परीक्षा के दिनों में अपने गेट के निकट ”नगवा“ वाले संकटमोचन मन्दिर के हनुमान जी का दर्शन वन्दन करते थे । पनकी मन्दिर में मैं भी उनके साथ खड़ा खड़ा यह मनाता रहा कि हनुमान जी दया कर मुझ पर ऐसी कृपा करे कि समय आने पर मैं भी उन लोगो की तरह ही, बी. एच. यू. के कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी में दाखिला पा सकूं । उन लोगों की अर्जियां मंजूर हुई, सब को हनुमान जी ने न केवल उच्च अंकों से पास करवाया, वे सब भैया लोग अच्छी अच्छी नौकरियां भी पा गये । हनुमत कृपा से समय आने पर मैं भी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी में भर्ती हो गया ।

इस कार्य को विधिवत अंजाम देने के लिए हनुमानजी ने मेरी शकुंतला भाभी को अपना पात्र चुना । २६ जून १९४६ में पटना निवासी राय साहिब इन्द्रदेव नारायण सिन्हा की पुत्री शकुंतला देवी के साथ मेरे बड़े भैया का विवाह बड़े धूम-धाम के साथ सम्पन्न हुआ था । मेरी भाभी डॉ सच्चिदानंद की पौत्री थी जहाँ सर्वमान्य अतिथियों की श्रंखला में उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरु की भी आव भगत की थी । वह परिवार की गरिमा एवं प्रतिष्ठा के प्रति संकल्प बद्ध थीं, घर के प्रबंधन में बाबूजी की प्रमुख सलाहकार थीं । जब मैंने डी .ए .वी . कॉलेज कानपुर से इंटर पास कर लिया तब उन्होंने बाबूजी से आग्रह किया कि वे मुझे उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी प्रख्यात शिक्षण संस्थान में भेजे । बड़े भैया के हतोत्साहित जीवन को देख कर उनकी धारणा दृढ़ हो गयी थी कि कानपुर में रह कर उनका एकमात्र देवर “भोला“ बबुआ-दुलरुआ ही बना रह जाएगा । मुझे स्वावलम्बी, प्रगतिशील और पुरुषार्थी बनाने की मेरी भाभी की अभिलाषा को साकार करने की विधि का भी अनावरण हुआ, हनुमत-कृपा से ।

मेरे बाबूजी को समाचार मिला कि बच्चा भैया के छोटे पुत्र अवध बिहारी जिन्होंने मेरे साथ ही इंटर की परीक्षा दी थी और जिन्हें परीक्षाफल में मुझसे भी कम अंक प्राप्त हुए थे उनका एडमिशन बी. एच. यू . के साइंस कॉलेज में भूगर्भ विज्ञान के डिग्री कोर्स में हो गया है । हम दोनों ही सेकंड डिवीजन में पास हुए थे । इससे प्रेरणा पाकर कोशिश की गयी और हनुमत कृपा एवं शुभचिंतकों के सहयोग से मेरा एडमीशन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी में हो गया जहां से इंडस्ट्रियल केमेस्ट्री तथा जनरल एंड केमिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त कर मैंने १९५० में स्नातक की डिग्री हासिल की । यह वह सुदृढ़ नीव थी जिस पर मेरे भविष्य की इतनी खूबसूरत इमारत खडी हो पायी, मैं अपने पैरों पर खड़ा हो सका, मेरे जीवन जीने की एक राह निश्चित हो गयी ।

इतनी कृपा करी हनुमत ने, फिर किसको मैं याद करूं ।
करुणासागर उनसा पाकर, अब किससे फरियाद करूं ।।


बड़े भैया के जीवन से सीख

अपने स्कूल में, १९३७ से १९४१ तक गजाधर भैया अपने आकर्षक व्यक्तित्व और संगीत कला के कारण हमेशा प्रशंसकों से घिरे रहते थे । वह अपनी मित्रमंडली को नयी फिल्मों की कहानियाँ और गाने सुनाते थे और "सिने संसार" की ताज़ी खबरे बताते थे । मित्रमंडली की हर ऐसी बैठक के बाद भैया के मित्रगण एक स्वर में उन्हें बम्बई जा कर फ़िल्मो मे काम करने की मन्त्रणा देते थे । चित्रकला, आधुनिक संगीत और लेखन आदि में तो वह पारंगत थे ही अस्तु, छोटी अवस्था में ही सन १९४१-४२ में उन्होंनें अपने भविष्य की योजना बनायी जिसके आधार पर उन्हें सिनेमा जगत में प्रवेश करने के लिए बंबई जाने की अनुमति मिल गयी । इतना प्यार करतीं थीं अम्मा उनसे कि वह भैया से थोड़े समय का भी बिछोह सहन नहीं कर सकती थीं । पर "ऊपरवाले" (Navigator) की योजना के अनुसार बड़े भैया को अम्मा से दूर जाना था, वह बंबई गये और वहाँ श्री हनुमान जी की कृपा से उन्हें पहली कोशिश में ही सफलता भी मिल गयी ।

उन दिनों प्रसिद्ध फिल्म निर्माता "व्ही.शांताराम जी" अपनी नयी फिल्म "शकुन्तला" के लिए कलाकारों का चयन कर रहे थे । ऐतिहासिक और धार्मिक चित्रों के उस जमाने के हीरो "साहू मोदक" "चन्द्रमोहन", "प्रेम अदीब", "अरुण" (आज के हीरो "गोविंदा" के पिता) आदि से कहीं अधिक प्रभावशाली व्यक्तित्व और आकर्षक स्वरूप वाले भइया अपनी सुंदर गायकी और हिन्दी भाषा के शुद्ध उच्चारण के कारण पहले ही साक्षात्कार में बाजी मार ले गये और शांताराम जी ने उन्हें "शकुन्तला" में भाग लेने के लिए स्वीकार कर लिया । विश्व विख्यात सिने जौहरी श्री व्ही .शांताराम जी ने भली भांति कसौटी कर के, नाप जोख करके, हर तरह से परख कर, हमारे बड़े भैया को अपनी "शकुन्तला" में कोई अति महत्वपूर्ण रोल निभाने के लिए सिलेक्ट कर लिया था । उन्हें जयश्री जी के अपोजिट, महाराजा दुष्यंत का रोल मिल सकता था, मेनका के साथ विश्वमित्र का रोल अथवा शकुंतला के पिताश्री "कणव ऋषि" का रोल भी मिल सकता था ।

कानपुर में हम सब बंबई से प्राप्त उपरोक्त उत्साहवर्धक समाचार सुन कर बहुत प्रसन्न थे । अम्मा बाबूजी के मन में बड़े पुत्र से बिछड़ने की थोड़ी कसक थी लेकिन हम छोटे बच्चों में बड़ा उत्साह था । थोड़ा बहुत अहंकार तो हमें हो ही रहा था कि हमारे बड़े भैया हीरो बन रहे थे । स्कूल में भी विद्यार्थी हमे अधिक मान सम्मान देने लगे थे ।

निर्माता निर्देशक ने फिल्म की मुहूर्त के लिए दुर्गापूजा वाली नवरात्री की सप्तमी तिथि का निश्चय लिया । तैयारियां जोर शोर से चल पड़ी । स्क्रिप्ट, डायलोग, वेशभूषा तथा सेट डिज़ाइन पर युद्ध स्तर से काम होने लगा । "प्रभात" से अलग होने के बाद शांताराम जी द्वारा स्थापित की गयी, नयी फिल्म कम्पनी "राजकमल कला मंदिर" के दफ्तर में, उनकी नई हीरोइन (latest discovery) "जयश्री" के पदार्पण से वैसे ही काफी चहल पहल मची रहती थी पर अब उन्हें लेकर बनने वाली "शकुन्तला" के मुहूर्त की तैयारी के कारण वहाँ की रौनक और भी बढ़ गयी थी । प्लान ये था कि बरसात के बाद नवरात्रि में शूटिंग शुरू होगी ।

भैया को फिल्म जगत में सहजता से मिली उनकी सफलता से अम्मा बाबूजी प्रसन्न तो थे पर बम्बई की फिल्मी चमक धमक में उनके बिगड़ जाने का डर उनके मन से निकल नहीं पा रहा था । किसी प्रकार उन्हें जल्दी ही कानपुर वापस बुला लेने की प्रबल इच्छा उनके मन में जम कर बैठी हुई थी । अपनी प्रत्येक प्रार्थना में वे इष्टदेव हनुमान जी से यही अर्ज़ करते थे कि कोई अनिष्ट होने से पहले भैया बंबई छोड़ कर कानपुर लौट आयें । अम्मा ने भैया को बंबई इस विश्वास से भेजा था कि वह उलटे पाँव वहाँ से लौट आएंगे, वह घर की सुख सुविधा छोड़ कर बहुत दिन बाहर नहीं रह सकेंगे । उन दिनों, पिताश्री को भी मैंने बार बार यह कहते हुए सुना था कि हफ्ते दो हफ्ते बम्बई की पक्की सडकों पर जूते घिस के, दादर, अंधेरी, मलाड में स्टूडियोज में धक्के खा के बबुआ लौट ही आयेंगे । धोबी तलाव में नुक्कड़ वाले इरानी रेस्तोरांत की चाय मस्का पाव आमलेट या वर्ली में "फेमस बिल्डिंग" के बाहर, फुटपाथ की दुकानों पर और चलती फिरती गाडिओं पर बिकने वाली डालडा वनस्पती घी में तली मिर्च मसाले से भरी बम्बैया पाव भाजी वह बहुत दिनों तक नहीं झेल पायेंगे ।

जून जुलाई की भयंकर बम्बैया वर्षा और उमस ने भैया को त्रस्त तो किया लेकिन उनसे वह निरुत्साहित नहीं हुए । शांताराम जी की फिल्म मे काम करने का अवसर मिलना बड़े सौभाग्य की बात थी । वह किसी प्रकार भी यह सुनहरा मौका गंवाना नहीं चाहते थे । अपनी सफलता की कामना लिए वह बिना नागा निश्चित दिनों पर मुम्बादेवी, सिद्धविनायक, हाजीअली, हनुमान जी एवं महालक्ष्मी मंदिर अवश्य जाते थे ।

अगस्त १९४२ के वे दिन बहुत महत्वपूर्ण थे । बम्बई की एक विशाल जन सभा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महात्मा गांधी का ब्रिटिश सरकार से असहयोग करने का प्रस्ताव सर्व सम्मति से मंज़ूर कर लिया था । इसके फलस्वरूप बापू के नेतृत्व में पूरे देश में "अंग्रेजों भारत छोड़ो" नाम से एक शांति पूर्ण आन्दोलन (QUIT INDIA MOVEMENT) का श्री गणेश हुआ । उस आन्दोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने आनन फानन दफा १४४ और Defence of India Rules नामक एक दमन कारी कानून देश भर में लगा दिया । आम जनता पर बर्बरता से लाठी चार्ज हुए और कहीं कहीं तो गोलियां भी चलीं । कांग्रेस के बड़े छोटे सभी नेता जेल मे डाल दिए गये । जन साधारण ने भी बड़ी तादाद में गिरफ्तारी दी ।

अगस्त के पहले सप्ताह में एक दिन ओपेरा हाउस सिनेमा से निकल कर समुद्र की ठंढी हवा का आनंद लेने और भेलपूरी खाकर नारियल का पानी पीने के इरादे से गजाधर भैया चौपाटी की ओर मुड़ गये । जब भैया चौपाटी पहुंचे तो देखा कि उस समय वहाँ कांग्रेस की असहयोग आन्दोलन से संबंधित एक बड़ी रेली चल रही थी । भैया तो एक मात्र फिल्म स्टार बनने का संकल्प संजो कर कानपुर से बम्बई आये थे । उन्हें राजनीति से कोई लेना देना कभी भी नहीं था । वह केवल फिल्मों मे अपना केरिअर बनाने के विषय में ही सोचते थे । आस पास संसार में क्या हो रहा है उससे उनका कोई सरोकार नहीं था ।

भेलपूरी का दोना अभी उन्होंने हाथ में लिया ही था कि वहाँ भगदड़ मच गयी । जनता का एक जबर्दस्त रेला दरिया के ज्वार (High tide) के समान लहरा कर "अंग्रेजों भारत छोड़ो", "महात्मा गाँधी की जय" और "वन्दे मातरम", के नारे लगाता हुआ उनकी तरफ ही आ रहा था । जनता के पीछे पुलिस का घुड़सवार दस्ता बंदूक ताने उन्हें खदेड़ रहा था और सैकड़ों पैदल सिपाही बर्बरता से लाठी भांजते हुए निहत्थे नागरिकों के हाथ पैर तोड़ने की धमकी दे रहे थे । "भागो, भागो, पुलिस आयी" की पुकार और भागती हुई जनता के आर्तनाद से चौपाटी का वातावरण बड़ा उत्तेजक हो गया था ।

बड़ी मनौतियों और मेहनत से कमायी, तिजोरियों में बंद संपत्ति के समान भैया ने तब तक एक बहुत ही संरक्षित जीवन (Protected Life) जिया था । कानपुर में, पढाई छोड़ने के बाद वह सुबह से शाम तक कमरा बंद करके हारमोनियम पर स्वर छेड़ कर घंटों गाना गाते रहते थे । इसके सिवाय उन्हें और कोई दूसरा काम था ही नहीं । कानपुर में वह घर से अधिक बाहर निकलते ही नहीं थे । सडकों पर क्या क्या होता है, कैसे उपद्रव और अपराध होते रहते हैं वह इन सब से अनिभिज्ञ थे । हिंसा का जो वीभत्स दृश्य चौपाटी पर देखा वैसा उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं देखा था । वह घबडा कर सोचने लगे, " ये सब क्या है ? मैं कैसे फंस गया ?अब मेरा क्या होगा ? क्या करुं? कहाँ जाऊं ?"

जीवन रक्षा के लिए बड़े भैया "मगनोलिया आइसक्रीम" और यू .पी.  के "चौरसिया पान" की बड़ी वाली अस्थायी दूकानों (किओस्क्स) के बीच की गली में छुप कर खड़े हो गये । वहाँ पर कुछ स्त्रियाँ पहले से ही अपने भयभीत बच्चों के साथ दुबक कर खड़ी थीं । दूकानदारों ने बत्तियां बुझा दीँ थी । इस कारण पुलिस वाले उन्हें देख नहीं पाए । वहाँ खड़े सभी लोग सांस रोके हुए अपने अपने इष्ट देव की याद कर रहे थे । बड़े भैया भी बड़ी तन्मयता से मन ही मन कुलदेवता श्री हनुमान जी को मनाने का प्रयास कर रहे थे । "संकटमोचन" की कृपा से थोड़ी देर में ही चौपाटी का माहौल सामान्य हो गया । सरकार ने वहाँ से पुलिस का बन्दोबस्त उठाने का निश्चय लिया और शीघ्र ही उनकी आखरी टुकड़ी भी चौपाटी से हटा ली गयी । पुलिस के जाते ही चौपाटी की बची खुची भीड़ भी धीरे धीरे छंटनें लगी । दूकानों में ताले लगने लगे । बड़े भैया भी बड़ी सावधानी से दायें बांयें देखते, साथ वाली महिलाओं और बच्चों के झुण्ड में शामिल हो कर लुकते छिपते, चौपाटी से बाहर निकल गये । भगवान की दया से उन्हें कोई चोट चपेट नहीं आयी थी, वह शारीरिक दृष्टि से पूरी तरह स्वस्थ थे पर सायं के उस कटु अनुभव के कारण उनका मनोबल बहुत क्षीण हो गया था ।

चौपाटी की घटना के कारण "बेस्ट" की बसें और "लोकल" ट्रेने दोनों ही बंद हो गयी थीं । भैया सोच में पड़ गये, वह अब कैसे अपने निवास (lodge ) पहुँच पायेंगे ? उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । उनका सिर चकरा गया । उन्हें कानपुर में भी अकसर सिर दर्द होता था और चक्कर भी आते थे । ऐसे में तुरंत ही उन्हें पलंग पर लिटा दिया जाता था, डॉक्टर बुलाये जाते थे, और अच्छे से अच्छा उपचार चालू हो जाता था । यहाँ बंबई मे वह निसहाय थे, कहाँ जाएँ क्या करें ?

हमारे राष्ट्र पिता बापू द्वारा चलाये शांति पूर्ण असहयोग आन्दोलन का बर्बरता से दमन करने की अपनी पशुवत क्षमता प्रदर्शित करने के लिए अंग्रेज सरकार ने उस दिन, चौपाटी पर ही नहीं वरन देश के विभिन्न भागों में निहत्थी भारतीय जनता पर बड़े बड़े ज़ुल्म किये । सब प्रकार से हमे दुःखी करके उन्होंने यह लोकोक्ति सही साबित कर दी कि "पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं " । देशविदेश में खाद्य सामग्री के प्रचुर भंडार होते हुए भी भारतीयों को भूखा मरने पर मजबूर किया गया । देश के अनाज के भंडार जला दिए गये । अमेरिका से आयातित गेहूँ भारत पहुंचने ही नहीं दिया, अन्यत्र भेज दिया गया । हमें याद है एक अमरीकी जहाज का गेंहू तो हिंद महासागर में डाल दिया गया था । पूरा देश एक भयंकर भुखमरी के कगार पर खड़ा था । बंगाल में दुर्भिक्ष से हजारों लोग भूख से प्राण गँवा चुके थे । इसके अलावा "महात्मा गांधी जिंदाबाद " का नारा लगाने भर से लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटा जाता था और जेलों में डाल दिया जाता था ।

हमारी जन्म भूमि, बलिया की स्थिति थोड़ी भिन्न थी । बलिया के, नौजवान शेर नेता "चीतू पाण्डे" ने अंग्रेजों की दमन नीति से खीझ कर उन्हें "गुरिल्ला लड़ाई " में ऐसा फँसाया कि उनके नाक में दम हो गयी । यहाँ तक कि कुछ दिनों के लिए उन्होंने बलिया को अंग्रेजी शासन से मुक्त ही करा लिया । बलिया जेल के सभी राजनैतिक कैदी छोड़ दिए गये । कलेक्टर साहिब और पुलिस कप्तान ने जिले की बागड़ोर कांग्रेसियों के हाथ में सौंप दी और उनसे आज्ञा ले ले कर राज काज चलाने लगे । लेकिन दोबारा बलिया पर कब्ज़ा कर लेने के उपरांत अंग्रेजों ने जो दमन नीति अपनाई और जितने जघन्य अत्याचार किये, उन्हें याद करते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।

गांधी जी के असहयोग आन्दोलन को दबाने के लिए अपनायी ब्रिटिश सरकार की दमन नीति से भयभीत हो कर बाबूजी-अम्मा ने बार बार तार भेज कर और बंबई के अपने जान पहचान के लोगों से जोर डलवाकर बड़े भैया को वहाँ से वापस कानपुर बुला लिया ।

१९४३ में "शकुन्तला", "शांताराम जी " के "राज कमल कला मंदिर" द्वारा निर्मित पहली टेक्नीकलर फिल्म, रिलीज़ हुई । सम्पूर्ण भारत में इस फिल्म का ज़ोरदार स्वागत हुआ । कलकत्ते के चित्रा सिनेमा में उस फिल्म ने लगातार लगभग २०० सप्ताह तक चल कर एक नया रिकॉर्ड कायम किया । फिल्मी दुनिया में इस फिल्म की धूम मच गयी । हीरोइन "जयश्री", प्रोड्यूसर डायरेक्टर -"व्ही .शांताराम जी" और संगीत निदेशक "वसंत देसाई" की ख्याति में इस फिल्म ने चार चाँद लगा दिए । एक्टरों में चन्द्र मोहन, मदन मोहन, के नाम सुनने में आये थे । लेकिन इस फिल्म में हमारे बड़े भैया का कोई अता पता नहीं था । वह इस फिल्म में कहीं दिखायी ही नहीं दिए । वह न महाराज दुष्यंत के रोल में दिखे, न ऋषि विश्वमित्र के, न आश्रम के किसी शिष्य की भूमिका में ही दिखाई दिए । इसे देख कर भैया को अहसास हुआ कि उनके हाथ में आयी हुई वह अप्रत्याशित सफलता अनायास ही उनके हाथों से सरक गयी । भैया कितने निराशा हुए होंगे आप उसका अनुमान लगा सकते हैं । उनके तो सारे सपने एक झटके में ही टूट चुके थे ।

तब मैं वयस में बहुत छोटा था, नौवीं कक्षा में पढ़ता था, मुझे दुनियादारी का ज्ञान नहीं था अस्तु बड़ी बड़ी अहंकार भरी बातें मैंने अपने मित्रों से उस समय की थीं जब बड़े भइया को व्ही. शांताराम जी ने "शकुंतला" में भाग लेने के लिए अभिनेता के रूप में चुन लिया था । अब किस मुँह से उन्हें बताता कि बड़े भैया बंबई छोड़ कर वापस कानपुर आ गये । कैसे कहता उनसे कि इस फिल्म में हमारे बड़े भैया का कोई अता पता नहीं है । शर्म के मारे मैं यह बात बहुत दिनों तक अपने स्कूल के दोस्तों से छुपाये रहा ।

बड़े भैया को बम्बई की फिल्म नगरी में जब जयश्री के साथ शांताराम जी की फिल्म शकुन्तला में काम करने का अवसर मिला था तब हमने भी कानपुर में बड़े रंगीन मंसूबे बाँधने शुरू कर दिए थे । कल्पना करने लगा था कि मुझे भी कम से कम हीरोइन अथवा हीरो के छोटे भाई का रोल तो मिल ही जायेगा । मैं "बंधन" के मास्टर सुरेश की तरह हिरोइन लीला चिटनिस के छोटे भाई के रोल में नई सायकिल पर घंटी बजाते बजाते स्कूल जाऊंगा और स्कूल के मास्टर हीरो अशोक कुमार के साथ मिल कर प्रदीप जी की यह अमर रचना "चल चल रे नौजवान" गा गा कर देश के नौजवानों को जगाऊंगा और उन्हें जीवन पथ पर आगे बढते रहने को प्रोत्साहित करूँगा । परन्तु भाई साहब की असफलता और निराशा ने मेरा विचार बदल दिया । किसी ने सच ही कहा है -- "मेरे मन कछु और है कर्ता के कछु और" ।

जीव अपने विषय में उतना ही जानता हैं जितना वह आईने में देख पाता है या जितना आस पास के लोग उसको जाँच कर बताते रहते हैं । प्रकृति का यह नियम है कि जीव के अन्तर में छुपा बैठा उसका "परम कृपालु इष्ट “ उसे टोक देता है जब भी उसका कोई कदम गलत दिशा की ओर मुड़ता है ।

दैवयोग अथवा प्रारब्धानुसार हुई बड़े भइया की बम्बई की असफलता और उनके नैराश्य और उनकी कुंठाओं को देखते ही उनके समान फिल्म एक्टर बनने की मेरी इच्छा धीरे धीरे आप से आप ही काफूर हो गयी । हमारे परिवार के "कुल देवता" श्री हनुमान जी महाराज ने अपना वरद हस्त मेरे सिर पर रख कर मेरी वह ११-१२ वर्ष के उम्र वाली बचकानी सोच ही बदल दी । उन्होंने मेरी फिल्मी कलाकार बनने की सोच को उस जमाने के चिंतन एवं माता-पिता की इच्छा के अनुरूप आई. सी .एस., पी. सी. एस. अथवा डॉक्टर, इंजीनियर बनने की तैयारी के लिए इंटरमीडियेट के बाद किसी विश्वविद्यालय में दाखिला पाने की इच्छा में बदल दिया और शनैः शनैः मैं इस मार्ग पर गम्भीरता से अग्रसर हुआ ।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

मेरे बड़े भैया और उनका अंकुश

बरसा रहा है कृपा जिस धरनि पर हनुमान । 
फिर भला उस खेत का हो क्यों नहीं कल्यान ।।

बलिया में हरवंश भवन के आँगन वाले कुलदेवता हनुमान जी की ध्वजा तले बारह वर्ष तक की हुई भावभरी प्रार्थनाओं के फलस्वरुप हमारी अम्मा को सन १९२४ में जन्मे हमारे "भैया" उनके लिए किसी अनमोल "मणि" से कम न थे । उनका नाम रखा गया “गजाधर प्रसाद “ । कभी कभी पिताश्री उन्हें प्रिंस ऑफ वेल्स (Prince of Wales ) कहकर पुकारते थे । जब बहुत प्यार उमड़ता था तब अम्मा उन्हें बड़े दुलार से कभी "मन्नीलाल" तो कभी ”गणेश“ कह कर पुकारती थीं । लम्बी प्रतीक्षा कराके, बड़ी मनौतियों के फलस्वरूप मिले गजाधर भैया हमारे माता पिता के लिए "कोहिनूर" हीरे के समान अनमोल थे । वे उनकी प्रत्येक इच्छा को जी जान से पूरी करने का प्रयत्न करते थे । उनकी सारी इच्छाएं व्यक्त करने से पहले ही पूरी कर दी जातीं थीं ।

हमारे भैया जो मुझसे पाँच वर्ष ही बड़े थे, एक अति स्वरुपवान व्यक्तित्व के धनी थे, गौरवर्ण सुडौल काठी, घने, काले, घुंघुराले बाल, कागज़ी बादाम सा धवल सन्तुलित नाक-नक्शेदार चेहरा । अड़ोसी पड़ोसी, स्कूल के मित्रगण, निकट और दूर के संबंधी खास कर जान पहचान के युवक-युवतियां हर समय उन्हें घेरे रहते थे । उनके स्कूल के मित्रों में सबसे प्रिय थे, नगर के दो उच्च शिक्ष संस्थानो के मराठी मूल के अध्यापकों के पुत्र, अशोक हुब्लीकर और वसन्त अठावले । मोहल्ले की गली में ईंटों के विकेट बना कर, लकड़ी के तख्ते के बल्ले से क्रिकेट खेलना उन्हें पसंद नहीं था । खाली समय में वह ग्रामाफोन पर नये नये फिल्मों के गाने सुनते थे और उस के साथ साथ गा कर सीख लेते थे ।

गजाधर भैया केवल संगीतज्ञ ही नहीं थे, वह लेखन में भी पारंगत थे । मुझे याद आ रहा है, १९३४-३५ में जब वह ११ -१२ वर्ष के थे, वह घर से ही एक हस्त लिखित मासिक बालोपयोगी पत्रिका निकालते थे । उस पत्रिका में समाचारों के अतिरिक्त ज्ञान विज्ञान धर्म और सिनेमा की जानकारी होती थी । हिन्दी बोलती फिल्मे (talkies) हाल में ही भारत में चालू हुईं थीं, उनके ज्वलंत समाचार भी वह उस पत्रिका में देते थे । कैसे ? पिताश्री कानपुर के रीगल और निशात टाकीज के पार्टनर थे । सिनेमा के मेनेजर भैया को नयी फिल्मों के पोस्टर, पेम्फलेट और चित्र आदि समय समय पर पहुंचाते रहते थे ।

पत्रिका पढने वालों में सर्वप्रथम थे हम उनके तीनों भाई बहेन । इसके अतिरिक्त उनके मित्रगण और अड़ोस पड़ोस के बालवृन्द मांग मांग कर उसे पढ़ते थे । तब मुझे हिन्दी का अक्षर ज्ञान तो था पर मेरे लिए उस पत्रिका के सब विषयों को समझ पाना कठिन था । अस्तु जितना वह जानते थे, वह सब हमें बता देने के लिए और मुझे सामान्य ज्ञान से परिचित कराने के लिए मुझे अपने डेस्क पर साथ में बैठा कर अपनी मैगज़ीन का एक एक पृष्ठ पढ़ कर सुनाते और समझाते थे । वे मुझे पिताश्री के म्योर मिल वाले बंगले के ड्राइव वे पर, सायंकाल सूर्यास्त के बाद अंगुली पकड़ कर टहलाते हुए गृह नक्षत्रों, आकाश गंगा, सप्त ऋषि एवं ध्रुव तारे के दर्शन करवाते थे और उनसे सम्बंधित जानकारी देते थे । 

वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद की कहानी “बड़े भाई“ के समान ही गजाधर भैया का अंकुश और नियंत्रण मुझ पर और माधुरी पर था । उनकी भावनात्मक सुरक्षा, उनके आदेश और उनकी अनुशासन प्रियता ने जहाँ मेरा प्रगति-पथ प्रशस्त किया वहीं मुझे किसी भी प्रकार की कुसंगति में पड़ने से बचा लिया ।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

प्रारम्भिक शिक्षा एवं काव्य रचना

 १९३३-३४ में जब मैं ५ वर्ष का था, आजकल के "डे केयर सेंटर" जैसे एक बाल आश्रम जो कानपुर के रामलीला ग्राउंड, परेड के निकट स्थित था, मेरा दाखिला कराया गया । इस बाल शिक्षा आश्रम के संस्थापक थे एक खादीधारी, गांधीवादी देश भक्त नवयुवक । उनकी नवविवाहिता देविओं जैसी तेजस्वनी पत्नी पौराणिक आश्रमों की गुरु माँ की भांति बच्चों के प्रति और अपने पति के समान इस आश्रम की व्यवस्था के प्रति समर्पित थीं । उन दिनों हमारे बाबूजी (पिताश्री) एक अंग्रेजी कम्पनी के उच्च अधिकारी थे और हम एक बड़े बंगले में अंग्रेज परिवारों के बीच रहते थे । मेरे अध्यापक सक्सेनाजी मुझे बंगले से सायकिल पर बिठा कर स्कूल ले जाया करते थे । वहाँ कुछ पढ़ने लिखने के बाद खाना खा कर श्रीमती सक्सेना की प्यार भरी गोदी में मैं अक्सर सो भी जाता था । आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि उस जमाने में भी, "सान्दीपन आश्रम ", "बाल्मीकि आश्रम"और "गांधी आश्रम " की तरह, हमारे उस "डे केयर सेंटर" का नाम था, "बाल शिक्षा आश्रम" । उस आश्रम जैसे "डे केअर" में हमारे गुरुजी और गुरुमाँ हम बच्चों से नित्य प्रातः जो प्रार्थना करवाते थे, उसके बोल थे --

शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन ।
सम्हालो बिगडी दशा हमारी, दया करो हे दयालु भगवन ।।

हम सब "तोते" के समान इस प्रार्थना को नित्य प्रति गाते रहे । आश्रम के बालकों में मैं सर्व श्रेष्ठ गायक था अस्तु गुरु माँ बाजा बजातीं थीं और मुझे आगे आगे प्रार्थना गानी पडती थी । सो मैंने यह प्रार्थना इतनी गायी कि उसका एक एक शब्द मुझे जीवन भर के लिए कंठस्थ हो गया । कोई सवाल ही नहीं है कि तब ५ -६ वर्ष की अवस्था में हम में से कोई एक बच्चा इस प्रार्थना का सही अर्थ समझ पाता; इसके गहन भाव को, ईश्वर की असीम कृपा को हृदय में समा पाता । इस प्रार्थना में व्यक्त शरणागति की उच्चतम भावना तो हमें इस भौतिक जगत की विषम वास्तविकताओं से अनेकों वर्षों तक जूझ लेने के बाद ही समझ में आयीं । बाल शिक्षा आश्रम की अपनी उन "गुरु माँ" और गुरु को मैं शत शत नमन करता हूँ जिन्होंने शैशव में ही मेरे मानस में शरणागति के विशाल वटवृक्ष का बीजारोपण कर दिया ।

१९३६ में बाबूजी की नौकरी छूट जाने पर जब बंगले से आ कर हम सूटरगंज के घर में रहने लगे तब श्री प्रताप विद्यालय में मेरा दाखिला हुआ जहां मैंने अवधी, भोजपुरी और खडी बोली के मिश्रण से हास्य रस से भरी कविता के नाम पर एक तुकबंदी की, जो विद्यालय की पत्रिका में प्रकाशित हुई --

सो 'जेंटल मैंन' कहावत हैं

जो 'पैंट-कोट औ शर्ट' डार, 'गर कंठ लंगोट' लगावत हैं

सो 'जेंटल मैंन' कहावत हैं

जो 'सोला' टोपी शीश धरे, मुख 'गोल्ड फ्लेक' को धुवाँ भरे

'एल्शेशियन कूकुर' का पकरे नित 'ग्रीन पार्क' टहरावत हैं

सो जेंटल मैंन कहावत हैं

कहते हैं “होनहार विरवान के होत चीकने पात“ । माँ सरस्वती की कृपा से अपने भावों को शब्दों में संजो कर उसकी काव्यमयी प्रस्तुति कर उसे संगीत बद्ध करने की प्रवृत्ति मुझमें बचपन से ही रही है जिसके कारण मैं सदा अपने अध्यापकों का और अपने सहपाठियों का प्रिय पात्र बना रहा हूँ । 

१९४७ में कानपुर की नगरपालिका द्वारा आयोजित स्वतंत्रता दिवस के सांस्कृतिक कार्यक्रम में गाने के लिए मैंने अपनी छोटी बहिन माधुरी के लिए, जो तब केवल १२ वर्ष की थी, एक गीत लिखा --

आज के दिन हम आज़ाद हुए हैं

हम भूले नहीं उन शहीदों को माँ,
जिनने हँसते ही हँसते से दी अपनी जाँ

दिल के दागों में बैठा भगत सिंह महान,
दे गया देश को जो आजादी का दान

आज मस्तक झुकाये हुए हम खड़े,
उन शहीदों की याद में आंसू भरे

अपने हाथों में झंडा तिरंगा लिए,
दे गये अपनी जाँ जो वतन के लिए

आज के दिन हम आज़ाद हुए हैं

इस गीत की धुन बनाई और उसको सिखाया । कार्यक्रम से लौट कर माधुरी ने बताया कि उसके गीत में देशभक्त शहीदों के नाम और उनकी कुर्बानी की बातें सुन कर हाल में उपस्थित जनता तथा मंच पर बैठे सभी नेता, स्कूल के टीचर और अधिकारी रो पड़े और उसके स्कूल की हेड मिस्ट्रेस श्रीमती आर. के. आगा ने उसे गले से लगा लिया ।

एक बार गणतन्त्र दिवस पर जो रचना हुई उसकी झलक --

नव प्रभात जीवन में लाया एक नया उत्साह,
नव जीवन सन्देश ला रहा स्वर्णिम वर्ण प्रभात

जिनकी कुर्बानी से भारत बना स्वतंत्र महान,
जिस सेनानी ने हँस हँस कर दे दी अपनी जान

नहीं भूलना भारत वासी उनकी वह कुर्बानी ...

मैंने माधुरी के मुनिस्पल गर्ल्स स्कूल के लिए दहेज-प्रथा उन्मूलन के विषय को ले कर नाटक लिखा जो लक्ष्मी चान्दापुरी, शरद चतुर्वेदी आदि सहपाठिनियों के साथ माधुरी ने स्कूल के मंच पर मंचित किया । 

लगभग ७० वर्ष से मेरे जीवन की यह यात्रा आज भी उसी प्रकार आगे बढ रही है । कभी मध्य रात्रि में, तो कभी प्रातः काल की अमृत बेला में अनायास ही किसी पारंपरिक भजन की धुन आप से आप मेरे कंठ से मुखरित हो उठती है और कभी कभी किसी नयी रचना के शब्द सस्वर अवतरित हो जाते हैं !! न कवि हूँ, न शायर हूँ, न लेखक हूँ न गायक हूँ, लेकिन शैशव काल से अनवरत लिख रहा हूँ, अपनी रचनाओं के स्वर संजो रहा हूँ, स्वयं गा रहा हूँ, बच्चों से गवा रहा हूँ । साउथ अमेरिका के एक देश के रेडियो स्टेशन के "सिग्नेचर ट्यून" में नित्य प्रति मुझे अपनी एक शब्द व संगीत रचना सुनाई पडी थी । उसी देश के हिंदू मंदिर में मैंने अपनी बनाई धुन में बालिकाओं को भजन गाते सुना था । मैं क्या, मेरा पूरा परिवार ही भौचक्का रह गया था ।

जरा यह भी सोच कर देखिये, "चर्मकारी" के पेशे से आजीविका कमाने वाला मैं पशुओं के कच्चे खाल के दुर्गन्ध भरे गोदाम में, कभी अपनी कुर्सी पर बैठ कर, कभी सुपरविजन का आडम्बर करते हुए इधर उधर टहल टहल कर, मशीनों की गड़गड़ाहट के स्वर और ताल के सहारे इन गीतों को स्वर बद्ध करता था । पर कुछ ऐसी कृपा प्रभु हुई कि वहाँ के उस दुर्गंधमय वातावरण का कोई दूषित प्रभाव न उन दिव्य रचनाओं पर हुआ न उनके लिए मेरी बनाई धुनों पर ही हुआ । सच पूछिए तो वहाँ पर बनी धुनें इतनी हृदयग्राही बनी कि जब जिसने भी उन रचनाओं को सुना वह संगीत के स्वर रसामृत में डूब गया, आनंद विभोर हो गया ।

कैसे होते रहते हैं यह कार्य केवल और केवल हनुमत कृपा से । आप में से अनेको के मन मे यह प्रश्न उठ रहा होगा कि अपनी हर उपलब्धि को मैं "हनुमत कृपा" कह कर ही क्यों संबोधित करता हूँ । बात ऐसी है कि हमारे परिवार के "कुल देवता" श्री हनुमान जी महाराज का वरद हस्त सदा मेरे सिर पर रहता है और वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में साकार हो कर मुझे प्रेरणा देते हैं, मेरी सहायता और रक्षा करते हैं ।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

शैशव की झलक

शैशव में अम्मा की ममतामयी गोदी में खेल खेल कर हम चारों भाई बहेन, जन्म से ही कला की विविध विधाओं - लेखन, चित्रान्कन, गायन, नर्तन आदि के उपासक बनते गये । हमारे बड़े भैया उस जमाने के प्रसिद्ध गायक "के .एल सहगल " के और बड़ी बहिन "कानन देवी" की दीवानी थीं । भाई साहब की आवाज़ बिलकुल "सहगल" जैसी थी और दीदी की आवाज़ "कानन" जैसी । भाईसाहब "न्यू थीएटर" की १९३५ वाली पुरानी फिल्म "देवदास" के गीत, "दुःख के अब दिन बीतत नाहीं"और "बालम आये बसों मोरे मन में" बड़े भाव से, इतना सुंदर गाते थे कि सुनने वाले रो पड़ते थे । कहते हैं कि यदि वह पर्दे के पीछे से गाते तो लोगों को "सहगल" का भ्रम हो जाता था । मेरी छोटी बहिन माधुरी जिसे प्यार से सभी मधु बुलाते रहे, और जिन्हें आज तक सभी स्वजन “बाजी“ कह कर सम्बोधित करते हैं उसके गायन में अपूर्व माधुर्य रस समाया था । ,

अम्मा के लिए बड़े भैया “गणेश”,  उषा दीदी (जो मुझसे एक वर्ष बड़ी हैं,) “दुखभंजन”,  मै यानी कि भोला “कन्हैया “ और छोटी प्यारी गुडिया माधुरी “माँ सरस्वती” का प्रतिरूप थे, उसी रूप में वे सबको निहारती, पुचकारती रही, प्यार की गागर ढुलकाती रहीं । बचपन से ही अम्मा से यह सीख मिली कि बच्चे भगवान होते हैं । इसी परिपेक्ष्य में छोटी बहिन माधुरी को साक्षात देवी माँ की संज्ञा देकर उसके चरणों की वन्दना अम्मा हम सबसे कराती रहीं । जब नन्हीं सी थी, तब उषा दीदी और मैं कभी कभी उसके गुलाबी कोमल चरणों को धो कर उसका चरणामृत भी ले लेते थे ।

अम्मा के दृढ़ विश्वास, उनकी अटूट आस्था, उनके संकल्प और तुषार हार धवला वीणापाणि माँ सरस्वती के आशीर्वाद से १९५0 में १५ वर्ष की अवस्था में ही मेरी छोटी बहिन आकाशवाणी लखनऊ की कलाकार हो गयी । माधुरी श्रीवास्तव के नाम से प्रति मास भजन और सुगम संगीत के कार्यक्रम प्रसारित होने लगे । उन दिनों मैं अपनी छोटी बहन माधुरी श्रीवास्तव का अभिभावक और संगीत शिक्षक बनकर उनका रेडिओ कार्यक्रम करवाने जाया करता था । अन्य कलाकारों की अपेक्षा माधुरी उस समय उम्र में काफी छोटी थी । वह १५ - १६ वर्ष की अवस्था में ही रेडिओ पर गाने लगी थी और हाँ, थोड़ा जादू मेरी सरस "शब्द एवं स्वर रचनाओं" का भी था (क्षमा प्रार्थी हूँ, अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का अपराध जो कर रहा हूँ ) जिसके कारण हम दोनों भाई बहन, " भोला माधुरी", उन दिनों लखनऊ रेडिओ स्टेशन में काफी प्रसिद्ध हो गये थे ।

१९५० के दशक में जब मेरे प्रोत्साहन से मेरी छोटी बहिन माधुरी ने रेडिओ पर गाना शुरू किया तब, जहाँ तक मुझे याद है केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भार श्री केसकर जी के हाथ में था । कदाचित उन्ही दिनों "आल इंडिया रेडिओ" का नाम बदल कर "आकाश वाणी" रखा गया और वहाँ के वाद्यों में से हारमोनियम, गिटार, चेलो आदि पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल कम कर के उनकी जगह देसी वाद्यों - तानपूरा, सितार बांसुरी, सरोद, सारंगी आदि का प्रयोग बढ़ गया । सुगम संगीत के गायन में ठुमरी, दादरा, ग़ज़ल आदि के साथ साथ हिन्दी भाषा के गीत, भजन और पारम्परिक लोक संगीत का समुचित समावेश हुआ ।

कालान्तर में माधुरी ने मुनिस्पल गर्ल्स स्कूल के शास्त्रीय संगीत शिक्षक, पंडित बी .पी .मिश्रा और श्री सुरेन्द्र नाथ अवस्थी के अतिरिक्त घर पर ही श्री दत्तात्रेय केलकर से संगीत की शिक्षा प्राप्त की । श्री दत्तात्रेय केलकर जी ग्वालियर के माधव संगीत विद्यालय के स्नातक थे जहाँ उन्होंने भातखंडे पद्धति से संगीत शिक्षा प्राप्त की थी । वह श्री कृष्णराव शंकर पंडित जी के गायन से बहुत प्रभावित थे । संगीत शिक्षण द्वारा आजीविका कमाने के लिए केलकर जी नये नये ही कानपुर में आये थे और हरि कृपा कहें या इत्तफाक, वह हमारे घर के पास ही एक लॉज मे रहने लगे । हम चारों में संगीत सीखने की तीव्र उत्कंठा देख कर और हमें सुर ताल का समझदार पा कर वह तुरंत ही हमें लगभग निःशुल्क ही संगीत सिखाने को राजी हो गये । एक के लिए पैसे लेकर वह हम चारों को ही संगीत सिखाने लगे । प्रियजन, क्या कहेंगे आप इसे ? हम पर क्या यह श्री हनुमान जी की एक अति विशिष्ट कृपा नहीं है ? सो इस प्रकार हमारे कुलदेव की एक और महती कृपा हम पर हो गयी ।

मैंने अपनी दीदी और छोटी बहन के म्युज़िक टीचरों से, जब वह संगीत सिखाने हमारे घर आते थे, तब कमरे के परदे के पीछे से या बगल के कमरे में छिप छिप कर बहुत कुछ सीखा था । वह बेशकीमती धरोहर मेरी स्मृति पिटारी के कोनों में तब से आज तक सहेजी पड़ी है । वह चोरी चोरी संगीत सीखने का अनुभव, बालगोपाल कृष्ण कन्हैया द्वारा गोकुल में गोप-गोपियों के घर से चुराए हुए माखन मिस्री की तरह बहुत मधुर था । संगीत के प्रति मेरी रूचि बढाने और उसे स्थिर करने में वह मेरा बड़ा सहायक हुआ । बहुत सी चीजें जो मैंने उन दिनों चोरी चोरी सीखीं थीं मुझे आज ७०-७५ वर्ष बाद भी ज्यों की त्यों याद हैं ।

मुझे यह भी याद है कि मेरी उषा जीजी के लिए कलकत्ते से हार्मोनियम मंगवाया गया था और उन्हें संगीत सिखाने के लिए म्यूजिक मास्टर की तलाश शुरू हुई थी । कानपुर में उन दिनों तो तीन संगीत के अध्यापक थे, जोगलेकर जी, बलवा जोशी जी और बोडस जी । इन तीनों में से नेत्रहीन श्री जोगलेकर जी हमारे घर के पास में रहते थे और उन्होंने उषा जीजी को संगीत सिखाना शुरू किया । उनसे जब मेरी दीदी सीखती थीं, तब मैं भी उनके निकट बैठ जाता था । तब उस ११-१२ की उम्र में आपके आजके यह बुज़ुर्ग मित्र 'भोला ', संगीत के नाम पर कुछ फिल्मी गाने जैसे "अछूत कन्या" का "मैं बन की चिड़िया", "बन्धन" का "चल चल रे नौजवान" और इसी टाइप के कुछ अन्य गाने कभी कभी गुनगुना लेता था ।

संयोगवश, शायद पूर्व जन्म के संस्कार एवं प्रारब्ध के कारण हमारे परिवार पर "वीणापाणी माँ सरस्वती" की असीम कृपा थी । बड़े भैया, बड़ी दीदी तो गाते ही थे, मैं भी अपनी अस्फुट बोली में ग्रामोफोन रेकोर्ड़ों के स्वर में स्वर मिला कर उनपर छपे गाने सीख लेता था । संगीत के अलावा मुझे याद है, दो सेट नाटक के थे - [१] वीर अभिमन्यू, जयद्रथ वध, [२], बिल्वमंगल सूरदास । टीन के दो रंगीन डिब्बों में ये तवे बहुत सम्हाल कर रखे गए थे । इनके अतिरिक्त ठाकुर ओंकार नाथ जी, पंडित विनायक राव पटवर्धन जी, पंडित डी. वी पलुस्कर जी तथा बिस्मिल्लाह खां साहब के शास्त्रीय संगीत के भी तवे थे । उनके गायन में शब्दों की न्यूनता के कारण बचपन में हम उनका उतना आनंद नहीं उठा पाते थे । एक गीत जिसे हम बार बार सुनते थे वह था, उस जमाने के मशहूर संगीतज्ञ पंडित नारायण राव व्यास द्वारा गाया गीत जो उस छोटी उम्र में ही मेरा मन छू गया था, तभी तो आज ८० वर्ष बाद भी वह मुझे सस्वर याद है ।

भारत हमारा देश है, हित उसका निश्चय चाहेंगे ।
और उसके हित के कारण हम कुछ न कुछ कर जायेंगे ।।

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

हनुमत-कृपा-आख्यान

बचपन में अपनी प्यारी प्यारी, पोपली (दंत मुक्ता हीन) मुखारविंद वाली, गोरी गोरी दादी ‘ईया” श्रीमती सूरजमुखी की गोदी में लेटे लेटे, उनकी गुड़गुड़ी की मधुर गुड़गुड़ाहट के बीच, मैंने जागते सोते, अपने पूर्वजों पर हनुमानजी की कृपा की ऐसी अनेकों कहानियाँ सुनीं थीं, जिनका विस्तृत विवरण पहिले ही दे चुका हूँ जिसमें एक अनजान व्यक्ति न जाने कहां से अचानक प्रगट होकर, विपत्ति के समय हमारे परिजनों की मदद करके अंतर्ध्यान हो जाता था । थोड़ा बड़े होने पर हमारे बाबूजी ( पिताश्री ) ने भी यही कहानियाँ वैसे ही दुहरा कर हमें सुनायीं । दादी और बाबूजी की, सभी कथाओं की भाषा में, शब्दों का कुछ अन्तर रहा होगा पर कथा की मूल भावना में कोई भेद नहीं था ।

इन विचित्र चमत्कारिक कथाओं को सुन कर, हमारे दादा, परदादा तथा पिताश्री पर विशेष अनुकम्पा करने वाले महाबीर जी के प्रति मेरी श्रद्धा और प्रीति दिन प्रतिदिन बढने लगी । मुझे भी अपने जीवन के हर पल में उनकी कृपा का अहसास होने लगा । मेरे जीवन के इन ८७ वर्षों में "मारुती नंदन" ने मेरी, कब किस क्षेत्र में कितनी और कैसी कैसी मदद की, उसका लेखा जोखा देना मेरी साधारण मानव बुद्धि के लिए असंभव है ।

प्रायः हम यह शिकायत करते हैं कि हमे वह नहीं मिला जिसे पाने की पूरी योग्यता हममें है । दुखों से घबड़ा कर कभी कभी हम भगवान पर भी दोषारोपण कर देते हैं । प्रभु की कृपा से प्राप्त सत्संगों में गुरुजनों से सुने श्रीमद्भागवत गीता के प्रवचनों से मुझे यह बोध हुआ कि जीव अपने पिछले जन्म में जो भी शुभ-अशुभ कर्म करता है उनके फल स्वरूप ही उसके अगले जन्म का, उसके कार्य क्षेत्र का एवं कर्मों का चयन होता है । इसके अतिरिक्त पिछले जन्म में शरीर छोड़ते समय मनमें जो भाव शेष रहते हैं उन्ही वासनाओं और अतृप्त तृष्णाओं को अपने मन में संजोये हुए जीव अपने अगले नये शरीर में प्रवेश पाता हैं ।

अंतिम समय तन त्यागता जिस भाव से जन व्याप्त हो ।
उसमे रंगा रह कर सदा, उस भाव ही को प्राप्त हो ।।

(गीता-अ-.८ श्लोक -६ )

मुझे अपने पूर्व जन्मों के संचित कर्मों और अंतकालींन भावनाओं के अनुरूप इस जन्म में एक तरफ जीवनयापन के लिये "चर्म शोधन" का कर्म मिला और दूसरी तरफ जन्म जन्मान्तर के संचित सुसंस्कारों के कारण इस जन्म में ईश्वर भक्ति, गायन संगीत, साहित्य स्रजन, शेरो-शायरी आदि विरासत में मिले ।

प्यारे प्रभु हमें यह दुर्लभ मानव जन्म देते हैं, मित्र-स्वजन-सम्बन्धियों से मिलवाते हैं, जिनके संसर्ग में हम आजीवन अनेकानेक अनुभव संचित करते रहते हैं और आनंदमय जीवन जीते हैं । मैं जिन लोगों के बीच में पाला पोसा गया, बड़ा हुआ, उन माता पिता, सगे भाई बहन, स्वजन संबंधी आदि से मुझे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन मिला । हनुमत कृपा, मातापिता एवं गुरुजनों के आशीर्वाद, उनकी सिखावन, उनकी बहुमूल्य दीक्षा से हम चारों भाई-बहिनों में परस्पर प्यार-दुलार, मनुहार-व्यवहार, आत्मीय विश्वास जैसे विशिष्ट गुणों का सम्वर्धन हुआ पर इन सबसे परे एक और विशिष्ट प्रतिभा का निखार हुआ, वह था संगीत प्रेम । संगीत-कला के प्रति निष्ठा और गायन के लिए मधुर कंठ तथा एक बार सुन कर राग रागनियों को सदा के लिए मन में बसा लेने की क्षमता तो प्रभु ने हम चारों को बचपन से ही दे दी थी ।

इतनी कृपा करी है तुमने कैसे धन्यवाद दू तुमको ।
मोल चुकाऊ किस मुद्रा मे सब उपकारो का मै तुमको ।।

लख चौरासी योनि घुमाकर, तुमने दिया हमे नर चोला ।
बुद्धि विवेक ज्ञान भक्ति दे, मेरे लिये मुक्ति पथ खोला ।।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

हनुमत -कृपा का अनूठा अनुभव

साउथ अमेरिका के एक केरेबियन देश में कैसे मेरे कुलदेव श्री हनुमानजी ने हवाई यात्रा के सम्भावित हादसे से मेरे जीवन की रक्षा की और फिर किस प्रकार "उन्होंने" "नन्हे फरिश्ते" के रूप में प्रगट होकर, मेरे और भारत देश के मान-सम्मान को धूमिल होने से बचा लिया, इसका मुझे अनूठा अनुभव हुआ । १९७५ से १९७८ तक मैं अपने परिवार के साथ, साउथ अमेरिका के एक छोटे से देश (ब्रिटिश) गयाना की राजधानी जॉर्ज टाउन में रहा । उस पूरे देश की आबादी भारत के एक बड़े शहर की आबादी से भी कम थी । देश की ५५ प्रतिशत आबादी भारतीय मूल की थी । भारतीय संस्कृति के प्रति वहाँ के निवासियों के हृदय में अपार श्रद्धा थी । वहाँ उतनी ही हर्षोल्लास से शिवरात्रि, दशहरा, दिवाली, होली, ईद, बकरीद मनाई जाती थी जितनी जोशोखरोश से कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के शिवालयों और ईदगाहों में ।

इन सभी गायनीज़ के पूर्वज भारतीय थे, जिन्हें अँगरेज़, पानी के जहाजों पर बैठा कर वहाँ उनके फार्मों में काम करने के लिए ले आये थे । वे सब जहाजी कहे जाते थे । भारत में वे किस शहर के थे, उनका धर्म, उनकी जाति क्या थी, अब आज उनके वंशज नहीं जानते हैं । उन्होंने तो अपने बचपन से अपने ही घर परिवार में किसी सदस्य को मंदिर जाते देखा, किसी को चर्च, तो किसी को नमाज़ अदा करते देखा । किसी पर कोई पाबंदी नहीं, कोई जोर जबरदस्ती नहीं । जिसको जो भाये जिस पर जिसकी आस्था जम जाए ; वही उसका धर्म-कर्म बन जाता । घर के कामकाज में कृष्णा की मददगार गायनीज स्त्री का नाम था, राधिका, जिसे होटल पेगशस के शेफ सलीम ने कृष्णा जी से मिलाया था । सलीम उसे दीदी मानता था । राधिका ने ही हमें उस देश के निवासियों की इस विशेष संस्कृति से अवगत कराया था ।

जॉर्ज टाउन गयाना के ऑफिस में एक दिन मेरे पास उस देश में नियुक्त भारत के राजदूत महोदय का फ़ोन आया कि किसी आवश्यक कार्य के लिये मुझे अगली सुबह ही उस देश के मन्त्री के साथ सुदूर दक्षिण के एक प्रदेश में दौरे पर जाना है। हाई कमिशनर साहेब् ने काम की अहमियत समझाते हुए उस देश के राष्ट्रपति के साथ अपने देश के प्रमुख अधिकारियों की कथित घनिष्ठता पर भी अपूर्व प्रकाश डाला और यहाँ तक बताया कि यह निमंत्रण मेरे लिए ये बड़े इज्ज़त की बात है, महत्वपूर्ण है ।

परिजनों के समवेत स्वरों में "प्रबिस नगर कीजे सब काजा, हृदय राखि कोसलपुर राजा" का गायन सुन कर मैं घर से निकला और नियत समय पर एयरपोर्ट पहुँच गया । हेंगर से तैमूरलंग के समान डेढ़ टांग से लंगड़ाते हुए भीम काय डकोटा विमान को खटर-पटर करते हुए हमारे सन्मुख खड़ा कर दिया गया । उसका रंग रूप और उसकी जर्जर चरमराती काया को देख कर मुझे आशंका ने घेर लिया कि या तो यह उड़न खटोला वहाँ से उड़ ही नहीं पायेगा और यदि इत्तेफाक से उड़ भी गया तो मंजिल तक पहुंचायेगा या नहीं । बोर्डिंग हो गयी । जहाज़ के कप्तान साहेब आये । दरवाज़ा बंद करते करते केवल हाय हेलो पुकारते हुए कॉकपिट में घुस गये । थोड़ी देर में स्वयं बाहर आकर यात्रिओं का स्वागत करते हुए उन्होंने उस यान के सामरिक इतिहास से हमें अवगत कराया । यह भी बताया कि कैसे १९४५ तक रॉयल एयर फ़ोर्स में अपना शौर्य प्रदर्शन करने के बाद लगभग २५ वर्षों तक अन्य मित्र देशों की सेवा कर के वह विमान अब इस देश की सेवा कर रहा था ।

मैं विमान की कुर्सी पर बेल्ट बांधे अपनी दोनों आँखे बंद किये इष्टदेव को मनाता रहा । थोड़ी देर में यान के इंजन चालू हो गये । प्रोपेलर घूमने लगे और वायुयान उसी तरह हिलता डुलता नाना प्रकार की आवाजें करता हुआ अपनी लडखडाती टेढ़ी चाल से रनवे पर सरकने लगा । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं पिछली शताब्दी के १९३०-४0 वर्षों में छोटी लाइन की रेलगाड़ी (B&NWR) के सुरेमनपुर स्टेशन से अपने पुश्तैनी गाँव बाजिदपुर तक की यात्रा अपनी खानदानी खटारा घोड़ागाड़ी से कर रहा हूँ ।

रनवे पर निर्धारित दौड़ लगा कर विमान, क्या कहते हैं उसे - "एयर बोर्न" हो गया । सहयात्रियों ने तालियाँ बजा कर अपनी प्रसन्नता दर्शायी और फिर "He is a jolly good fellow, He is a jolly good fellow" गा गा कर हमें लन्दन के अपने विद्या अध्ययन काल की याद दिला दी जब कोच पर केम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड की सैर करने जाने पर कोच के ड्राईवर को "जॉली गुड फेलो" कह कह कर विद्यार्थी गण थोड़ी बहुत मनमानी कर लेते थे । हाँ, यहाँ वायुयान में सहयात्रिओं के उस कोरस संगीत से हमें तो बड़ा लाभ हुआ । कम से कम उतनी देर के लिए हमारे कान विमान के बाहरी गम्भीर गर्जन और उसके भीतरी अंजर पंजर और ढीले ढाले पुर्जों से निकलने वाली भयंकर खड़खड़ाहट सुनने की सज़ा से हम कुछ देर को बच गये ।

जहाज़ उड़ता रहा और लगभग घंटे भर में हमें आकाश से ही वह नगर जहां हमें पहुचना था दिखायी भी देने लगा । अपनी खिड़की से ही हमें थोड़ी दूरी पर जंगलों के बीच एक धुंधली पगडंडी नजर आ रही थी जिसे सहयात्री उस एयरपोर्ट का रनवे बता रहे थे । हम मन ही मन भगवान को धन्यवाद दे रहे थे कि हमारी यात्रा का सुखद अंत हो रहा था ।

तब तक एयर पोर्ट और साफ़ नजर आने लगा था । विमान की रफ्तार शून्य सी थी । वह बहुत धीरे धीरे उस कच्चे रनवे पर उतरने का प्रयास कर रहा था । उस छोटे से एयरपोर्ट में रेड क्रॉस के एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ घंटा और सायरन बजाते हुए बेतहाशा इधर उधर दौड़ रहीं थीं l गन्तव्य स्थान के ऊपर विमान धीमी गति से काफी देर तक चक्कर लगाता रहा । फिर वह अचानक एक तरफ घूम गया और एक बहुत विशाल नदी के ऊपर उसकी धारा की दिशा में उड़ने लगा । हमारा माथा पुनः ठनका । चिंता और बढ़ गयी । क्या हमारा विमान उस सागर जैसी भयंकर नदी पर उतरने वाला है? और मुझे तो तैरना भी नही आता है । विमान में ऐसी परिस्थिति झेलने के उपकरण भी नहीं थे । मन ही मन मैं अपने आप को जल समाधि लेने के लिए तैयार करने लगा । तभी हमारी नाक में पेट्रोल की तीक्ष्ण गंध आने लगी । एक और चिंता हुई । क्या हमें जीते जी चिता में जलना है? इतने में कप्तान ने एलान किया कि यान का पेट्रोल नदी में गिरा कर उसे हल्का किया जा रहा है जिससे रनवे पर क्रैश लेंडिंग होने पर विमान में विस्फोट न हो और आग न लग जाये । चिंता थोड़ी घटी ।

जैसे ही पेट्रोल की गंध आनी खतम हुई, विमान घूम पड़ा और पुनः हवाई अड्डे के ऊपर उड़ने लगा l अत्याधिक सावधानी बरतते हुए, लगभग शून्य की गति से विमान ने रनवे को छुआ l एक भयंकर धक्का लगा । यात्री अपने आगे वाली कुर्सी पर बैठे यात्रियों से टकराये । केबिन भयभीत यात्रिओं की चीखों से गूँज उठा । सेफ्टी बेल्ट खुल गये, और यात्रिओं ने अपने अपने भगवानों से अपनी अपनी भाषा में सस्वर कृतज्ञता प्रदर्शित की । हमने भी मन ही मन अपने इष्टदेव को धन्यवाद दिया । शीघ्र ही विमान का द्वार खुल गया । कांपते कांपते एक एक करके सभी यात्री उतर गये । हमारा भयंकर स्वप्न टूट चुका था । पवनपुत्र ने, हमारे विमान की रक्षा के लिए कौन सा रूप धरा होगा यह तो वह ही जाने । पर मेरे ख्याल से हनुमान जी अति सूक्ष्म रूप में "प्रेरणा" बन कर हमारे विमान-चालक के मस्तिष्क में प्रविष्ट कर गये होंगे, वैसे ही जैसे वह सुरसा के मुख में चले गये थे और वही से हमारे चालक को एयर कंट्रोल टावर में बैठे कंट्रोलर के समान "सेफ लेन्डिंग" की उचित हिदायते दे रहे होंगे ।

गवर्नर हाउस में मुंह हाथ धोकर हम तुरत ही वहाँ गये जहाँ वह विशेष कार्यक्रम होने वाला था जिसमें भारत के राजदूत को अध्यक्षता करनी थी। पर अब वह कार्य मेरे कंधे पर डाल दिया गया था। एक बडा पंडाल था जिसमे सुन्दर बैनर्स और कागज़ की रंग बिरंगी झंडियाँ लगी थी, खाने पीने के लिए टेबल कुरसियाँ बाकायदा मौजूद थीं । एक स्टेज बना था जिस पर मुख्य अतिथि तथा मिनिस्टर और गवर्नर आदि के बैठने की व्यवस्था थी । हमारे पहुचते ही पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर बार बार एलान होने लगा कि कार्यक्रम शीघ्र ही शुरू होने वाला है । सभी सम्मानित अतिथियों ने पुनः अपना अपना आसन ग्रहण किया ।

स्टेज के आगे नीचे जमीन पर लाल नीली यूनिफ़ोर्म में पोलिस के सिपाही अपने चमचमाते स्टील बेंड पर झूम झूम कर मधुर एंग्लो एफ्रिकन धुने बजाने लगे । स्थानीय स्टील बेंड की टंकार भरी धुनें सुनते हुए हम ऊपर स्टेज पर लाये गये । बड़े आदर सत्कार सहित मुझे चीफ गेस्ट की बीच वाली ऊंची कुर्सी पर बैठाया गया । मेरा औपचारिक स्वागत हुआ, ताज़े फूलों का एक सुंदर बुके प्रदान किया गया । मैं ये समझ नहीं पा रहा था कि मुझे उतना आदर- सम्मान किस कारण मिल रहा है । लेकिन उस समय वह सब बहुत अच्छा लग रहा था । इतनी प्रतिष्ठा अनायास ही मेरी झोली में पड़ रही थी । परम पिता की इस विशेष अनुकम्पा के लिए मैं मन ही मन उनका स्मरण करके उन्हें धन्यवाद दे रहा था । पर मुझे तब तक यह नहीं ज्ञात था कि मुझे वहाँ कौनसा विशेष कार्य करना है ।

सोच ही रहा था कि मैं मिनिस्टर साहब से यह जानकारी लूं कि वह कौन सा अति आवश्यक काम है जिसके लिए यह मजमा जमा किया गया । मिनिस्टर साहेब ने अपनी तकरीर में एलान कर दिया कि "ब्रिटिश और भारत सरकारों के आर्थिक और तकनीकी मदद से देश की जनता को खाने के लिए उत्तम क्वालिटी का हाइजीनिक साफ़ पशु-मांस उपलब्ध कराने के लिए एक आधुनिक उपकरणों से युक्त नया Slaughter House, उसी स्थान पर बनेगा जहाँ हम उस समय बैठे थे । इस बूचर खाने में पशुओं पर कोई अत्याचार नही होगा और जानवरों को कम से कम कष्ट देकर, सुन्न (बेहोश) करने के बाद जबह किया जाएगा और उसके बाद उनकी खाल उतारी जायेगी" ।

उसके बाद उन्होंने बगल की मेज़ पर रखा रंगीन गिफ्ट रेप पेपर में लिपटा बड़ा सा डिब्बा मंगवाया । प्रादेशिक गवर्नर महोदय ने उसका रिबन काटा । डिब्बा खुला तो उसमे इंग्लॅण्ड की बनी हुई एक नली बन्दूक और एक ऐसा यंत्र निकला जिसमें से हवा का जेट बहुत ही वेग के साथ निकलता था । इन दोनों यंत्रों को प्रदर्शित करने के बाद मंत्री महोदय ने मेरी ओर देख कर मुस्कुराते हुए कहा "Now, Comrade Srivastav, you may take over." उनका अनुरोध था कि मैं उस विशेष "गन" में गोली भर कर नीचे पंडाल के दूसरे छोर पर खूँटे से कस के बँधी उस प्यारी प्यारी शंकर जाति की गाय को हलाल करूं । वह चाहते थे कि एक हिन्दू जो गाय को माता मान कर उसकी पूजा करता है, अपने हाथों से ही अपनी गौ माता की हत्या करे । यह तो मेरा अनुमान था कि मैं "बलि का बकरा" बनने जा रहा हूँ । पर मेरा प्रियतम प्रभु मुझसे क्या करवाना चाहता है अथवा "उसके" मन में क्या है यह उसके सिवाय कोई भी नहीं जान सकता है, फिर मै नादान कैसे जानता? 

मिनिस्टर महोदय का एलान सुन कर मैं अंतर तक काँप गया । मैं एक निष्प्राण पत्थर की मूर्ति सा कुर्सी से चिपका बैठा रहा । मेरी परेशानी समझते हुए उस प्रांत के ब्रिटिश मूल के श्वेत गवर्नर ने मिनिस्टर से कदाचित यह कहा कि भारतीय हिन्दू गौ हत्या को पाप समझते हैं ।, मंत्री महोदय नाराजगी दिखाते हुए स्वयं गन लेकर उधर की ओर चल पड़े जिधर गाय बंधी थी । स्टेज के सभी वी आई पी अतिथि भी उनके पीछे चल दिए । औपचारिकता निभाते हुए मैं भी उनके साथ हो लिया | नीचे उतर कर हम सब उस श्वेत-श्यामल वर्ण वाली सुंदर गाय को घेर कर खड़े हो गये | अपनी इन्ही आँखों से मैंने देखा था कितना प्यार भरा था गौमाता की प्यारी प्यारी, बड़ी बड़ी कजरारी आँखों में । वह हम सब की ओर बहुत प्यार से देख रही थी बिल्कुल वैसे ही जैसे कि चारों धाम की यात्रा पर जाने से पहले एक वयोवृद्ध माँ यह सोच कर कि न जाने उस यात्रा से वह लौट पाएगी या नहीं  । बड़े प्यार से अपने सपूतों को निहारती हुई उन पर आशीर्वाद की झड़ी लगाती है । तभी हम सब के सामने, मिनिस्टर साहेब ने गाय के माथे पर गोली दाग दी । जो हुआ और जो इन आँखों ने देखा वह मैं बयान नहीं कर पाऊँगा । उसका ख्याल आते ही आँखें भर आती हैं और कंठ अवरुद्ध हो जाता है । केवल इतना याद है कि बांस के डंडों के सहारे गर्दन टेके निर्जीव गौ माता की खुली हुई आँखों से तब भी आशीर्वाद के अश्रु-कण झाँक रहे थे ।

उपहार स्वरूप इंग्लॅण्ड से आयी स्कॉच का एक कार्टन खोला गया । मिनिस्टर महोदय ने उसमे से एक बोतल खोली और उनकी सेक्रेट्री महोदया ने बियर के क्रेट में से अनेक बोतलें खोलीं और आगंतुकों में प्रेम से वितरित कीं । स्टील बैंड पर फिर से करीबियन-क्रियोली गीतों की धुनें गूँज उठी । नयी इम्पोर्टेड गन से मंत्री जी के हाथों हुई उस "गौ हत्या" समारोह के निर्विघ्न समापन की खुशी में १०-१५ मिनिट तक सभी लोग चुस्कियां ले लेकर नाचते गाते रहे ।

अभी विलायत से प्राप्त एक और आधुनिक यंत्र का उद्घाटन होना शेष था । आयातित यंत्रों के डिब्बे में से वह विशेष यंत्र भी निकाला गया । स्थानीय परम्परा के अनुरूप, उस नये यंत्र पर "बियर" के छीटें डाल कर उसका पवित्रीकारण किया गया ।

उसके बाद मंत्री महोदय ने मदिरा की बूंदों से पवित्र किया हुआ वह यंत्र मेरी ओर बढाते हुए माईक पर एलान किया "So, it is your turn now, Comrade Srivastav, to demonstrate the efficacy of this instrument which the foreign Government has so kindly gifted us." मैंने इससे पहिले कभी वह मशीन देखी भी नही थी, चलाना तो दूर की बात है । उसके साथ के कागज़ जल्दी जल्दी पढ़ कर मैंने जाना कि वह यंत्र, पशुओं की खाल उतारने के लिए उस विकसित देश में हाल में ही बना है और उसका प्रेक्टिकल ट्रायल करने के लिए उसे पिछड़े देशों में भेजा जा रहा है । मैं उस समारोह में अपने देश के राजदूत को रिप्रेज़ेन्ट कर रहा था । इस स्थिति में मुझे मंत्री महोदय की बात दुबारा टालना अनुचित लग रहा था । बिजली के तार से वह यंत्र पावर पॉइंट से जोड़ दिया गया और मैं वह यंत्र हाथ में ले कर स्टेज से नीचे उतरा और बांस की बल्लियों पर उलटी लटकी गाय की निर्जीव काया की ओर चल पड़ा । मेरे मन में विचार-शक्ति और कर्म-शक्ति का भयंकर संघर्ष हो रहा था मैं मन ही मन अर्जुन की भांति अपने प्रियतम प्रभु से प्रार्थना कर रहा था ---

आया शरण हूँ आपकी मैं शिष्य शिक्षा दीजिए ।
निश्चित कहो कल्याण कारी कर्म क्या मेरे लिए ।।

मैं जो काम करने जा रहा था, मैंने अपने इस जीवन में, वैसा कार्य पहिले कभी नहीं किया था । सच पूछिए तो मैंने किसी और को भी वैसा काम करते कभी नहीं देखा था । "मैं कैसे करूँगा यह? " मैं भयंकर धर्म संकट में था । मैं अस्थिर, लडखड़ाते कदम से, काँपते हाथों में वह यंत्र थामे, धीरे धीरे सूली पर लटकी प्राणहीन गाय की ओर बढ़ रहा था । आठ दस कदम ही बढ़ पाया था कि कानों में किसी बच्चे की मीठी आवाज़ पड़ी । ऐसा लगा जैसे कोई छोटा बच्चा पीछे से किसी अपने को पुकार रहा है । मुझे कौन पुकारेगा? यह सोच कर मैंने उसकी पुकार अनसुनी कर दी और धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा । पर उस ने मेरा पीछा न छोड़ा । शायद वह मुझसे ही कुछ कहना चाहता है यह सोच कर मैं रुक गया । 

पीछे मुड़़ कर देखा तो एक लगभग ३ फुट ऊंचा ७-८साल का बालक मेरे पीछे खड़ा था । खाकी निकर और हाफ शर्ट पहने एक अनोखे रंग रूप वाला वह न तो योरोपियन लग रहा था,  न एशियन, न अमरीकी रेड इंडियन, न हम भारतियों जैसा ही । वह जिद करने लगा कि मैं वह यंत्र उसे दे दूँ । वह उस यंत्र से वही कार्य कर दिखाना चाहता था जिसे करने में मैं असमर्थ था । उसने मेरी ओर हाथ फैला कर उस आयातित नये यंत्र को मुझसे वैसे ही मांगा, जैसे कोई छोटा बच्चा, नया खिलौना देख कर उससे खेलने के लिए मचलता है । मेरे और निकट आकर उसने शुद्ध अंग्रेज़ी भाषा में मुझसे कहा " Sir! Pass that on to me, I shall do it for you " और उसने बार बार अपना यह अनुरोध दुहराया, "सर, मुझे दे दीजिये ये मशीन । मैं आपकी ओर से इसे चला कर दिखाऊंगा, मेरा विश्वास करिये, मैं इसे चलाना जानता हूँ " I shall do it for you, I know how to operate this machine. Sir Believe me, I can do it." मुझे उसकी बात पर भरोसा नहीं हो रहा था । उस देश का एक आठ दस साल का वह नन्हा बालक, वह बिजली से चलने वाला धारदार यंत्र चलाना चाहता है । कैसे विश्वास करता कि वह यंत्र जिसका विकास योरप में उसी वर्ष हुआ था और वह उस देश में कुछ दिन पहिले ही आयात किया गया था वह बालक चला पायेगा । 

उसके इसरार के कारण मैं बड़े धर्म संकट में पड़ गया था । उसकी आँखों की विचित्र चमक में निहित उसके अदम्य आत्म-निश्वास ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या मैं उसपर भरोसा कर सकता हूँ । बालक शायद मेरी असमंजसता भांप गया । उसने नीचे से मेरा शर्टजेक खेंच कर एक बार फिर गिडगिडाते हुए कहा कि मैं उसे वह यंत्र चलाने दूँ वह मुझे निराश नहीं करेगा । ("Let me do that for you Sir. I shall not betray your confidence." ) कुछ पल रुक कर वह फिर बोला कि उसने यह यंत्र बखूबी चलाया है । इसके साथ ही उसने वह मशीन मुझसे झपट कर ले ली । एक झटके में ही उसने मशीन का स्विच ओंन कर दिया, मशीन पावर पॉइंट से कनेक्टेड थी, चल पड़ी । तुरत ही स्विच ऑफ कर के उसने मशीन मुझे लौटा दी और मेरी आँखों में देखते हुए जैसे प्रश्न किया कि अब भी विश्वास हुआ या नहीं? ("Do you believe me now Sir "?) मैं अवाक् था, मुझे विश्वास हो गया कि अवश्य ही कोई असाधारण बालक है । उसकी वाणी और उसकी आँखों की चमक में एक असाधारण चारित्रिक बल और अदम्य आत्मविश्वास झलक रहा था ।

सम्मोहित सा होकर मैंने स्टेज से माइक मंगवाया और यह एलान कर दिया कि बड़ी सौभाग्य की बात है कि उस देश का ही एक नन्हा नागरिक वह काम कर दिखाना चाहता है जिसके लिए मुझे आमंत्रित किया गया है, उसे अवसर देना चाहिए । (" Comrades! It is a matter of great pride and honour for this country that we have amongst us, a young man who is offering to demonstrate the working of this newly imported machine and I feel we should not deny him this honour. May I with your approval, Comrades, pass on the machine to him.") तालियाँ बजीं, सब प्रसन्न थे कि जिस कार्य के लिए विदेशी एक्सपर्ट बुलाये गये थे वही कार्य उस देश का एक बच्चा करने जा रहा था । बालक ने बड़ी कुशलता से मशीन चलाई ।

अपना मानव जीवन बड़ा विचित्र है, यहाँ हमें जब जो भी करने का आदेश, ऊपर मुख्यालय से मिले उसका पालन करना ही पड़ता है । किसी की अपनी तो यहाँ चलती ही नहीं, वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है । उस विलक्षण बालक ने मेरे मन में छिड़ा "भावना-कर्त्तव्य" युद्ध तत्काल शांत कर दिया था । उसने न जाने कहां से अकस्मात प्रगट हो कर खेल खेल में वह काम कर दिया था जो कि वास्तव में मुझे करना था । उस काम को कर के उसने न केवल मुझे अकर्मण्यता के अपमान से बचाया था, बल्कि उसने हमारी भारत सरकार को भी वहाँ की सरकार के साथ हुए द्विपक्षीय समझौता भंग करने का गुनहगार होने से बचा लिया ।

एक बार फिर तालियों की आवाज़ से सभागृह गूँज उठा । जनता ने उस बालक को घेर लिया और मिनिस्टर साहेब ने सम्बंधित सरकारी विभाग को आदेश दिया कि नये स्लॉटर हाउस के बन जाने पर उसमें उस होनहार बालक को उचित नौकरी दी जाये । तुरत ही विभागीय अधिकारियों ने उसका नाम, अता-पता, पूछ कर नोट कर लिया । स्टील बैंड एक बार फिर बजा, पूरे जोश के साथ नाच गाना हुआ । केक कटा, नाना प्रकार के सामिष भोज्य पदार्थ परसे गये,, सबने जी भर के खाया पिया । सब मस्ती में झूम रहे थे । मेरी निगाह, जनता की भीड़ में उस नन्हे फ़रिश्ते को खोज रही थी । पर वह कहीं नहीं दिखा । हमारे सारे प्रयास निष्फल रहे । तीन फुट का वह नन्हा फरिश्ता जो काले बादलों में छुपी बिजली की भांति बस एक बार आकाश से उतरा, मुझे मेरे धर्म संकट से उबारा और फिर उसी शीघ्रता से कहीं और चला गया । उसके इन उपकारों के कारण मैं हृदय से उसका अति आभारी बन गया था । पर विडम्बना तो देखिये कि न तो मैं उसे धन्यवाद दे पाया और न किसी प्रकार मैं उससे अपना आभार प्रगट कर सका क्यूंकि वह वहाँ से अचानक अदृश्य हो गया था । मैं ही अकेला नहीं, मेरे सभी संगी-साथी आश्चर्यचकित रह गये । आश्चर्य तो यह जान कर हुआ कि उस हुलिए का कोई बालक उस इलाके में कभी देखा ही नहीं गया । मन में वही प्रश्न उठता रहा कि कौन था वह, कहाँ से आया था और अचानक ही कहां चला गया?

कौन था वह अजनबी, कौन था वह फरिश्ता, जिसने मेरी रक्षा की, कहाँ अंतर्ध्यान हो गया, एक रहस्यमय प्रश्न बन गया । मेरी अनुभूति यह विश्वास दिलाती है कि slaughter house के उद्घाटन के समय जो घटना हुई वह मात्र एक अनहोनी, coincidence अथवा कोई जादू, या चमत्कार नहीं था, वह वास्तव में हम पर हुई हमारे कुलदेवता की विशेष कृपा का एक जीवंत उदाहरण था । वह मेरे कुलदेवता संकटमोचन श्री हनुमानजी ही थे जिन्होंने मेरे प्रपितामह को झूठे दोषारोपण के केस में मिलने वाले मृत्युदंड से बचाया फिर उन्हीं का तीर्थ यात्रा का गंतव्य बदल कर श्री जगन्नाथजी की त्रिमूर्ति के सामने प्राण त्यागने का विधान पूर्ण किया, जो मेरे पिताश्री का मार्ग प्रदर्शित कर गये थे और अब मेरे लिए नन्हे फरिश्ते के रूप में प्रगट हुए थे ।

कहो उरिण कैसे हो पाऊं, किस मुद्रा में मोल चुकाऊं ।
केवल तेरी महिमा गाऊं, और मुझे कुछ भी न आता ॥


गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

आजीविका अर्जन के क्षेत्र का चुनाव

नहीं कह सकता आपको अब तक विश्वास हुआ कि नहीं कि हमारी हर एक सफलता के पीछे एक अनदेखी शक्ति का हाथ होता है । किसी किसी सौभाग्यशाली, प्रभु के प्यारे व्यक्ति विशेष को उस अदृश्य शक्ति का दाता कभी कभार नजर भी आ जाता है, लेकिन प्राय: ऐसा होता है कि लोग अपनी सफलता के उल्लास में विजय का समूचा श्रेय स्वयं को दे देते हैं और उस अदृश्य "शक्ति दाता" को बिल्कुल ही भुला देते हैं । परन्तु मेरे बाबूजी उस देवपुरुष को, जिनके मार्गदर्शन ने उनका जीवन संवारा था, आजीवन भुला नहीं पाए । तभी तो मुझे प्रोत्साहित करने के लिए १९५० में अपनी वह "हनुमत-कृपा की अनुभव-कथा" मुझे कह सुनायी । उसे सुनाते समय वह इतने भाव विभोर हुए कि उनका कंठ रुंध गया, उनकी आँखें भर आयीं । उनकी इस "अनुभव-कथा" से प्राप्त मार्ग दर्शन और प्रेरणा ने मेरा व्यक्तित्व, मेरे आदर्श, मेरा जीवन दर्शन, मेरी भावनाएं, मेरी आकांक्षाएं -- सभी को समूल बदल डाला ।

यथार्थ स्थिति यह थी कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद सारे विश्व की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी थी । भारत को बुरी तरह लूट कर और उसको दो टुकड़ों में बाँट कर ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ कर जा चुकी थी । युद्ध के समय भारत में जो छोटे बड़े हजारों कारखाने आयुध एवं अन्य सामग्री बनाने के लिए चालू हुए थे, एक एक कर बंद हो गये थे । शहरों में बेकारी और गाँव में भुखमरी मुंह बाए जन साधारण को त्रस्त कर रही थी । ऐसे में, मैं सन १९५० में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी से केमिकल इंजिनीअरिंग की डिग्री प्राप्त कर कानपुर आया और काफी दिनों तक बेरोजगार बैठा रहा । 

तब मेरे जीवन में भी कुछ ऐसी ही समस्या आ गयी जैसी मेरे पिताश्री को रंगरेजी की पढायी करते समय हुई थी । जब जज, मजिस्ट्रेट, एडवोकेट, वकील, मुख्तियार, अध्यापको के परिवार के, और श्री चित्रगुप्त वंशीय मुंशियों के होनहार सपूत हमारे पिताश्री "रंगरेज़" बनने जा रहे थे, खानदान में, पडोसिओं में, जाति बिरादरी वालों में, काफी मजाक उड़ा था । हितेषियों ने सहानुभूति जताते हुए भोजपुरी भाषा में कहा " राम राम कायस्थ हो के रंगरेजी करिहें । ई ता अच्छा भइल कि महाबीर जी के किरपा से इनके बियाह हो गईल बा, ना ता के देत इनका के आपन लडकी," ऐसा था हमारे समाज का चिंतन और ऐसी थीं हमारी मान्यताएं तब उस जमाने - १९१५-१६ में ।

मैं अपने परिवार का छोटा और अविवाहित पुत्र था । इस कारण, सर्विस पर मुझे कानपुर से कहीं दूर भेजने के लिए घर वाले तैयार न थे और हालत यह थी कि उन दिनों पूरे विश्व के "जॉब मार्केट" में भयंकर मंदी चल रही थी । अपने देश में आज़ादी प्राप्ति के बाद १९५० तक मंत्री बने नेताओं की कृपा से आवश्यकता से अधिक लोग सरकारी कामों में लग चुके थे । कानपुर की निजी कम्पनियाँ और मिलें भी बंद हो रहीं थीं । कहीं भी नौकरियां उपलब्ध नहीं थीं । कितने महीने गुजर गये । 

महीनों की बेकारी के बाद एक सरकारी चर्म उद्योग से मुझे ऑफिसर्स एप्रेंटिस की जॉब का ऑफर आया । १९१५ में हमारे पिताश्री खानदानी लिखा पढ़ी का पेशा छोड़ कर मिल कारखाने में "रंगरेज़" का काम करने गये थे और १९५० में मैं "चर्म शोधन" का कार्य करने जा रहा था । परिजन भूले नहीं थे कि पिताश्री की रंगाई की पढाई के पीछे कितना हल्ला गुल्ला मचा था । मेरे "चर्म शोधन" कार्य में लगने पर मेरा क्या हश्र होगा इसकी चिंता सबको सताने लगी ।

एक २० वर्ष का होनहार युवक जिसकी हिन्दी गीत रचनाएँ तब आकाशवाणी के प्रमुख कलाकारों द्वारा गायीं जाती थीं, जिसके प्रतिभाशाली शिष्य आकाशवाणी व फिल्मों के नामी गायक बने, एकाध फिल्मों एवं केसेट कम्पनियों के संगीत निदेशक भी बन गये, वह युवक रोज़ी रोटी के चक्कर में चर्म उद्योग में एप्रेंटिसशिप करने जा रहा था ।

उस समय कुल देवता श्री हनुमानजी की प्रेरणा से पिताश्री ने मेरा मार्ग दर्शन करते हुए समझाया कि कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता । संसार में सब जीवों को अपने अपने प्रारब्धानुसार और विगत जन्मों की कमाई के अनुसार वर्तमान जन्म में जीवन जीने के विभिन्न साधन और विविध सुविधाएं प्राप्त होती हैं । आवश्यक नहीं कि एक परिवार में सभी प्राणी एक से गुणों के स्वामी हों, एक से काम करें, एक सी कमाई करें, इसलिए वर्तमान काल में, प्यारे प्रभु, तुमसे जो कार्य करवाना चाहते हैं उसे सहर्ष स्वीकार कर, उसे प्रभु का आदेश, प्रभु की सेवा मान कर अपनी पूरी योग्यता, बल बुद्धि लगा कर उत्साह के साथ करो ।

"मेरे प्यारे प्रभु" ने मुझे जो काम सौंपा, मैंने उसे शिरोधार्य किया और ६० वर्ष की अवस्था तक "उनके" द्वारा निर्धारित, वह तथाकथित नीच काम करता रहा । मैंने कभी कोई गिला शिकवा नहीं किया । शायद संत रैदास जी के कार्य से भी कई स्तर नीचे का कार्य मुझे सौंपा गया था । रैदास जी तो पके हुए चमड़े के जूते बनाते थे - लेकिन मुझे गाय-भैंस और भेड़-बकरियों की कच्ची खाल को पका कर उसमे रंग रोगन लगा कर उसे जूता बनाने लायक चमकदार चमड़े का स्वरूप प्रदान करने का काम मिला था । सप्ताह के छः दिवस, प्रात ७ बजे से शाम के ५ बजे तक उस आयुध निर्माणी की ऊंची ऊंची दीवारों के पीछे, फौजियों के लिए 'आर्मी बूट' बनाने और उन बूट्स के लिए, गाय भैंस की कच्ची 'खालों' [Hides and skins] का शोधन [Tanning] करवाकर, उनसे 'चमड़ा' [ Leather] बनवाने के काम में व्यस्त रहने लगा ।

सोचा था क्या, क्या हो गया? आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास । सोच यह थी कि ऑयल टेक्नोलोजी पढ़ी है, डिग्री लेने के बाद, "केंथरायडीन " जैसा खुशबूदार हेयर आयल और "पियर्स" जैसा ट्रांसपेरेंट बाथ सोप बनाने का कारखाना लगाएंगे । पर हुआ यह, कि चमड़ा पकाना पड़ा । और फिर उपरोक्त लोकोक्ति चरितार्थ करने के लिए मैं, कारखाना लगाने और ईश्वर प्रदत्त संगीत-कला की साधना के स्थान पर " कपास ओटने लगा" । ऑयल टेक्नोलोजिस्ट, संगीतनिदेशक - सिने कलाकार - बनने का स्वप्न संजोये "भोला", बन गया "रैदास" ॥ "रोज़ी रोटी कमाने के लिए 'भोला' पकाने लगा चमड़ा ।" कुछ निकटतम सम्बन्धी ताने भी मारने लगे, " इनके पिताश्री अपने व्यापार में, बाहर से १००, सवा सौ रूपये के मेट्रिक पास कर्मचारी नियुक्त करते हैं और ये यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट भोला बाबू, ८५ रूपये वाली सरकारी गुलामी कर रहें हैं, वो भी एक चमड़े के कारखाने में ।" देख रहे हैं आप कि मेरे कुलदेवता ने मुझे कहाँ कहाँ घुमाया, किस किस घाट का पानी पिलाया? परन्तु अन्ततोगत्वा उसने अपने इस भोले बालक को उसके गंतव्य तक पहुँचा ही दिया ।

यहाँ यह विचारणीय है कि मेरी और मेरे पिताश्री की आजीविका अर्जन के क्षेत्र के चुनाव की अनुभव कथा में कितनी समानता है । मेरे पिताश्री के समक्ष उनके इष्टदेव महावीरजी अनजान देवपुरुष के रूप में साकार प्रगट हुए, उनका मार्ग प्रदर्शित किया, उनके जीवन का प्रेय निश्चित किया और मेरे समक्ष मेरे कुलदेवता हनुमानजी पिताश्री की वाणी में सूक्ष्म रूप में अवतरित होकर मेरा मार्ग दर्शन कर गये और मेरी आजीविका के अर्जन का मार्ग चुन गये । 

अपने जीवन में पिताश्री अवैतनिक एप्रेंटिस से अपनी कम्पनी के चेयरमेन कम मैनेजिंग डायरेक्टर बने और इष्टदेव की कृपा से मैं एक साधारण अंडर ट्रेनिंग ऑफीसर से लेदर एक्सपर्ट बना तथा अन्तोगत्वा पिताश्री के समान ही भारत के सबसे बड़े सरकारी "चर्म शोधन कारखाने" का चेयरमैन कम मेनेजिंग डायरेक्टर बना ।

ऑयल टेक्नोलोजी, जिसमे मैंने कॉस्मेटिक प्रोडक्ट बनाने में दक्षता प्राप्त की थी, उसमें ग्रेजुएट हो जाने के बाद जानवरों की कच्ची खाल को पका कर चमड़ा बनाने का काम ही "मेरे इष्ट देव राम और कुलदेवता श्री हनुमान" ने मेरी आजीविका के लिए चुना था । मैंने "उनकी" आज्ञा का पालन किया और "उनकी" कृपा देखिये "उनका" वरद हस्त मेरे माथे पर सदा सर्वदा बना रहा । अपने कार्य काल में १९७५ में भारत सरकार ने मुझे दो वर्ष के लिए दक्षिण अमेरिका के एक प्रदेश गयाना में विदेशी सरकार का औद्योगिक सलाहकार बना कर एक चमड़े का कारखाना लगवाने के लिए नियुक्त किया, जहां १९७६ में अष्टसिद्धि नवनिधि के अधिपति पवनपुत्र श्री हनुमान जी ने ही "नन्हे फरिश्ते" के रूप में प्रगट होकर साउथ अमेरिका के उस कैटल स्लॉटर हॉउस में मुझे गौ हत्या जैसे दुष्कर्म से बचाया और भारत के सम्मान की रक्षा की ।

बिन माँगे हनुमत देते हैं फिर काहे को अनत जाइये ।
हमसे ज़्यादा उन्हें पता है, हमको क्या सौगात चाहिए ।

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

पिताश्री पर हनुमत कृपा

बीसवीं शताब्दी के शुरू में भारत की आबादी लगभग ३०-३१ करोड़ थी । तब इस देश पर ब्रिटिश सम्राट जोर्ज पंचम का एक-छत्र आधिपत्य था । उन दिनों जब अँग्रेज़ी मिल्कियत के बड़े बड़े कल कारखाने, मिलें, रेल कम्पनियां, खदानें, चाय बगानें, ट्रेडिंग कम्पनियां और सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ी शासन-तन्त्र दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे थे, तब सोने की चिड़िया भारत के नन्हे नन्हे बच्चे अपनी लुटी हुई माँ के उजड़े घोसले में भूखे प्यासे बैठे तत्कालीन अन्धकार में कोई ऐसी रजत रेखा खोज रहे थे जिसके प्रकाश में वह अपना भविष्य सँवार सकें ।

तत्कालीन स्थिति यह थी कि उन दिनों अधिक प्रभावशाली जमींदार, तालुकेदार परिवारों के प्रतिभाशाली युवकों को विलायत जा कर विद्याध्ययन करके "बार एट ला" से विभूषित हो कर "आई सी एस" आदि सेवाओं में आकर सीधे कलक्टर, जिला जज, पुलिस कप्तान या आर्मी कमांडर बन कर दिखाने का चैलेंज दिया जाता था। ऐसी ही परिस्थिति में हमारे पिताश्री के दो बड़े भाई तब तक मुख्तियार और मुंसिफ बन चुके थे । पर उन्हीं दिनों ग्रेजुएट न होने के कारण हमारे पिताश्री का एडमीशन नहीं हो पा रहा था, जिसके कारण उन्हें बहुत लज्जित होना पड़ा था । वे अपनी असफलताओं से उत्पन्न ग्लानि में डूबे हुए थे और यह निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि ऐसी स्थिति में अब वह कहाँ जाएँ और, क्या करें? केवल दो जगह जा सकते थे । या तो आजमगढ़ अपने बड़े भाई सब-जज बाबू हरिहर प्रसाद जी के पास या बलिया अपने बड़े भैया बाबू हरनंदन प्रसाद जी (प्लीडर) के पास । यह सोच कर कि उन्हें आजमगढ़ में जज भैया की राय बात से भविष्य की योजना बनानी है, वह बलिया से आजमगढ़ के लिए चल दिए थे ।

आज से सौ, सवा सौ वर्ष पहले, बलिया जैसे पिछड़े जनपद के उस होनहार बालक ( हमारे १७-१८ वर्षीय पिताश्री ) जिसने बलिया, गाजीपुर, सुरेमनपुर, पटना के अतिरिक्त और कोई जगह देखी ही न थी, जो स्कूली पढायी के अलावा और कुछ जानता ही न था, उसकी मनःस्थिति वैसी विषम परिस्थिति में कितनी अस्थिर रही होगी, अनुमान लगाना कठिन है ।

किम्कर्तव्यविमूढ़ से हमारे पिताश्री आजमगढ़ कचहरी के पिछवाड़े वाली कच्ची सड़क पर स्थित प्राचीन कुँए की लखौरी ईटों वाली खंडहर हो रही जगत पर उदास बैठे थे । मुगलों या अवध के नवाबों के जमाने के उन खण्डहरात की तरह हमारे पिताश्री को उनके अपने भविष्य के सपनों का भग्नावशेष भी उतनी ही बेतरतीबी से बिखरा हुआ वहाँ दिखायी दे रहा था । उन्होंने अटूट श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने कुलदेवता श्री ह्नुमानजी का सिमरन किया प्रार्थना की ---

"जय जय जय हनुमान गोसाईं,
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं"

उनकी पुकार सुन ली गयी। उनकी प्रार्थना चल ही रही थी कि किसी ने पीछे से पिताश्री के कंधे पर हल्के से थपथपाया । पिताश्री ने चौंक कर पीछे देखा और संभल कर उस आगंतुक से पूछा " कहिये, क्या बात है?" ठेठ अवधी भोजपुरी में वह बोला "आप कहो बाबू, आपकेर कौन बात है, जोन आप इहाँ उहाँ, लुक्का छुप्पी खेल रहे होऊ । जावो घरे लौट जाओ" । स्थानीय जज साहब के छोटे भाई थे, चुप क्यों रहते, थोड़े अभिमान से पिताश्री ने उन्हें उत्तर दिया " हम कहीं भी उठें बैठें, तुमसे क्या, तुम पानी पीयो और अपना रास्ता पकड़ो" । आगंतुक ने भी कुछ गुस्से के साथ उनसे कहा "बाबू कौउ तुम्हार रस्ता देखत होई और तुम इहाँ मुंह छुपाये बैठ हो, जाओ घरे लौट जाओ" । पिताश्री चौंक गये । कौन है यह अजनबी, जो इतना अपनत्व दिखा रहा है और इतनी गम्भीरता से उन्हें आदेश दे रहा है? पिताश्री पुनः चिंता में डूब गये । वह व्यक्ति था कि बोले ही जा रहा था । "का बदुरी बाबू, काहे पलात फिरत होऊ इहाँ से उहाँ । बलिया वारे वकील भइया से बहुत डेरात होऊ, एह खातिर इहाँ जज भइया के पास भाजि आये होऊ । का होई भागे भागे, कछु आगे केर बिचारे के च ही"।

उस अजनबी के विचित्र हावभाव और आदेशात्मक वक्तव्य से पिताश्री को ऐसा लगा जैसे वह व्यक्ति उनके परिवार का कोई अति वरिष्ठ स्वजन है जो "हरबंस भवन" परिवार वालों की सभी गतिविधियों से भलीभांति परिचित है । पिताश्री के लिए सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि उन्होंने अपने १७ - १८ वर्ष के जीवन में उस व्यक्ति को उस दिन से पहले, कहीं भी और कभी भी नहीं देखा था । आश्चर्य के साथ साथ अब पिताश्री के हृदय में उस व्यक्ति के प्रति थोड़ी थोड़ी श्रद्धा जाग्रत हो रही थी । अपनत्व प्रदर्शित करते हुए पिताश्री ने उस अजनबी व्यक्ति से कहा, "बाबाजी आपने पानी तो पिया ही नहीं, बड़ी गर्मी है, थोड़ा पनापियाव हो जाये" । मुस्कुराते हुए वह व्यक्ति बोला "का बाबू सुख्खे पानी पियईहो ? क्छू ख्वईहो नाहीं का ? आज मंगरवार है, महाबीर जी के दीन है, हम बिना परसाद पाए कुछु खात पियत नहीं हन । जाओ बाबू, पांच पैसा के गुड़ चबेना के प्रसाद चढाय लावो, जब लगी हम कुइयां से जल काढ़त हन "

पिताश्री तुरत चल पड़े । वहीं कुँए के पास वाली भडभूजे क़ी दुकान से उन्होंने पाँच पैसे का गुड़-चबेना लिया और कचहरी के गुमटी पर स्थित हनुमान मन्दिर की मूर्ति पर चढ़ाकर, अखबारी कागज़ की पुड़िया में प्रसाद ले कर, कुँए की ओर मुड़़ गये, जहाँ वह अजनबी व्यक्ति उनकी प्रतीक्षा कर रहा था । दूर से ही पिताश्री को उस आगंतुक व्यक्ति की आवाज़ सुनाई दी । वह कह रहे थे "बड़ा देरी लगायो बाबू । हम सुना तुम पूरा हनुमान चालीसा सुनाय आयो उनका । ऊ जरूर बहुत खुश भये होइहें । लाओ प्रसाद देव ।" 

पिताश्री ने उन्हें पुड़िया पकड़ा दी । खोल कर थोड़ा प्रसाद लिया और फिर कुछ देर तक वह अख़बार के उस टुकड़े पर गहरी नजर जमाये हुए कुछ देखते रहे । बाबाजी तथा पिताश्री ने बड़े प्रेम से हनुमान मंदिर का वह प्रसाद पाया । उसके बाद काफी देर तक उनमें और पिताश्री में एकतरफा बातचीत चलती रही । बोलने का काम उन्होंने किया और पिताश्री ने सुनने का । उनकी वाणी इतनी मधुर और शब्द इतने सारगर्भित थे कि पिताश्री मंत्रमुग्ध हो उनकी बातें सुनते रहे । 

वह बाबा जी कह रहे थे -- "बद्री जी, बीती ताहि बिसारिये, आगे की सुधि लेहु, ऐसा है कि मनुष्य संसार में आता है कभी हंसता खेलता है, कभी रोता है, कभी भयभीत होता है, कभी हारता है, कभी जीतता है और इन सबसे अकेले ही जूझते हुए वह जीवन जीने का मार्ग खोजता रहता है । कभी कभी वह माया के खिलौनों से खेलने में अपना ध्येय, अपना पथ और मार्ग दर्शन करने वाले परमेश्वर से भी बिछुड़ जाता है और इस प्रकार जीवन के कुरुक्षेत्र में धराशयी हो जाता है । इसके विपरीत संसार के संस्कारी व भाग्यशाली प्राणी जीवनपथ पर लडखडाते तो हैं पर अपने इष्टदेव "संकटमोचन" का सहारा पाकर शीघ्र ही सम्हल जाते हैं और अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के चारों घोड़ों की बागडोर प्रभु को सौंप देते हैं । फिर क्या बात है वे जैसा भी चाहते हैं, भगवान उन्हें वैसा ही देते रहते हैं । परन्तु प्रत्येक अवस्था में कर्म मनुष्य को ही करने पड़ते हैं ।" फिर कुछ देर रुक कर वह बोले " कौने सोच माँ पड़ी गयो बद्री बाबू, आपन काम करो, जोंन काम करे वास्ते आये हो इहाँ । जावहू जज भैया से बात कर लेहू, सब ठीके होई, चिंता जिन करो"।

पिताश्री पुनः गम्भीर चिंता में पड़ गये । पिताश्री के जीवन के गहन अंधकार को श्रीमद् भगवत गीता के ज्योतिर्मय राजमार्ग पर लाकर उन साधारण से दिखने वाले बाबाजी ने बातों ही बातों में पिताश्री को ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्ति योग के व्यावहारिक परिवेश से परिचित करा कर एक प्रकार से पिताश्री को जैसे महाभारत के कुरुक्षेत्र में ही उतार दिया । वह बोले, "आज असफल रहे तो क्या हुआ ? बद्रीजी, अभी केवल एक दरवाज़ा ही बंद हुआ है, जीवन के रंगमंच के अनेक दरवाजे हैं और अनगिनत खिड़कियाँ हैं, तुम्हारे लिए कोई न कोई अन्य खिड़की किवाड़ी भगवान जी ने ज़रूर खुली छोड़ दी होगी । ऐसे अकर्मण्य हो कर बैठ जाओगे तो क्या पाओगे, खाली हाथ मलते, पड़े रह जाओगे । "

पिताश्री अरजुन की भांति एकाग्र चित्त हो सुन रहे थे और वह बाबाजी योगेश्वर श्री कृष्ण के समान धारा प्रवाह बोले जा रहे थे । "कर्तापन और कर्मफल की आसक्ति त्याग कर कर्म करने चाहिए । परम सत्य को जानते हुए पूरी क्षमता सामर्थ्य और विवेक बुद्धि के साथ समर्पण भाव, सम भाव, शुभ भाव एवं निष्काम भाव से किया हुआ कर्म, करने वाले को कर्मयोग एवं धर्मयोग दोनों के लाभ एक साथ ही दिला देते हैं । गुरु कृपा से साधक को, परमसत्य स्वरूप परमेश्वर का ज्ञान होता है । इस योग से परमेश्वर को जानकर, उनकी सृष्टि के संवर्धन व उन्नयन के लिए धर्ममय कर्म करना और इन सभी कर्मों के फल दृढ़ विश्वास के साथ परमेश्वर को समर्पित करना ही सर्वोच्च धर्म है । अपना धर्म निभावो, बद्रीजी । आगे बढ़ो, पीछे मुड़़ के मत देखो, आगे बढ़ो, घर जाओ, जज भैया को प्रसाद खिलाकर, प्रसाद की पुड़िया के कागज़ में जो छपा है उन्हें जरूर पढ़ा देना । तुम्हारा काम बन जायेगा, देर मत करो, जाओ जल्दी जाओ ।"

इतना कह कर बाबा जी उठ कर चलने को हुए । तब तक पिताश्री बाबाजी की बातों से बहुत प्रभावित हो चुके थे । बाबाजीकी के रूप में उन्हें कभी अपने इष्ट देव हनुमान जी का और कभी योगेश्वर भगवान श्री कृष्णजी का स्वरुप प्रतिबिम्बित होता दीख रहा था । उनके प्रति पिताश्री के मन में धीरे धीरे एक विशेष श्रद्धा सुमन अंकुरित हो गया था । आगंतुक के प्रेरणाजनक संभाषण ने पिताश्री को निर्भय होकर आगे बढ़ते रहने को प्रोत्साहित किया था । उनके जाते ही पिताश्री पुनः अपने भविष्य के गहन अंधकारमय खोह में प्रवेश कर गये पर उनके कानों में बाबाजी का वह अंतिम वाक्य "पीछे मुड़़ कर मत देखो, आगे बढ़ो " देव मन्दिर के घंटे घड़ियालों के समान बड़ी देर तक गूंजता रहा ।

निजी अनुभव की पृष्ठभूमि पर बतलाऊं तो मेरे जीवन में भी कुछ कुछ ऐसी स्थिति आयी थी । मैं भी लगभग १९ वर्ष का था जब मैं अपनी फाइनल ग्रेजूएशन परिक्षा में एक ऐसे विषय में फेल हुआ जिसमें तब तक के मेरे विश्वविद्यालय के इतिहास में कभी कोई फेल हुआ ही नहीं था । मैं अति दुख़ी था । मेरे सहपाठी और शिक्षक सभी आश्चर्यचकित थे । डरते डरते मैंने पिताश्री को अपना नतीजा बताया । बजाय क्रोधित होने के पिताश्री ने मुझे स्वयं अपने फेल होने की और आजमगढ़ में उन बाबाजी से मिलने की पूरी कहानी सुनाई जिसको मैं आप लोगों को सुना रहा था । आपको याद होगा, अंतर्ध्यान होने से पहिले उन बाबाजी ने पिताश्री से कहा था "आगे बढ़ो, पीछे मुड़ कर मत देखो"

पिताश्री ने मुझे भी वही बाबाजी वाला संदेश दिया । मुझे याद है उन्होंने मुझसे मुस्कुराते हुए कहा था, "गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में ",  "बेटा जो घोड़े पर चढ़ेगा ही नहीं, वह कैसे आगे बढ़ पाएगा ?" मुझे और प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा, "हार मान कर निष्क्रिय न हो जाओ, अपनी कोशिश करते रहो" और फिर वह गुनगुनाये थे -- "बढ़ते रहे तो पंहुंच ही जाओगे दोस्तों, जो रुक गये तो हार ही पाओगे दोस्तों" -- पिताश्री ने ३०-४० वर्ष पूर्व बाबाजी के जिन शब्दों से प्रोत्साहित होकर अपना जीवन संवारा था, उन्हीं शब्दों से उन्होंने मेरा मार्ग दर्शन किया ।

उन बाबाजी के अदृश्य हो जाने के बाद हमारे पिताश्री अति दुख़ी मन से उस दिन भर के सारे घटनाक्रम पर पुनर्विचार करते हुए अनमने से खोये खोये अपने बड़े भैया स्थानीय सब-जज साहेब की कोठी की ओर चल पड़े । पिताश्री के ये भैया मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के उपासक थे और उस जमाने की अंग्रेज़ी हुकूमत में भी स्वधर्म की मर्यादाओं को वह अपनी निजी रहनी में तथा अपने इजलास और कोर्ट कचहरी की कार्यवाहियों में भंग नहीं होने देते थे । उनका इजलास ही उनका मन्दिर था और उनके लिए उनका कर्म ही उनका धर्म था । वह स्वभाव से अति सौम्य थे, उनकी वाणी क्रोधावेश में भी मधुर ही बनी रहती थी । न्यायाधीश थे, अस्तु घर हो या कचहरी, वह अपने सभी निर्णय पूरी तरह नाप जोख कर, समझ बूझ कर देते थे ।

पिताश्री को आता देख कर बड़े पिताश्री ने उनसे पूछा "कहां रह गये इतनी देर तक ? " उत्तर में बिना कुछ बोले पिताश्री ने हनुमान जी के प्रसाद की पुड़िया उनकी ओर बढ़ा दी । श्री राम के परम भक्त बड़े पिताश्री के लिए राम दूत श्री हनुमान जी के प्रसाद के समान मधुर और कोई उपहार हो ही नहीं सकता था । पुड़िया को माथे से लगा कर उन्होंने प्रसाद के सिन्दूर की बिंदी लगाई और गुड़ चने का प्रसाद अति श्रद्धा सहित ग्रहण किया । बड़े पिताश्री के हाव भाव से ऐसा लग रहा था कि जैसे वह कहीं और से पिताश्री का रिजल्ट जान गये थे और वह उनसे नतीजे की पूछ ताछ कर उनको एम्बेरेस नहीं करना चाहते थे । जो हो, बड़े पिताश्री ने बात आगे बढाते हुए पूछा "फिर, अब आगे क्या करने का विचार है? " पिताश्री ने मौका देख कर प्रसाद की पुड़िया के अखबारी कागज़ को दिखाते हुए बड़े पिताश्री से अपनी उस अनजान व्यक्ति से भेंट की पूरी कहानी सुना दी और अंत में ये भी बताया कि उन महापुरुष ने वह अखबार बड़े पिताश्री को पढ़ाने की बात पर कितना जोर दिया था ।

बड़े पिताश्री ने अखबार के उस टुकड़े को पूरा फैला कर उस में छपा एक एक विज्ञापन ठीक से पढ़ा । एक विशेष विज्ञापन पर उनकी दृष्टि जम के रह गयी । विलायत के इम्पीरिअल कॉलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी के पाठ्यक्रम के आधार पर भारत की टेक्सटाइल मिलों में अंग्रेज अफसरों की जगह ऊंचे पद पर भारतीयों को ही लगाने के लिए उचित शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक टेक्निकल स्कूल उसी वर्ष से चालू हो रहा था । बड़े पिताश्री ने विज्ञापन कई बार पढ़ा । लखनऊ से निकलने वाले अंग्रेज़ी अखबार में वह इश्तहार यू. पी. सरकार के उद्योग विभाग के टेक्निकल एज्युकेशन डिपार्टमेंट ने छपवाया था । वे बोले, "जरा गौर से देखो, इस अख़बार में एक ऐसा विज्ञापन है जो मुझे लगता है यू . पी . सरकार ने सिर्फ तुम्हारे लिए ही निकाला है ।"

पिताश्री को परेशान देख कर उनके बड़े भैया ने पुनः कहा " बद्रीजी तुम धन्य हो । अब तो मुझे इस बात में जरा भी शक नहीं है कि तुम्हें कुँए पर जो मिले थे वह वास्तव में हम लोगों के कुलदेवता श्री महाबीर जी ही थे । सोच कर देखो, उन्होंने तुम्हारे भूत और वर्तमान की जो गोपनीय बातें बतायीं वह कितनी सच थीं । सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने तुम्हे एक तरह से धक्का दे कर मेरे पास यह विशेष आदेश दे कर भेजा कि तुम मुझे वह कागज़ किसी तरह से भी जरूर पढ़वा दो । "

उस जमाने की रीति रिवाज़ के अनुसार पढ़ लिखकर घर के लड़के कमाई करने के लिए बड़े शहरों में जाते थे लेकिन उनके परिवार बाल बच्चों के साथ गाँव के खानदानी-पुश्तैनी घरों में ही रहते थे । इसी नियम के अनुसार बड़े पिताश्री भी आजमगढ़ में अकेले ही रहते थे । उनका घर एक सुव्यवस्थित "अविवाहितों का डेरा" था जहाँ खाने पीने की, खेलने कूदने की और पूजा पाठ की सभी सुविधाएँ मौजूद थीं । सरकार की ओर से उन्हें घर के कामकाज के लिए दो दो अर्दली मिले थे जो चौबीसों घंटे उनकी सेवा में रत रहते थे । उनकी कोठी में बैठक के बांये हाथ वाला कमरा उनका दफ्तर था और दायें हाथ वाला उनका छोटा सा मंदिर । कोठी के मन्दिर में दोनों भाइयों ने बड़ी श्रद्धा के साथ अपने इष्ट देव श्री हनुमानजी की वन्दना की और उनकी महती कृपा के लिए उन्हें अनेकानेक धन्यवाद दिये ।

बड़े पिताश्री के ही निर्णय और आदेश से बाबूजी कानपुर गये जहां उनका एडमीशन कानपुर डाईंग स्कूल में हुआ, डिप्लोमा मिला, अवैतनिक अप्रेंटिसशिप से प्रारम्भ कर विभागीय अध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए, सूटरगंज कानपुर में घर बनवा लिया, हम सब कानपुर निवासी हो गये ।

पिताश्री के जज भैया बहुत सुलझे विचारों के समझदार व्यक्ति थे, रामभक्त होने के कारण उनकी सोच, उनकी प्रेरणा, उनका निर्णय शत प्रतिशत सत्य ही होता था । १९३७ से १९३९ तक वह कानपुर के डिस्ट्रिक्ट एंड सैशन जज के पद पर कार्यरत थे । कानपुर आते ही उन्होंने बड़े प्यार से पिताश्री को अपने साथ ही, गंगातट पर स्थित सरकारी, ५७ केंटोमेंट वाली विशाल कोठी में रहने को मजबूर किया था । मैं तब ८ -९ वर्ष का ही था, पर बड़े पिताश्री के अनुकरणीय रहनी से मुझे बचपन में ही बहुत कुछ सीखने को मिला । 


मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

समय का फेर

द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व, अपने जीवन के पहले ८-१० वर्षों में, (१९२९ से '३८-'३९ तक ), हम अपने बाबूजी के "राजयोग" का भरपूर आनंद लूटते रहे । १० वर्ष की अवस्था तक हम बड़े बड़े शानदार बंगलों और कोठियों में रहते थे । १९३७ से १९३९ तक हम छावनी में गंगा तट पर स्थित एक चार एकड़ के प्लाट में बनी १२ कमरों वाली भव्य कोठी में रहे । वह प्लाट इतना बड़ा था कि आज के दिन उसी में, उस पुरानी कोठी के साथ साथ एक बड़े से सरकारी सर्किट हाउस की इमारत भी खड़ी हो गयी है । उसके पहले ७ वर्ष की उम्र तक हम सिविल लाइन्स के स्मिथ स्क्वायर के एक बड़े बंगले में रहते थे । वह जीवन कुछ और था । 

हम पिताश्री के साथ के अंग्रेजों, पारसियों, मुसलमानों तथा भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों के पढ़े लिखे तबके के लोगों के बच्चों के साथ खेलते थे । पिताश्री के मित्र सिल्वर साहेब की पत्नी मेरी अम्मा की मित्र थीं, साथ के बंगले में रहती थीं। उनके कोई बच्चा नहीं था, वह अक्सर गोद में उठाकर मुझे अपने बंगले ले जातीं थीं और मुझे उनके पास, विलायत से आयी "मॉर्टन" के चोकलेट का डिब्बा ही दे देतीं थीं । "मित्रा" साहेब के यहाँ के छेने के रसगुल्ले ; "सरदार गुरु बचन सिंह" के यहाँ का हलुए का कढाह प्रसाद जो प्रति रविवार आता ही था ; "एन. के. अग्रवाल जी" के घर की दाल बाटी और चूरमा (जो पिकनिकों पर ही मिलती थी) तथा "अब्दुल हई साहिब" के घी में तले मोटे मोटे चौकोर पराठे, मूलीगाजर का खट्टा मीठा अचार और मीठे चावल (ज़र्दा) हमें बहुत प्रिय थे ।

उन दिनों आलम यह था कि हर महीने के पहले रविवार की शाम बंगले के पिछवाड़े के "पेंट्री" के दरवाजे पर एक 'ठेला' खड़ा होता था, जिसपर चार बच्चों वाले हमारे बाबूजी अम्मा के छोटे से परिवार के लिए महीने भर की रसद लदी होती थी । ( मित्रों, तब तक "हम दो, हमारे दो" वाला नारा ईजाद नहीं हुआ था ) । बाबूजी के विश्वास पात्र, घर के रसोइये, बलिया से आयातित, पंडित मोती तिवारी जी अपने सामने ही, कलक्टरगंज की आढतों से अनाज के बोरे, शुद्ध देशी घी और सरसों तथा तिल्ली के तेल के बड़े बड़े कनस्तर, तथा मसालों के कार्टन और विलायती चाय, हॉर्लिक्स, ओवलटीन, क्वेकर ओउट्स, तथा इंग्लेंड के "किंग जॉर्ज द फिफ्थ" द्वारा सम्मानित ओरिजिनल ब्रिटानिया कम्पनी के "डाइजेस्टिव" और "क्रीम क्रेकर" बिस्कुटों के टीन के सील बंद बक्से लदवाकर, ठेले के साथ साथ पैदल चल कर बंगले तक लाते थे । आपको यकीन नहीं होगा, उस ठेले पर लदा वह सारा सामान [जिनिस] उन दिनों मात्र ६० चांदी के रुपयों में आ जाता था । गजब की सस्ती का जमाना था वह । घी दूध की नदिया बहतीं थीं, अम्मा खुले हाथ खर्च करतीं थीं, इच्छानुसार दान दक्षिणा देतीं थीं, अपने परिवार के साथ साथ अड़ोस पड़ोस के जरूरतमंद लोगों को भी खिलाती पिलाती रहतीं थीं । किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं थी उनपर ।

लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होते ही, पासा पलट गया । बाबूजी की कुंडली के सभी योगकारक ग्रह वक्री हो गए, जिसकी वजह से वे आर्थिक अभाव से ग्रसित हो गए । मित्र-वेशधारी शत्रुओं ने उन्हें घेर लिया । सब्ज़ बाग दिखा कर उनकी पीठ में छुरा भोंक दिया । पल भर में हमारे "राज योग" पर शनि देव की गाज गिरी और हम सब के सपने चकना चूर हो गए । बेचारे बाबूजी की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गयी । 

ऐसी स्थिति में भी, बाबूजी ने अम्मा से उनकी दान-दक्षिणा में कोई कमी करने का आग्रह नहीं किया और अम्मा तंगी की इस वास्तविकता से सर्वथा अनभिज्ञ रहीं । वह धनाभाव के उन दिनों में भी अपने घर से परमट घाट के बीच के रास्ते के दोनों किनारों पर कतार से बैठे भिक्षुक बच्चों पर तथा गंगा घाट के संस्कृत विद्यालय के अनाथ निर्धन विद्यार्थियों पर अपनी करुणा, पूर्ववत लुटाती रहीं । परमट घाट के सभी दूकानदार, बाबूजी के समृद्धि के दिनों से परिचित थे, अतएव प्रति मास के आरम्भ में वे घर आकर अम्मा द्वारा खरीद कर निर्धनों में वितरित सामग्री की कीमत ले जाते थे । परिस्थिति चाहे अनुकूल रही या प्रतिकूल, अम्मा -बाबूजी का स्वभाव अपरिवर्तित रहा, उनकी परसेवा वृत्ति और भरसक अधिक से अधिक भूखों की क्षुधा पूर्ति करवाने की प्रवृत्ति आजीवन बनी रही ।

उनका "परम धर्म" था "परहित",
 उनकी पूजा "परसेवकाई" ।
"काबाकाशी" था "तन" उनका ,
"मन" ही था "हरि मंदिर" भाई ॥

सांसारिक दृष्टि में उनका जीवन कष्टप्रद था, क्योंकि जो व्यक्ति अनेकों नौकर चाकरों से घिरा रहता था, अब स्वयं हाथ में झोला लटका कर बाज़ार जाता था । जिसके घर में आने जाने वालों और भिक्षा देने के लिए ठेलों में लाद कर महीने भर का खाने पीने का सामान आया करता था, उसके घर में अब रसोई बनते समय गली की दूकान से सामान मंगवाना पड़ता था । जो व्यक्ति मक्खन जीन के सूट पहनता था, वह अब मोटी धोती और कुरता पहन कर सब जगह आता जाता था । उनकी विशेषता यह थी कि उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन नहीं आई और उन्होंने कभी किसी व्यक्ति को अपनी उस दुर्दशा का कारण नही बताया । उलटे परिवार के और सदस्यों को वह यह शिक्षा देते रहते थे कि शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सुख-दुःख, शीत-उष्णता, सभी में व्यक्तियों को सम रहना चाहिए । गीता जी का यह श्लोक वह अक्सर हम सब लोगों को सुनाया करते थे ।

समः शत्रो च मित्रे च तथा मानापमानयो: 
शीतोष्णसुख 
दुःखेषु समः संग विवर्जित: ॥

(श्रीमद भगवद्गीता - १२/१८)

विद्वान् ज्योतिषियों के मतानुसार, "शनि देवता" के दोहरे प्रहार झेल रहे थे उन दिनों मेरे बाबूजी ( पिता श्री ) । पहला प्रहार था "शनि की महादशा" का जो उन्हें १९३६ से दुखी कर रहा था और दूसरा था "साढ़े साती" का जो अब उनके जले पर नमक जैसा प्रभाव छोड़ रहा था । पिताश्री को "शनि" के उग्र प्रभाव ने, एक विश्व विख्यात ब्रिटिश कम्पनी का स्थायी ऊंचा ओहदा, जिसपर वह निश्चिन्तिता से पिछले १० -१२ वर्षों से काम कर रहे थे, एक झटके में छोड़ देने को मजबूर कर दिया । 'गुरु' की महादशा में पूरा "राज योग" भोगने वाले परिवार को 'शनि महराज' ने निर्धनता के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया ।

दुनिया वालों की नजर में पिताश्री को शनिदेव की कुदृष्टि के कारण कष्ट थे । लेकिन वास्तव में उन्हें कोई कष्ट महसूस नहीं होता था । वह अपने इष्टदेव श्री हनुमान जी की क्षत्रछाया में सदा आनंदित ही रहते थे । जब कभी हम बच्चे और अम्मा तनिक भी दुखी दीखते वह हमें समझाते और कहते थे कि, " बेटा जब 'उन्होंने' दिया हमने खुशी खुशी ले लिया, आज वापस मांग लिया तो हम दुखी क्यों हो रहे हैं? मैंने किसी गलत तरीके से कमाई नहीं की थी ये बात 'उनसे' अच्छी तरह और कौन जानता ? हमें "उनकी" कृपा पर पूरा भरोसा है । आप लोगों की भी सारी आवश्यकताएँ और उचित आकांक्षाएँ महाबीर हनुमानजी समय आने पर अवश्य पूरी करेंगे । आप लोग भविष्य की सारी चिंता उन पर ही छोड़ दें ।" 

तभी पड़ी मेरे भविष्य की वह "नींव", जिसे मैंने जिया, और जो श्री हनुमंत कृपा से मुझे प्राप्त हुई । मैंने सोचा और पाया कि सचमुच ही उतनी कष्टप्रद स्थिति में भी बाबूजी ने अपने कुलदेवता श्रीहनुमान जी का अवलम्ब नहीं छोड़ा । बुरे दिनों में भी वह नित्यप्रति हनुमान चालीसा और अष्टक का पाठ उतनी ही भक्ति के साथ करते रहे जितनी भक्ति से ओतप्रोत हो कर वह अपने अच्छे दिनों में करते थे । उनकी प्रार्थना में हमें कभी भी किसी प्रकार का आक्रोश अथवा गिला शिकवा और पीड़ा की प्रतीति नहीं हुई । वह पूर्ववत उसी विश्वास के साथ श्री हनुमान जी से कहते रहे :

बेगि हरो हनुमान महा प्रभु जो कछु संकट होय हमारो ।
को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो ॥

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

पिताश्री की क्षत्रछाया में

"प्रयास, पुरुषार्थ, परिश्रम, प्यारे प्रभु एवं गुरुजन की कृपा" तथा "प्रार्थना" के सहारे जीव अपना भाग्य और प्रारब्ध भी बदल सकता है, यह सीखा है और अपनाया है मैंने अपने पिता श्री की छत्रछाया में । उदारता और परम्परा का अदभुत सम्मेल था मेरे पिताश्री के जीवन में । संत तुलसीदास रचित रामचरितमानस की चौपाई -- सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ॥ और देत लेत मन संक न धरई ॥ बल अनुमान सदा हित करई ॥ -- में पिताश्री का जीवन और व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित है ।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं के शुरू के ब्रिटिश शासन काल में जमींदारों के उत्पीडन झेलते यू . पी .और बिहार राज्य के काश्त्कार्रों की दशा अत्याधिक दयनीय थी । वे निर्धन थे, अशिक्षित थे, असहाय थे । दोनों ही राज्यों का ग्रामीण अंचल पूर्णतः अविकसित था । यू . पी . में गाजीपुर के "नील"(INDIGO) उद्योग को अंग्रेजों ने पूरी तरह हथिया लिया था । बिहार के भागलपुर की Raw Si।k Industry को भी, ढाका के मलमल वालों की तरह अंग भंग कर निष्क्रिय किया जा रहा था । बिहार की कोयले की खदानें अंग्रेजी कम्पनीयों की हो चुकी थीं । गाँव के चरखे और हथकरघे ईंधन में जल चुके थे और उनकी कमी पूरी करने के लिए, ब्रिटिश कम्पनीयों ने कानपुर बम्बई और अहमदाबाद में कताई और बुनाई की बड़ी बड़ी Texti।e Spinning & Weaving मिलें लगा लीं थीं ।

उसी अविकसित और अशिक्षित पूर्वी यू . पी . के एक अति साधारण व्यक्तित्व वाले हमारे पिताश्री ने जीविका के लिए वह धंधा अपनाया जो तब तक परिवार में किसी अन्य ने नहीं किया था । पढ़े लिखे कायस्थ परिवार के ग्रेजुएट युवक I.C.S., P.C.S. बनने का मोह भंग होने के बाद ज्यादातर साफ़ सुथरे लिखा पढी के काम ही खोजते थे । मेट्रिक तक पढ़े युवक छोटे व्यापारिओं के मुंशी बनना या सरकारी दफ्तरों में क्लर्क, बड़े बाबू, खजांची, इंस्पेक्टर, दरोगा बन पाना बड़े सौभाग्य की बात मानते थे ।

हमारे पिताश्री जिन्हें हम बाबूजी कहते थे, हमारे दादा श्री गोपालशरण लालजी के पुत्र थे । उनका जन्म वाजिदपुर गाँव, बलिया जिले में १० अक्टूबर १८९५ में हुआ था । उन्होंने टेक्सटाइल इंस्टिट्यूट कानपूर से डिप्लोमा प्राप्त किया था । हमारे पिताश्री के तीनो बड़े भाई लिखापढ़ी का काम करते थे । एक ताऊ जी जज थे, एक वकील थे, एक ओनररी स्पेशल मजिस्ट्रेट । हमारे पिताश्री अंग्रेजों की टेक्सटाइल मिल, “म्योर मिल्स कम्पनी लिमिटेड कानपुर” में रंगाई विभाग के अध्यक्ष थे । उन्हें डाइंग मास्टर और डाई एक्सपर्ट कहा जाता था । उस समय उन्हें वह सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं जो विलायत से आये उस संस्थान के अँगरेज़ अधिकारियों को प्राप्त थीं ।

द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने के अंतराल में मेरे बाबूजी ने १९३६ में अँगरेज़ अफसर के अन्याय पूर्ण व्यवहार से तंग आ कर ब्रिटिश कम्पनी छोड़ दी। फिर उत्तर प्रदेश की एकमात्र पहिली ओद्योगिक कोओपरेटिव इकाई की स्थापना की, जिसमे कार्यरत थे अल्पसंख्यक बुनकर, जो इस इकाई के साझेदार भी थे । इसके साथ ही दूसरी टेक्सटाइल इकाई इटावा में लगाई जो इटावा के बुनकरों द्वारा बुने कपड़ों की रंगाई और फिनिशिंग करती थी ।

“यू . पी . कोऑपरेटिव निटिंग एंड वीविंग सोसाइटी लिमिटेड कानपुर” उस समय कानपुर की एकमात्र और पहिली सहकारी सोसाइटी थी, जिसके संस्थापक तथा चेयरमेन और मेनेजिंग डायरेक्टर थे, हमारे पिताश्री, श्री बद्री नाथ श्रीवास्तव । भाग्यचक्र कहिये या काल चक्र उनके सभी व्यापार और सभी विनियोग असफल रहे। ४०-४१वर्ष की उम्र में ही समृद्धिपूर्ण जीवन उनसे मुह मोड़ गया ।

रविवार, 13 फ़रवरी 2022

अम्मा की अंतिम यात्रा

१९६२ में अम्मा को एकाएक भयंकर द्रुतगामी केंसर रोग ने घेर लिया । कानपूर के सिविल सर्जन और मेडिकल कोलेज के कन्सल्टेंट डॉक्टरों ने पूरी जाँच पड़ताल कर के यह कह दिया था कि वह अब कुछ दिनों की ही मेहमान हैं ।

कैसे बताता उनसे यह सच्चाई कि उस सप्ताह में ही किसी दिन 'वह' यह संसार, यह घरबार, यह परिवार छोड़ कर जाने वाली हैं । शीघ्र ही हम चारों भाई-बहन अपनी प्यारी प्यारी माँ को खोने वाले हैं । हमारे बच्चे रवी, छवी, शशि, रूबी, प्रीती, मोना, रामजी अपनी दादी के प्यार दुलार से सदा सदा के लिए वंचित होने वाले हैं और कैसे हमारे वयोवृद्ध पिताश्री अर्धशताब्दी से भी अधिक वर्षों की अपनी जीवन संगिनी से जल्दी ही हमेशा हमेशा को जुदा होने वाले हैं ।

उनके जीवन के अंतिम दो तीन दिन शेष थे । एक दिन प्रातः वह बाहर बरामदे की बड़ी आराम कुर्सी में बैठीं थीं । पीडाओं की मंजूषा उन्होंने अपने हृदय में संजो रखी थी । एक अनूठे तेज से जगमगाते उनके चेहरे में आगे के उनके दो दांत जैसे उनके अंतर में समाये भाव व्यक्त कर रहे थे । उन्हें परमधाम लेजाने वाला विशेष विमान "ए. टी. एस." से लेंडिंग का निर्देश पाने की प्रतीक्षा में एयर पोर्ट के आकाश में बेताबी से मंडरा रहा था । इस विचार से कि वह विमान किसी भी क्षण उतर सकता था और बोर्डिंग का आदेश पारित होते ही माँ उस विमान पर सवार हो, अपने गोपाल जी के धाम "गोलोक" की ओर प्रस्थान कर जाएंगी और हम कुछ न कर पाएंगे, बस हाथ मलते रह जायेंगे, मैं विचलित हो रहा था । मेरी रूह कांप रही थी यह सोच कर कि अगले किसी पल ही हमारे सिर से माँ की क्षत्र छाया छिनने वाली थी ।

मन ही मन, केंसर की भयंकर पीड़ा झेलते हुए अम्मा ने किसी को भी यह महसूस नहीं होने दिया कि उन्हें कितनी पीड़ा है । हमें चिंतामुक्त रखने के लिए वह एक बार भी हमारे सामने पीड़ा से कराही नहीं । कभी किसी ने उनकी आँखों से आंसू बहते नहीं देखे । हम जब भी उनके सामने गए, वह हमे मुस्कुराती हुई दिखाई दी । प्यारी अम्मा ने बड़े प्यार से मुझे हृदय से लगाकर अनेक आशीर्वाद दिये । 

उस दिन मुझे घबडाया देख कर माँ ने निकट ही खड़े बड़े भैया, उषा दीदी और छोटी बहिन माधुरी को भी पास बुला लिया और माहौल बदलने के लिए भोजपुरी भाषा में कहा "आज भजन ना होखी का? " । ( क्या आज भजन नहीं होगा? )

उस सुबह हम सबने मिलकर अम्मा को "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण बासुदेव " की धुन सुनाई और उन्होंने एकएक करके हम चारों को जी भर कर खूब सारे आशीर्वाद भी दिए । मेरा तीसरा नम्बर था । मैं अम्मा का छोटका, दुलरुआ लडिका जो था, हमेशा की तरह उन्होंने मुझे कसके चिपका लिया और इशारतन मुझे समझा दिया कि उन्हें मेरी सारी फर्माइशे ज्ञात हैं, इसलिए बिना मुझसे कुछ पूछे ही उन्होंने मुस्कुराते हुए भोजपुरी में मुझे आशीर्वाद दे दिया, बोलीं "होखी ना, कूल वैसने होखी, जईसन तू चहिबा । ("होगा, जरूर होगा, सब वैसा ही होगा जैसा तुम चाहोगे ) । अचानक माँ को कैसे मेरे बचपन में मुझे दिया हुआ वह आशीर्वाद, संसार छोड़ते समय याद आ गया । तब उनसे पूछ न सका क्योंकि उसी शाम ---अम्मा यह संसार छोड़ कर अपने गोपालजी के धाम चली गयीं ।

उदर के केंसर की भयंकर पीड़ा सहते हुए भी, उन्होंने एक अत्यंत मधुर मुस्कान के साथ शरीर त्यागा था । जब मेरी प्यारी माँ अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थीं । हम सब उनको कीर्तन सुनाया करते थे । और वह अपने नैनो से बूंद बूंद प्रेमाश्रु बहा कर अपने मन मन्दिर में बालपन से बिराजे लड्डू गोपाल के चरण पखारतीं रहतीं थीं । इतनी प्रबल थी उनकी हरि प्रीति ।

जाते जाते वह हमे समझा गयी थीं कि "रोना मत बच्चों, मैं हँसते हुए जाउंगी, तुम हँस हँस कर हमे विदा करना " । तदन्तर परिवार सहित हम चारोँ बच्चों ने उनकी इच्छानुसार उनके समक्ष खड़े होकर अखंड हरि कीर्तन किया उस क्षण तक जब तक ह्मारे साथ साथ उनके होठ भी हिलते रहे, उनकी ऑंखें खुली रहीं और उनकी साँस चलती रही । हम तो कीर्तन करते ही रहे कि पडोस के चाचाजी प्रोफेसर चन्द्रदेव प्रसाद ने हमे बताया कि "बेटा वह चली गयी हैं " । हमे विश्वास नहीं हुआ क्योंकि माँ के मुखारविंद की मुस्कराहट तब भी लोप नहीं हुई थी । प्रिय जन, अपना वचन निभाकर वह तो मुस्कुराते मुस्कुराते विदा हो गयीं । ।

हमने वैसा ह़ी किया, जैसा अम्मा चाहतीं थीं । बयान नहीं कर पाउँगा कि कितनी मधुर मुस्कान थी उनके प्रफुल्लित मुखारविंद पर, हल्की गुलाबी बनारसी परिधान में वह एक "बालिका वधू" सी लग रहीं थीं । "लाल विला" से उसकी स्वामिनी "लाल मुखी देवी " जा रहीं थीं । बाबूजी अस्वस्थ थे, हम दोनों भाइयों को उन्हें घर की सकरी सीढ़ी से उतारना था । दोनों भाई एक साथ उन सीढियों पर उन्हें सम्हाल नहीं पाए अस्तु मैंने अकेले ही उन्हें गोदी में उठा लिया । ऐसा लगा जैसे मैं अम्मा के परम प्रिय इष्ट "गिरिधर गोपाल"जी के श्री चरणों पर चढ़ाने के लिए गुलाब की एक पंखुरी लेकर सीढ़ी से नीचे उतर रहा हूँ । तबसे लेकर उस घड़ी तक जब अम्मा की पार्थिव काया अग्नि को समर्पित हुई, हम दोनों भाई अपनी मित्र मंडली के सहयोग से निरंतर "श्री राम जय राम जय जय राम" का संकीर्तन करते रहे ।

मेरे सपने असम्भव थे लेकिन वे सब असम्भव स्वप्न, समय आने पर सत्य सिद्ध हुए । मुझे ऐसी अप्रत्याशित सफलताएं मिली जिनकी भविश्यवाणी किसी भी ज्योतिषी ने नहीं की थी, उनकी प्राप्ति के लिए मैंने कोई अनुष्ठान भी नहीं करवाये थे और न कोई कीमती नगीने ही धारण किये थे । माँ के आशीर्वाद से असम्भव भी सम्भव हो जाता है । गुरुजनों और माता -पिता के आशीर्वाद, कुलदेवता श्री महावीर और प्यारे प्रभु की कृपा दृष्टि, अपना दृढ संकल्प, तथा कर्तव्य निष्ठा के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य उपाय और साधन था ही नहीं । अवश्य मैं इनकी प्राप्ति के लिए सतत अथक प्रयास करता रहा, प्रार्थना करता रहा और फिर प्रारब्ध को भी मेरे अनुकूल होना पड़ा ।