हनुमत कृपा - अनुभव साधक साधन साधिये
साधन - भजन कीर्तन ( २ ९ ० )
प्यारे स्वजनों ! एक सिद्ध महापुरुष से सुना: " परमात्मा ,"जीव" को , उसके प्रारब्धानुसार अपना "यंत्र" बनाकर एक विशिष्ट "शरीर" में स्थापित कर के इस धरती पर उतारता है ! यह "यंत्र" -"मानव शरीर" है जिसे मानस में तुलसी ने अति सक्षम -"साधन धाम एवं मोक्ष कर द्वारा " बता कर अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है !
ईश्वर ने "जीव" को "मानव तन रूपी यंत्र" तो दे दिया पर उसके रखरखाव के नियम और उस यंत्र को चलाने की विधि उस अबोध जीव को नहीं बताई ! ऐसा समझिये किसी 'कार' प्रेमी व्यक्ति को "मर्सिडीज़-बेन्ज़" अथवा "बी.एम्. डब्लू" की लेटेस्ट सुपर डि लक्स ओटोमेटिक 'कार' भेंट में मिल जाये , लेकिन उस मॉडल का "मेनुअल" उसे न दिया जाय ! सोच कर देखें भारत में १९७० - ८० के दशक तक केवल एम्बेसेडर, फिअट ,स्टेंडर्ड हेराल्ड चलाने वाले को यदि उपरोक्त कोई गाडी मिल जाये तो एकाएक वह उसे कैसे चला पायेगा ! 'जीव' की भी कुछ ऎसी ही स्थिति है ! जीव को "मैंन" रूपी मशीन तो मिल गयी लेकिन उस मशीन को ठीक से रखने और चलाने की विधि सिखाने वाला कोई "मैनुअल" उसे नहीं उपलब्ध हुआ है !
भाई ! पर वास्तव में हमारा उपरोक्त कथन सर्वथा असत्य है ! झूठा आरोप लगा रहे हैं ह्म
उस कृपानिधान पर जिसके लिए तुलसी ने कहा है :
आकर चारि लच्छ चौरासी ! जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी !!
फिरत सदा माया कर प्रेरा ! काल कर्म सुभाव गुन घेरा !!
कबहुक करि करुणा नर देहीं ! देत ईश बिनु हेत सनेही !!
सोच कर देखें, "जीव" पर अतिशय करुणा कर के उसे दुर्लभ मानव शरीर प्रदान करने वाला वह 'परमपिता' क्या कभी अपनी सन्तान ,अपने ही अंश 'जीव आत्मा' पर इतनी क्रूरता कर सकता है क़ि एक तरफ तो उसको ऐसा 'सक्षम यंत्र' प्रदान करे और दूसरी ओर उस यंत्र को भली भांति संचालित करने के साधन उसे न दे !
प्रियजन ,यदि जीव आँखें खोल कर चारोँ ओर देखे तो उसे हर दिशा में उसे अपने '" प्यारे पिता"' द्वारा दी हुई 'मेनुअल' पुस्तिका के प्रष्ठ बिखरे हुए दिखायी देंगे ! जन्मोपरांत जीव को दसों दिशाओं से 'प्रकृति' आच्छादित कर लेती है और वह पल भर को भी 'प्रकृति' के घेरे से विलग नहीं होता !
वास्तव में 'प्रकृति' का कण कण , जीव के उस मानव संयत्र को कुशलता से संचालित करने का 'गुर' जानता है ! "प्रकृति" है 'मानव मशीन' का प्रथम 'मेनुअल' ! आपने सुना ही होग़ा क़ि अवधूत ब्र्ह्मवेत्ता दत्तात्रेय के चौबीस गुरु थे : प्रथ्वी ,वायु ,आकाश ,चन्द्रमा , सूर्य ,अग्नि, जल ,चन्द्रमा ,सूर्य ,हिरन ,मछली ,कबूतर ,अजगर ,सागर , मधुमक्खी आदि जो सब के सब इस 'प्रकृति' के ही अंश हैं !"जीव" के मानव स्वरूप के मातापिता और उसके पाठशाला के गुरुजन भी तो प्रकृति के ही अंश हैं जिनसे वह सार्थक जीवन जीने की कला तथा विधि विधान सीखता है ! ये सब उस 'परमपिता' ने ही 'जीव' को उपलब्ध कराए हैं ! ह्म झूठा ही आरोप लगा रहे थे आपने परम पिता पर -
उसके बाद आगे बढिए ,प्यारे प्रभु की कृपा से किसी किसी सौभाग्यशाली जीव को उसकी आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग दर्शन करने के लिए उचित समय पर उसके "सद्गुरु " भी मिल जाते हैं , जिससे तुलसी का यह कथन क़ि "बिनु हरि कृपा मिलहि नही संता" चरितार्थ हो जाता है !
प्रियजन , प्रियतम प्रभु की कृपा ह्म सब पर हुई और उन्होंने उचित समय पर हमे प्रदान किये ह्मारे सद्गुरु - श्री स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज ,जिन्होंने ह्मारे ऊपर अति अनुकम्पा करके हमे दिया आध्यात्मिक जीवन जीने की कला सिखाने वाला हमारा वह अनमोल "मैनुअल" जिसका नाम है "अमृतवाणी" !
"जय होवे गुरुदेव तुम्हारी जय होवे"
"परम गुरू जै जै राम "
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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