मेरे जीवन में आजीविका के लिए धनोपार्जन की कर्मभूमि उस सत्य अनुभूति की कहानी है जिसने मेरे जैसे 'लौह खंड' को "सुवर्ण" में परिवर्तित कर दिया । धनोपार्जन का जो साधन मुझे पूर्वजन्मो के कार्मिक लेखा-जोखा के विधान से, कुलदेवता महावीर हनुमानजी की कृपा से, तत्कालीन पारिवारिक परिस्थिति तथा माता-पिता के आशीर्वाद से एवं अपनी क्षमता से मिला वह था "चर्मकारी" । आजीविका के लिए धनोपार्जन के क्षेत्र में मेरा पदार्पण हुआ उस क्षेत्र में जो मेरी प्रकृति, रुचि, शब्द-स्वर-गायन संयोजन के बिलकुल विपरीत था । आयल टेक्नोलोजिस्ट्, संगीतनिदेशक, सिने कलाकार बनने का स्वप्न संजोये "भोला" बन गया "रैदास"की भांति चर्मकार । रैदास जी तो पके हुए चमड़े के जूते बनाते थे लेकिन मुझे गाय-भैंस और भेड-बकरियों की कच्ची खाल को पका कर उसमे रंग रोगन लगा कर उसे जूता बनाने लायक चमकदार चमडे का स्वरूप प्रदान करने का काम मिला था ।
सोचा था क्या, क्या हो गया ? आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास । सोच यह थी कि बनारस हिंदु विश्व विद्यालय' के 'कोलेज ऑफ टेक्नोलोजी' से ऑयल [तेल] टेक्नोलोजी पढ़ी है, स्नातक की डिग्री प्राप्त की है तो अब "केंथरायोडीन " जैसा खुशबूदार हेयर आयल और "पियर्स" जैसा ट्रांसपेरेंट बाथ सोप बनाने का कारखाना लगाएंगे पर विधि के विधान का मारा "भोला" रोज़ी रोटी कमाने के लिए पकाने लगा चमड़ा ।
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के भारतीय तथा अन्य महाद्वीपों के सैनानियों को जूते और कपड़ों की आपूर्ति करने के लिए अंग्रेज़ी शासन काल में टेक्सटाईल मिलों' के शहर 'कानपुर' में एक सरकारी 'आयुध निर्माणी' [ऑर्डिनेंस फैक्टरी'] गवर्नमेन्ट हार्नेस एन्ड सैडलरी फैक्ट्री कानपुर, जो आज “ऑर्डिनेन्स ईक्यूपमैंट फैक्ट्री “के नाम से प्रख्यात है, की स्थापना हुई थी । २१ अप्रैल १९५१ से ३० अक्टूबर १९५३ तक उसमें मैंने सिविलियन नॉन गजटेड ऑफिसर्स एप्रैन्टिसशिप की ढाई साल की ट्रेनिंग ली । इसमें ८५ रु. बुनियादी और ६५ रु. भत्ता मिला कर १५० रूपये मुझे मासिक आय के रूप में मिलते थे । ट्रेनिंग पूरी होने पर इसी फैक्ट्री में मेरी नियुक्ति सुपरवाइज़र ग्रेड "A " के पद पर हो गयी ।
ट्रेनिंग चमड़ा पकाने के उद्योग की थी अतः जानवरों के कच्चे चमड़े का निरीक्षण करना, उसे पकाने की प्रक्रिया का निरीक्षण करना, उससे उमड़ते दुर्गन्धमय वातावरण में अल्पशिक्षित मजदूर वर्ग की गाली-गलौज से पगी आपसी बातचीत को सुनते हुए उनसे कार्य करवाना, मेरा कार्य था । सप्ताह के छः दिन, प्रात ७ बजे से शाम के ५ बजे तक मैं उस आयुध निर्माणी की ऊंची ऊंची दीवारों के बीच फौजियों के लिए 'आर्मी बूट' बनाने और उन बूट्स के लिए, गाय भैंस की कच्ची 'खालों' [hides and skins] का शोधन [Tanning] करवाकर, उनसे 'चमडा' [leather] बनवाने के काम में व्यस्त रहने लगा।
जीवन में मैंने किसी भी परिस्थिति का तिरस्कार नहीं किया । प्रभु ने जो भी अवसर मुझे दिए, उन्हें मैंने उनका वरदान माना, उनका सदुपयोग किया । हनुमानजी की कृपा से जो भी कार्य करने को मिला, उसे पूरी लगन और ईमानदारी से "राम काज" समझ कर किया । मैंने अपने सभी कर्मों का करने वाला कर्ता या "यंत्री "अपने इष्ट को ही माना और स्वयं को अपने "इष्ट देव" के हाथों द्वारा संचालित औज़ार । मुझे अपने इष्टदेव से प्राप्त प्रेरणाओं पर पूरा भरोसा था, इसलिये में सदैव आज्ञाकारी सेवक बन कर उनके द्वारा दिए निदेशों को पालन करने का भरसक प्रयत्न करता रहा ।
हार्नेस फैक्ट्री घर से तीन मील दूरी पर थी, सायकिल से आया जाया करता था । एक दिन मनोरंजक घटना घटी, जो अब तक याद है । मैं हार्नेस फैक्ट्री जा रहा था, सम्भवतः उस दिन सोमवती अमावस्या थी । सरसैया घाट से ले कर फैक्ट्री तक मार्ग फल-फूल की दुकानों, भिखारियों की कतारों और गंगा स्नान के लिए आने जाने वाले श्रद्धालुओं से भरा हुआ था । मैं सावधानी से साईकिल चलाते हुए एक टोली के भक्ति भाव से भरे गीतों की स्वरलहरी के आनंद लेते हुए चला जा रहा था कि प्रसाद पाने का इच्छुक एक लंगूर मेरी सायकिल के पीछे वाली सीट पर बैठ गया । उसे आशा थी कि मुझसे कुछ भोज्य पदार्थ उसे मिल जाएगा । मेरा भोजन तो डिब्बेवाला फैक्ट्री पहुंचाता था, मेरे पास तो कुछ था ही नहीं । कुछ क्षण बाद वह मेरे कंधे पर सवार हो गया । अपने हाथ मेरे सिर पर रख दिये और दुम हिला कर इधर-उधर, दाएं-बाएं देखना शुरू किया जिससे मेरा संतुलन बिगड़ा, मैं भय भीत हो गया । चारों ओर आसपास से, राहगीरों की आवाज़ें सुनायी देने लगीं "घबड़ाना नहीं, घबड़ाना नहीं "। इतने में पास से एक रिक्शा निकला जिसमें गंगास्नान करके लौट रहीं महिलाएं सवार थीं । लंगूर महाशय प्रसाद पाने के लिए उस रिक्शे पर कूद गये, मेरी जान बच गयी । आज भी यह संस्मरण सिहरन दे जाता है ।
हार्नेस फैक्ट्री में उस ज़माने में तरक्की पाने का आधार कार्यक्षमता या पुरुषार्थ नहीं था । किसी वरिष्ठ अधिकारी के सेवा निवृत्त हो जाने पर ही तरक्की की सूची आगे बढ़ती थी । ऐसे में उन दिनों मेरी मनः स्थिति कैसी होगी, आप ज़रूर ही अंदाजा लगा सकते हैं । कभी कभी जी में आता था कि मैं भी अर्जुन के समान हथियार डाल दूँ । अर्जुन को माध्यम बनाकर श्रीकृष्ण ने समग्र मानवता को निष्काम कर्मयोग का संदेश दिया और क्रियाशील व्यक्तियों को निज विवेक के प्रकाश में हाथ में लिए कार्य की पूर्ति तक पूर्ण समर्पण के साथ सतत कर्तव्य परायण बने रहने तथा पलायनवाद से बचने का उपदेश दिया । योगेश्वर श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अपने प्रिय सखा 'अर्जुन' को गीता सुना कर तथा अपने वास्तविक विराट स्वरूप का दर्शन करवाकर उसकी सुषुप्त आत्मचेतना को जाग्रत किया; उसे अपना निर्धारित कर्म करने को प्रेरित किया । उनकी तरह मेरे सम्पर्क मे तब तक कोई ऐसा प्रबुद्ध महापुरुष नहीं था जो मेरा मार्ग दर्शन करता, फिर भी मुझे मिले मेरे पथ-प्रदर्शक, मेरे वरिष्ठ अधिकारी, मित्र की भांति मुझसे प्रेम करने वाले, श्री विजय कुमार मित्रा । उन्होंने मेरे अंतर्मन में उफनते तूफ़ान को देखा, मेरी आत्मपीड़ा को आंका और मेरा पथ प्रदर्शित किया ।
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