जब परमपिता परमात्मा की अहैतुकी कृपा हो, जन्म जन्मातरों के पुण्य और सत्कर्मों का परिपाक हो, अहम और मम को गृहस्थाश्रम की वेदी पर चढाने की क्षमता हो, विश्वास और सन्तोष हो, तो गृहस्थाश्रम में स्वर्गिक आनंद मिलता है, आत्मिक सुख-शान्ति मिलती है । जीवन में पूर्णत: सफल होने के लिए प्रत्येक दंपत्ति को पूरी निर्भयता से, अविचल संकल्प तथा दृढ़ निश्चय के साथ, अपनी सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुए, गृहस्थ जीवन की सुख-समृद्धि के लिए, निर्धारित कर्तव्य कर्म-धर्म अति प्रसन्न मन से करते रहना चाहिये ।
अपने सुख-शांतिमय दाम्पत्य जीवन के विषय में स्वयं अपने मुख से कुछ भी कहना अहंकार व दम्भ से प्रेरित हो अपने मुँह मियाँ मिटठू होने जैसा प्रयास ही कहा जायेगा । हम दोनों हैं तो साधारण मानव ही, अतः शंकाओं से घिरना, चिंता से घबराना, क्रोध करना और छोटी से छोटी बात पर दुखी होना हमारा भी जन्म सिद्ध अधिकार है । परन्तु परम प्रभु की अहेतुकी कृपा हम दोनों पर सदैव ऐसी बरसती रही है कि उससे प्राप्त आत्मशक्ति से जीवन की विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में एवं आपसी मतभेद होते हुए भी मानसिक संतुलन बना रहा और हमे इनसे जूझने की शक्ति मिलती रही ।
महापुरुषों का कथन है कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के बाद ऐसा जीवन जियो जिससे परिवार में "सद्गुणों" एवं 'सद्-धर्म" का प्रचार-प्रसार-विस्तार हो, कथनी और करनी में सबका कल्याण करने की भावना हो, अपने इष्ट का अनन्य आश्रय हो, परस्पर प्रगाढ़ प्रीति हो । हम दोनों ने सदा इन्हीं मूल्यों को अपने जीवन में उतारने का यथासम्भव प्रयत्न किया है ।
निज आत्मकथा में अब तक मैंने अपने ऊपर प्यारे प्रभु के द्वारा की हुई अनंत कृपाओं की संदर्भानुसार चर्चा की है जिनकी अनुभूति के रोमांचक क्षणों की स्मृति का वर्णन करते समय वर्षों पूर्व के अविस्मणीय क्षण और चिरन्तन दृश्य मेरे सन्मुख जीवन्त हो उठते हैं । आज स्मृति की बीथियों में विचरती हमारी आँखों के सामने हमारे दाम्पत्य जीवन के पिछले ६० वर्ष के वे मनोहारी चित्र जीवंत हो रहे हैं जो उस "महान-अदृश्य-चित्रकार" ने बड़े प्यार से हमारे जीवन के कैनवैस पर चित्रित किये और जिनका सुदर्शन हमे आज भी आनंदरस प्रदान किये जा रहा है ।
इनमें १९५६ के "२७ नवम्बर" के दिन गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर जो विशेष कृपा "उन्होंने" "भोला-कृष्णा" नव दंपत्ति पर की, वह अति महती थी, अनमोल थी ।
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए वैदिक और लौकिक रीति से मन्त्रोच्चारण के साथ वैवाहिक प्रक्रिया सम्पन्न करने-कराने का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्व है । विवाह को जन्म-जन्म के सम्बन्ध का प्रतीक माना जाता है । दाम्पत्य जीवन और आजीविका अर्जन के सम्मेल में गृहस्थाश्रम के नियम-धर्म के प्रतिपालन से जीवन दिव्य बनता है । इसलिए मुझे गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट कराने की विधा में मेरे माता-पिता की सम्मति से मेरा विवाह-संस्कार ग्वालियर निवासी श्री शिवदयाल, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट की बहिन, स्वर्गीय श्री परमेश्वरदयाल की आयुष्मती कन्या "कृष्णा" के साथ २७-११-१९५६ को होना निश्चित हुआ ।
मेरे बाबूजी श्री बदरीनाथ जी स्वजन-सम्बन्धियों, बड़का बाबूजी श्री केदारनाथ, भैया श्री जगन्नाथ प्रसाद, श्री गजाधर प्रसाद, मेरे मित्र सतपाल और रमेश रस्तोगी, मेरे भतीजे रवि, छवि, शशि को लेकर ग्वालियर रवाना हुए । झांसी पर श्री शिवदयालजी के धर्म-भतीजे प्रकाश शर्मा ने बरात का स्वागत सत्कार किया, स्वादिष्ट भोजन कराया, फिर जब हम सब बाराती ग्वालियर पहुचे, तब आगवानी करके हमें बिरला गेस्ट हाउस में ठहराया गया, जिसे उस ज़माने में जनवासा कहा जाता था ।
सन्ध्या काल गो धूलि की बेला में, मैं दूल्हा बन कर, 'सिंधिया राज' की चार सफेद घोड़ों वाली शानदार बग्गी पर सवार होकर "बोले कि भाई 'बम', बोले के भाई 'बम'-भोले", "बम बम भोले" का कानपुरी नारा लगाते अपने इष्ट- मित्रों और सगे सम्बन्धियों सहित के साथ हर्षोल्लास के साथ परमेश्वर भवन की ओर चला । मेरे जीजाजी श्री कृष्णपाल सिंह तथा अन्य मान्य स्वजन हाथी पर सवार थे । बेंड बाजे की धुन के साथ घुड़सवार अपने करतब दिखाकर बरात की रौनक और उसकी उमंग-उल्लास में चार चाँद लगा रहे थे । बाराती उनका तथा आतिशबाजी का मज़ा ले रहे थे ।
मार्ग में पण्डित राम अवतार शर्मा, श्री मुरारीलाल पवैया आदि गणमान्य मित्रों का केसर युक्त दूध और मिष्ठान का स्वागत सम्मान स्वीकार करते हुए हम सब मुरार के 'कोतवाली सन्तर में स्थित परमेश्वर भवन के द्वार पर पहुँच गए ।
यह घर मेरे दिवंगत स्वसुर श्री परमेश्वर दयाल जी का निवास स्थान है । वह ग्वालियर राज्य के सीनियर एडवोकेट थे तथा राज्य के मजलिसे आम [लोक सभा] तथा मजलिसे कानून [लेजिस्लेटिव कौंसिल] के सदस्य भी थे । स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने खुल कर गांधीजी का सहयोग किया, हाथ ठेले पर लाद कर वह घर घर जाकर "खादी" बेचते थे । वह आजीवन हेतुरहित समाज सेवा करते रहें । अति गोपनीय रख कर उन्होंने कितने ही निर्धन विद्यार्थियों की पढाई की व्यवस्था की तथा अनेकों निर्धन कुमारियों के विवाह में आर्थिक सहायता की । उन्होंने निजी बल बूते से "मुरार" में पब्लिक लाइब्रेरी व रीडिंग रूम की स्थापना की परन्तु इन संस्थानों के साथ उन्होंने स्वयं अपना अथवा अपने परिवार के किसी सदस्य का नाम नहीं जोड़ा ।
उनके निवासस्थान परमेश्वर-भवन के आगे विलक्षण मण्डप सजा हुआ था, वहां स्वागत-सत्कार हुआ, मन्त्रोच्चारण की गूंज के साथ द्वारचार हुआ, चांदी के बर्तनों में स्वादिष्ट पकवानों के अमृत-तुल्य स्वाद के साथ रात्रि भोज हुआ, फिर सब बराती मुझे नाऊ के साथ बैठक में बिठा कर जनवासे वापिस चले गए, क्योकि भाँवर का महूर्त दो बजे प्रातः का था ।
अब मेरा हाल सुनिये । अनजानी जगह, सभी अपरिचित, अकेला बैठक में बैठा, इधर उधर झाँका, लघुशंका के लिए उठा तो नगाड़ा बजने लगा, समझ न आये कि क्या करूँ, कहाँ जाऊं । महूर्त का समय निकट आया, सामने बिछे पाँवड़े पर चलकर घर के मण्डप की ओर बढा, मंगलगान के साथ पूज्य जनों ने परिछन किया, मंगलद्रव्य से स्वागत हुआ, मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा-पाठ प्रारम्भ हुआ ।
मण्डप में सुबह दो बजे प्रविष्ट हुई पीली साड़ी पहिने, घूंघट निकाले सजी धजी कन्या, जो मेरी सहधर्मिणी बनने वाली थी । फिर वैदिक-लौकिक रीति के अनुसार मन्त्रोच्चारण की गूंज के साथ विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ, पाणिग्रहण संस्कार हुआ, भाँवरें पड़ी, सिन्दूर-दान हुआ, आशीर्वचन के साथ हम दो जाने-अनजाने पंछी को विस्तृत आकाश में अपना नीड़ बनाने के लिए तैयार कर दिया गया । अभी तक एक दूसरे ने अपने चिर साथी को देखा नहीं था । फिर भी इस दाम्पत्य बन्धन से हम दोनों सहचर और सहधर्मी बने और हम दोनों के गृहस्थाश्रम का श्रीगणेश हो गया । दूल्हे के रूप में क्या कर्म-धर्म है, मैं इससे अनभिज्ञ था ।
दूसरे दिन २८-११-१९५६ की शाम को विवाहोपरांत आयोजित रिसेप्शन से पहिले मेरी बड़ी साली मनोरमा जीजी ने मुझे मेरी पत्नी कृष्णा से मिलवाया, परिचय कराया, कहा "ठीक से पहिचान लीजिये " । पहिचानना तो दूर की बात है, ठीक से देखा भी नहीं, मुलाक़ात हुई, पर बात नहीं हुई, आरज़ू मन मसोस कर रह गयी ।
इस प्रीतिभोज की आलीशन व्यवस्था, आवभगत देख कर, इसमें अजेय-अनिल द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देख कर सारे बाराती आल्हादित थे, इससे पहिले सुबह में वे ग्वालियर के दर्शनीय स्थल और आगरा भी घूम कर आये थे अतः बहुत प्रसन्न थे । मैं तो सुबह कुवँर कलेवे की रस्म का आनंद ले रहा था ।
प्रीतिभोज में पधारे मध्यभारत के भूतपूर्व राज प्रमुख महाराज जीवाजी राव सिंधिया और महारानी विजया राजे सिंधिया । उन से तथा ग्वालियर राज्य के गणमान्य प्रतिष्ठित स्वजनों से मेरी और मेरे पूज्यनीय पिताश्री एवं स्वजनों की भेंट हुई, फोटो भी खीचीं गईं । ग्वालियर बुधवार २८-११-५६ के दैनिक नवप्रभात में भोला-कृष्णा नवदम्पति की फोटो वहां के स्वजनों की शुभकामनाओं के साथ छपी ।
फोटो की बात करते करते सहसा मुझे अभी अभी उसकी भी कहानी याद आ गयी । आपको भी सुना ही दूँ । प्रियजन, जब हम विवाह के बाद पहली बार ग्वालियर गये, हमे पेलेस [महल] से खाने पर आने का निमंत्रण मिला । खाने की मेज़ पर राजमाता ने, वही उनके साथ वाला मेरा चित्र दिखा कर हंसते हंसते कहा था, "भोला बाबू यह फोटो कृष्णाजी को नहीं दिखाइयेगा, हम दोनों की ऐसी हंसी देख कर वह न जाने क्या सोचे" । राजमाता के इस कथन पर कृष्णाजी तो हंसी हीं, मेज़ पर बैठे सभी लोग हँस पड़े ।
एक और उल्लेखनीय बात याद आयी । हम भोजन कर ही रहे थे कि राजमाता के पास एक अति आवश्यक टेलीफोन काल आया जिसे सुनने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, "भोला बाबू, आज के दिन आपका यहाँ आना हमारे लिए बड़ा शुभ रहा, इंदिरा जी का फोन था, नेहरू जी हमसे मिलना चाहते हैं, वह हमे ग्वालियर से लोक सभा का सदस्य बनवाना चाहते हैं ।" हम सब ने उन्हें खूब खूब बधाई दी । शायद उस बार वह पहली बार चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीत कर "एम पी" बनीं । आगे का इतिहास दुहराने से क्या लाभ ? हाँ, एक बात अवश्य बताऊंगा कि उस महल के भोजन के बाद राजमाता विजयराजे सिंधिया के जीवन काल में मैं उनसे या उनके पुत्र माधव राव से एक बार भी नहीं मिला ।
सारी वेद रीति, लोक रीति, कुलरीति सम्पन्न होने ने अनन्तर २९-११-५६ को अंतरतम छू देने वाली मङ्गलमयी बिदा बेला आई । सभी आत्मीय जन विकल हो गए, मेरे पूज्य साले श्री शिवदयालजी ने अश्रुपूरित ममता सजोये आशीर्वचनों के साथ बिदा करते हुए मेरी जीवन संगिनी को मुझे सौंप दिया । फिर रेलवे स्टेशन पर कृष्णा के साथ ही मुझे सौंपा मनोरमा जीजी ने एक चश्मा और हिदायत दी कि सम्भाल कर रखियेगा, कृष्णा का चश्मा है । आशाओं और आशंकाओं से प्रकम्पित भावनाओं ने ज़ोर मारा, यह क्या --चश्मा -- अरे मेरी तो एक ही आकांक्षा थी कि जीवन संगिनी चश्मे वाली न हो । मेरे कुलदेव ने मुझे सद्बुद्धि प्रदान की, मैं मौन रहा, चश्मे की सहज सम्भाल की । फिर यह भाव प्रबल हुआ कि मुझे आशाओं से कहीं अधिक मिला तो इस नगण्य अनिच्छा को क्यों भाव दूं ? प्रकृति के विधान के साये में निकट आते हुए दो हृदय के बीच इसे क्यूँ स्थान दूं ?
जब झांसी स्टेशन के प्रतीक्षालय में अपनी चिर संगिनी की छवि निहारी, कुछ बातचीत हुई तो मन में शंका आशंका मिट गयी, मेरी जीवनसंगिनी मुझे काल्पनिक आशाओं से अधिक मनमोहक और सौम्य लगी । ऐसा लगा कि हम जन्मजन्मातरों से सद्भावनाओं, स्नेह के बन्धन में बंधे एक हैं । मन ही मन अपनी प्यारी अम्मा को धन्यवाद दिया, उनके प्रति अपना आभार व्यक्त किया जिन्होंने अपने हाथ का कंगन उतार कर शुभाशीष के साथ कृष्णा को पहिना कर मेरी सहधर्मिणी बनने के लिये चुना था । उनकी सूझ-बूझ को शत शत नमन ।
एक और पते की बात बताऊं, मैंने बातों ही बातों में कृष्णा से रामचरितमानस के शिव-पार्वती प्रसंग की चर्चा की और उसके परिवेश में कृष्णा को समझा दिया कि मुझे दुराव-छिपाव, झूठा व्यवहार पसन्द नहीं है, सत्य की राह पर चलना ही मेरा जीवन मूल्य है । मुझे गर्व है कि कृष्णा ने आज तक इसका ध्यान रखा, पालन किया, कभी कहने सुनने का मौका नहीं दिया । दाम्पत्य जीवन ही तो गृहस्थाश्रम के धर्म-कर्म की साधना का क्षेत्र है ।
अतीत के इन पन्नों को पलटते हुए दृश्यगत हुआ, विवाहोपरांत ससुराल से मिला अध्यात्म-पथ प्रशस्त करनेकी क्षमता रखने वाला अनूठा उपहार "उत्थान-पथ" ।
जब मैं अपनी नयी नयी बनी धर्मपत्नी को पहली बार ग्वालियर से विदा करवा कर ला रहा था, चलते चलते ससुराल पक्ष के किसी विशिष्ट व्यक्ति ने मेरे हाथ में एक पुस्तिका पकड़ाई थी जिसका नाम था "उत्थान पथ" । यह पुस्तिका हमारे राम परिवार के मुखिया धर्म पत्नी कृष्णा जी के पितृतुल्य बड़े भाई दिवंगत माननीय श्री शिवदयालजी, भूत पूर्व, चीफ जस्टिस ऑफ एम. पी. हाईकोर्ट ने प्रभु श्रीराम की प्रेरणा से रामचरितमानस की चौपईयो और श्रीमद भगवदगीता के श्लोकों में निहित सूत्रों का चयन करके गृहस्थों को दिव्य जीवन जीने की कला को सिखाने के लिए प्रकाशित की थी ।
उन्होंने यह मुझको ही नहीं अपितु सभी स्वजन-सम्बन्धियों को उपहार स्वरूप दी थी । इसे पा कर मुझे इस सर्वमान्य जीवन-मूल्य का आभास हुआ कि गृहस्थ के लिए जीवन-निर्वाह के साधन और आत्मोत्थान के साधन एक ही सिक्के के दो पहलू है ।
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