शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

हनुमत -कृपा का अनूठा अनुभव

साउथ अमेरिका के एक केरेबियन देश में कैसे मेरे कुलदेव श्री हनुमानजी ने हवाई यात्रा के सम्भावित हादसे से मेरे जीवन की रक्षा की और फिर किस प्रकार "उन्होंने" "नन्हे फरिश्ते" के रूप में प्रगट होकर, मेरे और भारत देश के मान-सम्मान को धूमिल होने से बचा लिया, इसका मुझे अनूठा अनुभव हुआ । १९७५ से १९७८ तक मैं अपने परिवार के साथ, साउथ अमेरिका के एक छोटे से देश (ब्रिटिश) गयाना की राजधानी जॉर्ज टाउन में रहा । उस पूरे देश की आबादी भारत के एक बड़े शहर की आबादी से भी कम थी । देश की ५५ प्रतिशत आबादी भारतीय मूल की थी । भारतीय संस्कृति के प्रति वहाँ के निवासियों के हृदय में अपार श्रद्धा थी । वहाँ उतनी ही हर्षोल्लास से शिवरात्रि, दशहरा, दिवाली, होली, ईद, बकरीद मनाई जाती थी जितनी जोशोखरोश से कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के शिवालयों और ईदगाहों में ।

इन सभी गायनीज़ के पूर्वज भारतीय थे, जिन्हें अँगरेज़, पानी के जहाजों पर बैठा कर वहाँ उनके फार्मों में काम करने के लिए ले आये थे । वे सब जहाजी कहे जाते थे । भारत में वे किस शहर के थे, उनका धर्म, उनकी जाति क्या थी, अब आज उनके वंशज नहीं जानते हैं । उन्होंने तो अपने बचपन से अपने ही घर परिवार में किसी सदस्य को मंदिर जाते देखा, किसी को चर्च, तो किसी को नमाज़ अदा करते देखा । किसी पर कोई पाबंदी नहीं, कोई जोर जबरदस्ती नहीं । जिसको जो भाये जिस पर जिसकी आस्था जम जाए ; वही उसका धर्म-कर्म बन जाता । घर के कामकाज में कृष्णा की मददगार गायनीज स्त्री का नाम था, राधिका, जिसे होटल पेगशस के शेफ सलीम ने कृष्णा जी से मिलाया था । सलीम उसे दीदी मानता था । राधिका ने ही हमें उस देश के निवासियों की इस विशेष संस्कृति से अवगत कराया था ।

जॉर्ज टाउन गयाना के ऑफिस में एक दिन मेरे पास उस देश में नियुक्त भारत के राजदूत महोदय का फ़ोन आया कि किसी आवश्यक कार्य के लिये मुझे अगली सुबह ही उस देश के मन्त्री के साथ सुदूर दक्षिण के एक प्रदेश में दौरे पर जाना है। हाई कमिशनर साहेब् ने काम की अहमियत समझाते हुए उस देश के राष्ट्रपति के साथ अपने देश के प्रमुख अधिकारियों की कथित घनिष्ठता पर भी अपूर्व प्रकाश डाला और यहाँ तक बताया कि यह निमंत्रण मेरे लिए ये बड़े इज्ज़त की बात है, महत्वपूर्ण है ।

परिजनों के समवेत स्वरों में "प्रबिस नगर कीजे सब काजा, हृदय राखि कोसलपुर राजा" का गायन सुन कर मैं घर से निकला और नियत समय पर एयरपोर्ट पहुँच गया । हेंगर से तैमूरलंग के समान डेढ़ टांग से लंगड़ाते हुए भीम काय डकोटा विमान को खटर-पटर करते हुए हमारे सन्मुख खड़ा कर दिया गया । उसका रंग रूप और उसकी जर्जर चरमराती काया को देख कर मुझे आशंका ने घेर लिया कि या तो यह उड़न खटोला वहाँ से उड़ ही नहीं पायेगा और यदि इत्तेफाक से उड़ भी गया तो मंजिल तक पहुंचायेगा या नहीं । बोर्डिंग हो गयी । जहाज़ के कप्तान साहेब आये । दरवाज़ा बंद करते करते केवल हाय हेलो पुकारते हुए कॉकपिट में घुस गये । थोड़ी देर में स्वयं बाहर आकर यात्रिओं का स्वागत करते हुए उन्होंने उस यान के सामरिक इतिहास से हमें अवगत कराया । यह भी बताया कि कैसे १९४५ तक रॉयल एयर फ़ोर्स में अपना शौर्य प्रदर्शन करने के बाद लगभग २५ वर्षों तक अन्य मित्र देशों की सेवा कर के वह विमान अब इस देश की सेवा कर रहा था ।

मैं विमान की कुर्सी पर बेल्ट बांधे अपनी दोनों आँखे बंद किये इष्टदेव को मनाता रहा । थोड़ी देर में यान के इंजन चालू हो गये । प्रोपेलर घूमने लगे और वायुयान उसी तरह हिलता डुलता नाना प्रकार की आवाजें करता हुआ अपनी लडखडाती टेढ़ी चाल से रनवे पर सरकने लगा । मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं पिछली शताब्दी के १९३०-४0 वर्षों में छोटी लाइन की रेलगाड़ी (B&NWR) के सुरेमनपुर स्टेशन से अपने पुश्तैनी गाँव बाजिदपुर तक की यात्रा अपनी खानदानी खटारा घोड़ागाड़ी से कर रहा हूँ ।

रनवे पर निर्धारित दौड़ लगा कर विमान, क्या कहते हैं उसे - "एयर बोर्न" हो गया । सहयात्रियों ने तालियाँ बजा कर अपनी प्रसन्नता दर्शायी और फिर "He is a jolly good fellow, He is a jolly good fellow" गा गा कर हमें लन्दन के अपने विद्या अध्ययन काल की याद दिला दी जब कोच पर केम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड की सैर करने जाने पर कोच के ड्राईवर को "जॉली गुड फेलो" कह कह कर विद्यार्थी गण थोड़ी बहुत मनमानी कर लेते थे । हाँ, यहाँ वायुयान में सहयात्रिओं के उस कोरस संगीत से हमें तो बड़ा लाभ हुआ । कम से कम उतनी देर के लिए हमारे कान विमान के बाहरी गम्भीर गर्जन और उसके भीतरी अंजर पंजर और ढीले ढाले पुर्जों से निकलने वाली भयंकर खड़खड़ाहट सुनने की सज़ा से हम कुछ देर को बच गये ।

जहाज़ उड़ता रहा और लगभग घंटे भर में हमें आकाश से ही वह नगर जहां हमें पहुचना था दिखायी भी देने लगा । अपनी खिड़की से ही हमें थोड़ी दूरी पर जंगलों के बीच एक धुंधली पगडंडी नजर आ रही थी जिसे सहयात्री उस एयरपोर्ट का रनवे बता रहे थे । हम मन ही मन भगवान को धन्यवाद दे रहे थे कि हमारी यात्रा का सुखद अंत हो रहा था ।

तब तक एयर पोर्ट और साफ़ नजर आने लगा था । विमान की रफ्तार शून्य सी थी । वह बहुत धीरे धीरे उस कच्चे रनवे पर उतरने का प्रयास कर रहा था । उस छोटे से एयरपोर्ट में रेड क्रॉस के एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ घंटा और सायरन बजाते हुए बेतहाशा इधर उधर दौड़ रहीं थीं l गन्तव्य स्थान के ऊपर विमान धीमी गति से काफी देर तक चक्कर लगाता रहा । फिर वह अचानक एक तरफ घूम गया और एक बहुत विशाल नदी के ऊपर उसकी धारा की दिशा में उड़ने लगा । हमारा माथा पुनः ठनका । चिंता और बढ़ गयी । क्या हमारा विमान उस सागर जैसी भयंकर नदी पर उतरने वाला है? और मुझे तो तैरना भी नही आता है । विमान में ऐसी परिस्थिति झेलने के उपकरण भी नहीं थे । मन ही मन मैं अपने आप को जल समाधि लेने के लिए तैयार करने लगा । तभी हमारी नाक में पेट्रोल की तीक्ष्ण गंध आने लगी । एक और चिंता हुई । क्या हमें जीते जी चिता में जलना है? इतने में कप्तान ने एलान किया कि यान का पेट्रोल नदी में गिरा कर उसे हल्का किया जा रहा है जिससे रनवे पर क्रैश लेंडिंग होने पर विमान में विस्फोट न हो और आग न लग जाये । चिंता थोड़ी घटी ।

जैसे ही पेट्रोल की गंध आनी खतम हुई, विमान घूम पड़ा और पुनः हवाई अड्डे के ऊपर उड़ने लगा l अत्याधिक सावधानी बरतते हुए, लगभग शून्य की गति से विमान ने रनवे को छुआ l एक भयंकर धक्का लगा । यात्री अपने आगे वाली कुर्सी पर बैठे यात्रियों से टकराये । केबिन भयभीत यात्रिओं की चीखों से गूँज उठा । सेफ्टी बेल्ट खुल गये, और यात्रिओं ने अपने अपने भगवानों से अपनी अपनी भाषा में सस्वर कृतज्ञता प्रदर्शित की । हमने भी मन ही मन अपने इष्टदेव को धन्यवाद दिया । शीघ्र ही विमान का द्वार खुल गया । कांपते कांपते एक एक करके सभी यात्री उतर गये । हमारा भयंकर स्वप्न टूट चुका था । पवनपुत्र ने, हमारे विमान की रक्षा के लिए कौन सा रूप धरा होगा यह तो वह ही जाने । पर मेरे ख्याल से हनुमान जी अति सूक्ष्म रूप में "प्रेरणा" बन कर हमारे विमान-चालक के मस्तिष्क में प्रविष्ट कर गये होंगे, वैसे ही जैसे वह सुरसा के मुख में चले गये थे और वही से हमारे चालक को एयर कंट्रोल टावर में बैठे कंट्रोलर के समान "सेफ लेन्डिंग" की उचित हिदायते दे रहे होंगे ।

गवर्नर हाउस में मुंह हाथ धोकर हम तुरत ही वहाँ गये जहाँ वह विशेष कार्यक्रम होने वाला था जिसमें भारत के राजदूत को अध्यक्षता करनी थी। पर अब वह कार्य मेरे कंधे पर डाल दिया गया था। एक बडा पंडाल था जिसमे सुन्दर बैनर्स और कागज़ की रंग बिरंगी झंडियाँ लगी थी, खाने पीने के लिए टेबल कुरसियाँ बाकायदा मौजूद थीं । एक स्टेज बना था जिस पर मुख्य अतिथि तथा मिनिस्टर और गवर्नर आदि के बैठने की व्यवस्था थी । हमारे पहुचते ही पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर बार बार एलान होने लगा कि कार्यक्रम शीघ्र ही शुरू होने वाला है । सभी सम्मानित अतिथियों ने पुनः अपना अपना आसन ग्रहण किया ।

स्टेज के आगे नीचे जमीन पर लाल नीली यूनिफ़ोर्म में पोलिस के सिपाही अपने चमचमाते स्टील बेंड पर झूम झूम कर मधुर एंग्लो एफ्रिकन धुने बजाने लगे । स्थानीय स्टील बेंड की टंकार भरी धुनें सुनते हुए हम ऊपर स्टेज पर लाये गये । बड़े आदर सत्कार सहित मुझे चीफ गेस्ट की बीच वाली ऊंची कुर्सी पर बैठाया गया । मेरा औपचारिक स्वागत हुआ, ताज़े फूलों का एक सुंदर बुके प्रदान किया गया । मैं ये समझ नहीं पा रहा था कि मुझे उतना आदर- सम्मान किस कारण मिल रहा है । लेकिन उस समय वह सब बहुत अच्छा लग रहा था । इतनी प्रतिष्ठा अनायास ही मेरी झोली में पड़ रही थी । परम पिता की इस विशेष अनुकम्पा के लिए मैं मन ही मन उनका स्मरण करके उन्हें धन्यवाद दे रहा था । पर मुझे तब तक यह नहीं ज्ञात था कि मुझे वहाँ कौनसा विशेष कार्य करना है ।

सोच ही रहा था कि मैं मिनिस्टर साहब से यह जानकारी लूं कि वह कौन सा अति आवश्यक काम है जिसके लिए यह मजमा जमा किया गया । मिनिस्टर साहेब ने अपनी तकरीर में एलान कर दिया कि "ब्रिटिश और भारत सरकारों के आर्थिक और तकनीकी मदद से देश की जनता को खाने के लिए उत्तम क्वालिटी का हाइजीनिक साफ़ पशु-मांस उपलब्ध कराने के लिए एक आधुनिक उपकरणों से युक्त नया Slaughter House, उसी स्थान पर बनेगा जहाँ हम उस समय बैठे थे । इस बूचर खाने में पशुओं पर कोई अत्याचार नही होगा और जानवरों को कम से कम कष्ट देकर, सुन्न (बेहोश) करने के बाद जबह किया जाएगा और उसके बाद उनकी खाल उतारी जायेगी" ।

उसके बाद उन्होंने बगल की मेज़ पर रखा रंगीन गिफ्ट रेप पेपर में लिपटा बड़ा सा डिब्बा मंगवाया । प्रादेशिक गवर्नर महोदय ने उसका रिबन काटा । डिब्बा खुला तो उसमे इंग्लॅण्ड की बनी हुई एक नली बन्दूक और एक ऐसा यंत्र निकला जिसमें से हवा का जेट बहुत ही वेग के साथ निकलता था । इन दोनों यंत्रों को प्रदर्शित करने के बाद मंत्री महोदय ने मेरी ओर देख कर मुस्कुराते हुए कहा "Now, Comrade Srivastav, you may take over." उनका अनुरोध था कि मैं उस विशेष "गन" में गोली भर कर नीचे पंडाल के दूसरे छोर पर खूँटे से कस के बँधी उस प्यारी प्यारी शंकर जाति की गाय को हलाल करूं । वह चाहते थे कि एक हिन्दू जो गाय को माता मान कर उसकी पूजा करता है, अपने हाथों से ही अपनी गौ माता की हत्या करे । यह तो मेरा अनुमान था कि मैं "बलि का बकरा" बनने जा रहा हूँ । पर मेरा प्रियतम प्रभु मुझसे क्या करवाना चाहता है अथवा "उसके" मन में क्या है यह उसके सिवाय कोई भी नहीं जान सकता है, फिर मै नादान कैसे जानता? 

मिनिस्टर महोदय का एलान सुन कर मैं अंतर तक काँप गया । मैं एक निष्प्राण पत्थर की मूर्ति सा कुर्सी से चिपका बैठा रहा । मेरी परेशानी समझते हुए उस प्रांत के ब्रिटिश मूल के श्वेत गवर्नर ने मिनिस्टर से कदाचित यह कहा कि भारतीय हिन्दू गौ हत्या को पाप समझते हैं ।, मंत्री महोदय नाराजगी दिखाते हुए स्वयं गन लेकर उधर की ओर चल पड़े जिधर गाय बंधी थी । स्टेज के सभी वी आई पी अतिथि भी उनके पीछे चल दिए । औपचारिकता निभाते हुए मैं भी उनके साथ हो लिया | नीचे उतर कर हम सब उस श्वेत-श्यामल वर्ण वाली सुंदर गाय को घेर कर खड़े हो गये | अपनी इन्ही आँखों से मैंने देखा था कितना प्यार भरा था गौमाता की प्यारी प्यारी, बड़ी बड़ी कजरारी आँखों में । वह हम सब की ओर बहुत प्यार से देख रही थी बिल्कुल वैसे ही जैसे कि चारों धाम की यात्रा पर जाने से पहले एक वयोवृद्ध माँ यह सोच कर कि न जाने उस यात्रा से वह लौट पाएगी या नहीं  । बड़े प्यार से अपने सपूतों को निहारती हुई उन पर आशीर्वाद की झड़ी लगाती है । तभी हम सब के सामने, मिनिस्टर साहेब ने गाय के माथे पर गोली दाग दी । जो हुआ और जो इन आँखों ने देखा वह मैं बयान नहीं कर पाऊँगा । उसका ख्याल आते ही आँखें भर आती हैं और कंठ अवरुद्ध हो जाता है । केवल इतना याद है कि बांस के डंडों के सहारे गर्दन टेके निर्जीव गौ माता की खुली हुई आँखों से तब भी आशीर्वाद के अश्रु-कण झाँक रहे थे ।

उपहार स्वरूप इंग्लॅण्ड से आयी स्कॉच का एक कार्टन खोला गया । मिनिस्टर महोदय ने उसमे से एक बोतल खोली और उनकी सेक्रेट्री महोदया ने बियर के क्रेट में से अनेक बोतलें खोलीं और आगंतुकों में प्रेम से वितरित कीं । स्टील बैंड पर फिर से करीबियन-क्रियोली गीतों की धुनें गूँज उठी । नयी इम्पोर्टेड गन से मंत्री जी के हाथों हुई उस "गौ हत्या" समारोह के निर्विघ्न समापन की खुशी में १०-१५ मिनिट तक सभी लोग चुस्कियां ले लेकर नाचते गाते रहे ।

अभी विलायत से प्राप्त एक और आधुनिक यंत्र का उद्घाटन होना शेष था । आयातित यंत्रों के डिब्बे में से वह विशेष यंत्र भी निकाला गया । स्थानीय परम्परा के अनुरूप, उस नये यंत्र पर "बियर" के छीटें डाल कर उसका पवित्रीकारण किया गया ।

उसके बाद मंत्री महोदय ने मदिरा की बूंदों से पवित्र किया हुआ वह यंत्र मेरी ओर बढाते हुए माईक पर एलान किया "So, it is your turn now, Comrade Srivastav, to demonstrate the efficacy of this instrument which the foreign Government has so kindly gifted us." मैंने इससे पहिले कभी वह मशीन देखी भी नही थी, चलाना तो दूर की बात है । उसके साथ के कागज़ जल्दी जल्दी पढ़ कर मैंने जाना कि वह यंत्र, पशुओं की खाल उतारने के लिए उस विकसित देश में हाल में ही बना है और उसका प्रेक्टिकल ट्रायल करने के लिए उसे पिछड़े देशों में भेजा जा रहा है । मैं उस समारोह में अपने देश के राजदूत को रिप्रेज़ेन्ट कर रहा था । इस स्थिति में मुझे मंत्री महोदय की बात दुबारा टालना अनुचित लग रहा था । बिजली के तार से वह यंत्र पावर पॉइंट से जोड़ दिया गया और मैं वह यंत्र हाथ में ले कर स्टेज से नीचे उतरा और बांस की बल्लियों पर उलटी लटकी गाय की निर्जीव काया की ओर चल पड़ा । मेरे मन में विचार-शक्ति और कर्म-शक्ति का भयंकर संघर्ष हो रहा था मैं मन ही मन अर्जुन की भांति अपने प्रियतम प्रभु से प्रार्थना कर रहा था ---

आया शरण हूँ आपकी मैं शिष्य शिक्षा दीजिए ।
निश्चित कहो कल्याण कारी कर्म क्या मेरे लिए ।।

मैं जो काम करने जा रहा था, मैंने अपने इस जीवन में, वैसा कार्य पहिले कभी नहीं किया था । सच पूछिए तो मैंने किसी और को भी वैसा काम करते कभी नहीं देखा था । "मैं कैसे करूँगा यह? " मैं भयंकर धर्म संकट में था । मैं अस्थिर, लडखड़ाते कदम से, काँपते हाथों में वह यंत्र थामे, धीरे धीरे सूली पर लटकी प्राणहीन गाय की ओर बढ़ रहा था । आठ दस कदम ही बढ़ पाया था कि कानों में किसी बच्चे की मीठी आवाज़ पड़ी । ऐसा लगा जैसे कोई छोटा बच्चा पीछे से किसी अपने को पुकार रहा है । मुझे कौन पुकारेगा? यह सोच कर मैंने उसकी पुकार अनसुनी कर दी और धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा । पर उस ने मेरा पीछा न छोड़ा । शायद वह मुझसे ही कुछ कहना चाहता है यह सोच कर मैं रुक गया । 

पीछे मुड़़ कर देखा तो एक लगभग ३ फुट ऊंचा ७-८साल का बालक मेरे पीछे खड़ा था । खाकी निकर और हाफ शर्ट पहने एक अनोखे रंग रूप वाला वह न तो योरोपियन लग रहा था,  न एशियन, न अमरीकी रेड इंडियन, न हम भारतियों जैसा ही । वह जिद करने लगा कि मैं वह यंत्र उसे दे दूँ । वह उस यंत्र से वही कार्य कर दिखाना चाहता था जिसे करने में मैं असमर्थ था । उसने मेरी ओर हाथ फैला कर उस आयातित नये यंत्र को मुझसे वैसे ही मांगा, जैसे कोई छोटा बच्चा, नया खिलौना देख कर उससे खेलने के लिए मचलता है । मेरे और निकट आकर उसने शुद्ध अंग्रेज़ी भाषा में मुझसे कहा " Sir! Pass that on to me, I shall do it for you " और उसने बार बार अपना यह अनुरोध दुहराया, "सर, मुझे दे दीजिये ये मशीन । मैं आपकी ओर से इसे चला कर दिखाऊंगा, मेरा विश्वास करिये, मैं इसे चलाना जानता हूँ " I shall do it for you, I know how to operate this machine. Sir Believe me, I can do it." मुझे उसकी बात पर भरोसा नहीं हो रहा था । उस देश का एक आठ दस साल का वह नन्हा बालक, वह बिजली से चलने वाला धारदार यंत्र चलाना चाहता है । कैसे विश्वास करता कि वह यंत्र जिसका विकास योरप में उसी वर्ष हुआ था और वह उस देश में कुछ दिन पहिले ही आयात किया गया था वह बालक चला पायेगा । 

उसके इसरार के कारण मैं बड़े धर्म संकट में पड़ गया था । उसकी आँखों की विचित्र चमक में निहित उसके अदम्य आत्म-निश्वास ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या मैं उसपर भरोसा कर सकता हूँ । बालक शायद मेरी असमंजसता भांप गया । उसने नीचे से मेरा शर्टजेक खेंच कर एक बार फिर गिडगिडाते हुए कहा कि मैं उसे वह यंत्र चलाने दूँ वह मुझे निराश नहीं करेगा । ("Let me do that for you Sir. I shall not betray your confidence." ) कुछ पल रुक कर वह फिर बोला कि उसने यह यंत्र बखूबी चलाया है । इसके साथ ही उसने वह मशीन मुझसे झपट कर ले ली । एक झटके में ही उसने मशीन का स्विच ओंन कर दिया, मशीन पावर पॉइंट से कनेक्टेड थी, चल पड़ी । तुरत ही स्विच ऑफ कर के उसने मशीन मुझे लौटा दी और मेरी आँखों में देखते हुए जैसे प्रश्न किया कि अब भी विश्वास हुआ या नहीं? ("Do you believe me now Sir "?) मैं अवाक् था, मुझे विश्वास हो गया कि अवश्य ही कोई असाधारण बालक है । उसकी वाणी और उसकी आँखों की चमक में एक असाधारण चारित्रिक बल और अदम्य आत्मविश्वास झलक रहा था ।

सम्मोहित सा होकर मैंने स्टेज से माइक मंगवाया और यह एलान कर दिया कि बड़ी सौभाग्य की बात है कि उस देश का ही एक नन्हा नागरिक वह काम कर दिखाना चाहता है जिसके लिए मुझे आमंत्रित किया गया है, उसे अवसर देना चाहिए । (" Comrades! It is a matter of great pride and honour for this country that we have amongst us, a young man who is offering to demonstrate the working of this newly imported machine and I feel we should not deny him this honour. May I with your approval, Comrades, pass on the machine to him.") तालियाँ बजीं, सब प्रसन्न थे कि जिस कार्य के लिए विदेशी एक्सपर्ट बुलाये गये थे वही कार्य उस देश का एक बच्चा करने जा रहा था । बालक ने बड़ी कुशलता से मशीन चलाई ।

अपना मानव जीवन बड़ा विचित्र है, यहाँ हमें जब जो भी करने का आदेश, ऊपर मुख्यालय से मिले उसका पालन करना ही पड़ता है । किसी की अपनी तो यहाँ चलती ही नहीं, वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है । उस विलक्षण बालक ने मेरे मन में छिड़ा "भावना-कर्त्तव्य" युद्ध तत्काल शांत कर दिया था । उसने न जाने कहां से अकस्मात प्रगट हो कर खेल खेल में वह काम कर दिया था जो कि वास्तव में मुझे करना था । उस काम को कर के उसने न केवल मुझे अकर्मण्यता के अपमान से बचाया था, बल्कि उसने हमारी भारत सरकार को भी वहाँ की सरकार के साथ हुए द्विपक्षीय समझौता भंग करने का गुनहगार होने से बचा लिया ।

एक बार फिर तालियों की आवाज़ से सभागृह गूँज उठा । जनता ने उस बालक को घेर लिया और मिनिस्टर साहेब ने सम्बंधित सरकारी विभाग को आदेश दिया कि नये स्लॉटर हाउस के बन जाने पर उसमें उस होनहार बालक को उचित नौकरी दी जाये । तुरत ही विभागीय अधिकारियों ने उसका नाम, अता-पता, पूछ कर नोट कर लिया । स्टील बैंड एक बार फिर बजा, पूरे जोश के साथ नाच गाना हुआ । केक कटा, नाना प्रकार के सामिष भोज्य पदार्थ परसे गये,, सबने जी भर के खाया पिया । सब मस्ती में झूम रहे थे । मेरी निगाह, जनता की भीड़ में उस नन्हे फ़रिश्ते को खोज रही थी । पर वह कहीं नहीं दिखा । हमारे सारे प्रयास निष्फल रहे । तीन फुट का वह नन्हा फरिश्ता जो काले बादलों में छुपी बिजली की भांति बस एक बार आकाश से उतरा, मुझे मेरे धर्म संकट से उबारा और फिर उसी शीघ्रता से कहीं और चला गया । उसके इन उपकारों के कारण मैं हृदय से उसका अति आभारी बन गया था । पर विडम्बना तो देखिये कि न तो मैं उसे धन्यवाद दे पाया और न किसी प्रकार मैं उससे अपना आभार प्रगट कर सका क्यूंकि वह वहाँ से अचानक अदृश्य हो गया था । मैं ही अकेला नहीं, मेरे सभी संगी-साथी आश्चर्यचकित रह गये । आश्चर्य तो यह जान कर हुआ कि उस हुलिए का कोई बालक उस इलाके में कभी देखा ही नहीं गया । मन में वही प्रश्न उठता रहा कि कौन था वह, कहाँ से आया था और अचानक ही कहां चला गया?

कौन था वह अजनबी, कौन था वह फरिश्ता, जिसने मेरी रक्षा की, कहाँ अंतर्ध्यान हो गया, एक रहस्यमय प्रश्न बन गया । मेरी अनुभूति यह विश्वास दिलाती है कि slaughter house के उद्घाटन के समय जो घटना हुई वह मात्र एक अनहोनी, coincidence अथवा कोई जादू, या चमत्कार नहीं था, वह वास्तव में हम पर हुई हमारे कुलदेवता की विशेष कृपा का एक जीवंत उदाहरण था । वह मेरे कुलदेवता संकटमोचन श्री हनुमानजी ही थे जिन्होंने मेरे प्रपितामह को झूठे दोषारोपण के केस में मिलने वाले मृत्युदंड से बचाया फिर उन्हीं का तीर्थ यात्रा का गंतव्य बदल कर श्री जगन्नाथजी की त्रिमूर्ति के सामने प्राण त्यागने का विधान पूर्ण किया, जो मेरे पिताश्री का मार्ग प्रदर्शित कर गये थे और अब मेरे लिए नन्हे फरिश्ते के रूप में प्रगट हुए थे ।

कहो उरिण कैसे हो पाऊं, किस मुद्रा में मोल चुकाऊं ।
केवल तेरी महिमा गाऊं, और मुझे कुछ भी न आता ॥


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