प्रकृति में व्याप्त ध्वनियाँ जो मनुष्य के जन्मते ही उसके मन-मस्तिष्क को स्पर्श कर उल्लसित करती हैं वही स्वर और लय में बंधकर मधुर रस की अनुभूति करा के गायन बन जाती हैं । १९२९ में जब मेरा इस जगत में पदार्पण हुआ, तब भारत में ब्रह्म महूर्त में घर घर का वायुमण्डल प्रणवाक्षर ॐ के नाद से और भारतीय नारियों के भाव भरे लोकगीत और भजन से गुंजायमान रहा करता था । मैं शैशव में अपनी बूढ़ी दादीमाँ "ईया" के साथ उनके बिस्तर पर ही सोये हुए उनसे प्रतिदिन भोर-बेला में भजन सुना करता था, जिनमें असाधारण करुणा, पीड़ा और कृपा प्राप्ति की पिपासा समायी रहती थी । जब वह संत सूरदास का पद "हे गोविन्द राखो सरन" गाती थीं, तब उनके गायन से, उनकी वाणी से ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह किसी परिचित को पुकार रही हैं । वह नित्य ही अपने ठेठ भोजपुरी लहजे में मीराबाई का एक पद गातीं थीं "जागाहे बंसी वारे लाला जागाहे नन्द दूलारे" । उनके इस भजन के गायन की विशेषता यह थी कि शब्दों के फेर बदल के साथ वह इस भजन को किसी एक विशेष राग में गातीं थीं, जिसे वह "परभाती" कहतीं थीं ।
उस छोटी उम्र में उनसे सुने वे गीत, वे पद, उनके स्वर, उनकी गायकी, मेरे मन मस्तिष्क में इतनी गहराई से पैठ गये कि जब १९५१ में छोटी बहन माधुरी के रेडियो प्रोग्राम में गाने के लिए रेडियो स्टेशन से "शेड्यूल" किया मीराबाई का वही पद आया जिसका भोजपुरी रूपान्तर मैंने अपनी दादी से बहुत बचपन में सुना था, तुरंत ही मुझे दादी की वह प्रभाती राग की बंदिश याद आई और मीराबाई का वह पद उस बंदिश में 'चूल ब चूल' बैठ गया, जिसे सभी ने सराहा ।
हमारी अम्मा बिहार की थीं, वह भी बिहार के भोजपुरी लोकगीत, बंगाली पारम्परिक भक्ति गीत बाउल" एवं "मीराबाई" के पद बहुत शौक से गाती थीं । उनकी भी विशेष धुनें और "प्रभाती राग" की बंदिश जो उस समय मेरे मन में समा गयी थी, आज तक मेरे मन मंदिर में गुंजायमान है । गायन के लिए मधुर कंठ तथा एक बार सुन कर राग रागनियों को सदा के लिए मन में बसा लेने की क्षमता एवं प्रतिभा कदाचित प्रभु ने मुझे जन्म से ही प्रदान कर रखी थी । अतएव ईश्वरप्रदत्त नैसर्गिक प्रतिभा के अतिरिक्त संगीत-कला के प्रति मेरी रुचि, निष्ठा और प्रेम का श्रेय मेरी ईया और अम्मा को जाता है ।
अपने जन्मजात सस्कारों और स्वभाव के कारण संगीत-प्रेमी हम चारों भाई बहनों को हमारे कुछ मित्र और सम्बन्धी 'गन्धर्व' कह कर पुकारते थे और आस पास के कुछ प्रबुद्ध जन और पड़ोसी "पिता श्री" द्वारा बनवाए हमारे घर 'लाल विला' को "गन्धर्व लोक" कहा करते थे । क्यूँ ? क्योंकि नित्यप्रति प्रातः काल की अमृत बेला से शुरू होकर, मध्य रात्रि तक हमारे घर की प्राचीरों के बीच उठतीं मधुर संगीत की तरंगें आस पास के सभी घरों को आच्छादित और पड़ोसियों को आनंदित करती थीं । पुराण कहते हैं कि इन्द्रदेव की सभा में गन्धर्व गाते थे, अप्सरा नृत्य करती थीं और किन्नर वाद्य बजाते थे । हमारे यहाँ कुछ ऐसा ही माहौल था । प्रातः सूर्योदय से पहले ही उस घर की प्राचीरें तानपूरे की झंकार से गूँज उठती थी और भैरवी के दिव्य स्वर से मोहल्ले का वातावरण तरंगित हो जाता था । नित्य प्रति अमृत बेला में शुरू हो जाती थी एक विशेष पद्धति में हमारे घर में संगीत की साधना । बड़े भइया अँधेरे में ही उठ कर हम सब को जगाते थे । सुबह पाँच बजे तानपूरा छिड़ जाता था । तानपूरा छेड़ कर हम खरज के "सा" के स्थान पर "ॐ" का उच्चारण करते थे । प्रातः काल में हमारे घर से निःसृत "प्रणवाक्षर" का मधुर नाद न केवल हमारे घर आँगन का माहौल वरन पूरे मोहल्ले के वातावरण को ही पवित्र कर देता था । ओंकार की ध्वनि ही ब्रह्म रूप है । ॐ कार का रियाज़ संगीत-साधना है, समर्पण है, पूजा है । स्वर और शब्द की उत्पत्ति ओंकार से ही हुई है।
दिसम्बर जनवरी की भयंकर ठंढ में भी पड़ोसियों के खिडकी दरवाजे खुल जाते थे, वे कान लगाकर अति श्रद्धा से हम चारों के भजन "जागो बंशीवारे ललना, जागो मोरे प्यारे" आदि सुनते थे और इसी बोल को दुहरा कर अपने लल्ला लल्ली को जगाते थे । मेरे बड़े भैया प्रसिद्ध गायक स्वर्गीय कुंदनलाल सैगल के अनन्य भक्त थे । वह उनकी भैरवी राग की ठुमरी "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" गाकर मुहल्ले की सभी भौजाइयों को उनके नैहर की याद दिला कर रुलाया करते थे । घर में फिल्मी गीत, लोक-गीत के साथ साथ ठाकुर ओंकार नाथ जी, पंडित विनायक राव पटवर्धन जी, पंडित डी. वी. पलुस्कर जी तथा बिस्मिल्लाह खां साहब के शास्त्रीय संगीत के भी एच. एम. वी. के तवे (रिकॉर्ड ) थे, जो बजते रहते थे । रात्रि के समय मालकोंस, बागेश्वरी और दरबारी रागों के ख्याल, भजन और पारम्परिक रचनाएँ गाते गाते उस घर के निवासी, चारों बच्चों ने, "गन्धर्वत्व" (यदि ऐसा कुछ है तो वह) प्राप्त कर लिया था और हमारा घर बन गया था "गन्धर्व लोक"।
१९४५-४६ में "पहली नजर" फिल्म आयी । मैं सोलह वर्ष का था, इंटर में पढता था । हमने फिल्म देखी । फिल्म मे मोतीलाल साहेब की एक्टिंग बहुत स्वाभाविक थी और उनके द्वारा गायी गजल तो कमाल ही कर गयी । वह गजल थी, "दिल जलता है तो जलने दे, आँसू न बहा फ़रियाद न कर "। मैं उस समय से ही इस गजल के गायक मुकेशजी का मुरीद हो गया । यह गजल दिलदार मुकेशजी की दिल सम्बन्धी पहली दिलकश देन थी । इसके बाद भी मुकेशजी ने दिल से सम्बंधित अनेक रचनाएँ गाईं जो मुझे बहुत ही पसंद आयीं थीं और जिन्हें मैं अक्सर गाता भी था । उनमें से कुछ मुझे अभी भी याद रह गयी हैं :-
कभी दिल दिल से टकराता तो होगा, उन्हें मेरा खयाल आता तो होगा।
और
दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है।
हर हाल में जिसने साथ दिया, वो एक बिचारा दिल ही तो है।।
सारा जमाना जानता है कि मैं मुकेशजी का कितना जबर्दस्त फैन हूँ । अच्छी तरह याद है बी. एच. यू. में मेरे सामने दरी पर सिर झुकाए बैठीं देश विदेश से विद्याध्यन हेतु काशी पधारी भारतीय मूल की बालिकाओं की रुचि और उनके पीछे विभिन्न छात्रावासों से आये मद्रासी, पंजाबी, गुजराती, बंगाली तथा उत्तर भारत के सभी प्रदेशों के बालकों के चेहरे और उनका मेरे हर गाने के बाद ज़ोरदार ताली बजाकर, मुझे एक के बाद एक मुकेशजी के गीत गाते रहने का प्रोत्साहन देना, कार्यक्रम के संचालक "रंगनाथ " की फरमाईश पर महफिल का माहौल तब्दील करने के लिए मुकेशजी का एक दूसरा ओज भरा गाना गाना --
मंजिल की धुन में झूमते गाते चले चलो
बिछड़े हुए दिलों को मिलाते चले चलो
इंसानियत तो प्यार ओ मोहब्बत का नाम है ...
इसी सन्दर्भ से जुड़ी मानस पटल पर संचित अनंत स्मृतियों में से वाराणसी प्रवास १९४७-४९ की मधुर स्मृतियाँ, बरबस ही उभर कर साकार हो रहीं हैं। संगीत मार्तण्ड पन्डित ओमकारनाथ जी बी. एच. यू. के संगीत महाविद्यालय के संस्थापक और प्रथम प्राचार्य थे । उन्होंने महामना मालवीयजी की मन्त्रणा से भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार हेतु इस विद्यालय की स्थापना करवायी थी । मुझे बी. एच. यू . में आयोजित उनके एक शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में वॉलंटीअरिंग के बहाने शामिल होने का अवसर मिला । मेरे जीवन का यह पहिला अवसर था जब मुझे ऐसे दिव्य गायक के इतने निकट बैठकर उनका संगीत सुनने का सुअवसर मिला । जाड़े की वह पूरी रात मैंने शून्य से उतरती पूर्ण चन्द्र की शीतल ओस सनी सजल किरणों में भींजते, उनका दिव्य संगीत सुनते हुए काटी ।
पंडित जी के गायन में जो एक प्रमुख विशेषता मुझे उस समय लगी, वह यह थी कि वह कोई भी ख्याल-भजन, कुछ भी शुरू करने के पूर्व कुछ समय को आँखें बंद कर के "ध्यान" लगाते थे और जो पहिली ध्वनि उनके कंठ से निकलती थी, वह प्रणवाक्षर "ॐ" जैसी थी । उनके दिव्य संगीत का आकर्षण था जिसने सैकड़ों संगीत प्रेमियों को विश्वविद्यालय के रुइया हॉस्टल के सामने वाले घास के मैदान में बिना किसी तम्बू-कनात के "नीले गगन के तले, तारों की छैयां में" शीतकाल की शीतल ओस में भींगते हुए बिना किसी शिकवा शिकायत के सारी रात बिठाये रखा । ठाकुरजी के स्वरों की गर्माहट ने उस शीतल रात्रि को इतना गरमा दिया था कि किसी को भी कोई ठिठुरन नहीं हुई । उनके सधे हुए स्वरों के उतार चढ़ाव से हम सब श्रोताओं के रोम रोम एक विचित्र सिहरन से थिरक गये और हम सबकी आँखों से झरती गर्म अश्रु धारा से वह सारी महफिल गरमा गयी । प्रातः कालीन सूर्य की सुनहरी किरणें नीलाकाश में पूर्व दिशा से झाँकनें को उद्धत हो रहीं थीं पर संगीत प्रेमी पंडाल से उठने को तैयार न थे । समापन तो होना ही था । श्रोताओं के विशेष अनुरोध पर पंडित जी ने सूरदास जी का पद गाया --
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
भोर भयो गैयन के पाछे मधुबन मोहि पठायो ।
चार पहर बंसी बन भटक्यो साँझ परे घर आयो ।।
...
यह ले अपनी लकुटी कमरिया बहुत ही नाच नचायो,
सूरदास तब बिहंसि जसोदा, ले उर कंठ लगायो ।।
सूरदास जी की इस रचना में माता यशोदा और बालक कृष्ण के बीच हुई नोक झोंक में जो जो भाव प्रगट हुए, पंडित जी ने अपने कंठ से उन सब भावों का अलग अलग शास्त्रीय राग-रागिनियों और पारंपरिक धुनों द्वारा ऐसा सजीव चित्रण किया कि श्रोतागण को ऐसा लगा जैसे वे "नंदालय" के आंगन में बैठे हैं और वह "बाल लीला" उनके सन्मुख ही हो रही है । वहां का सारा वातावरण परमानन्द मग्न हो गया । सभी अपनी सुध-बुध भूल गये ।
अनुमान लगाओ प्रियजन, कि उस पल वहां उपस्थित हम सब संगीत प्रेमियों की मनः स्थिति कैसी रही होगी ? सबकी छोडिये, मेरी सुनिए । मुझे तत्काल जो आनंद मिला था वह प्रत्यक्ष कृष्ण दर्शन से किसी भांति कम न था । इसके अतिरिक्त पंडित जी के उस कार्यक्रम ने मेरे मन में भजन गायन के भाव जागृत करा दिए और संगीत के लिए एक नयी उमंग ऊर्जा मुझमें प्रवाहित हो गयी । १८ वर्ष की अवस्था में हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान शुरू में मैं केवल मुकेशजी और जनाब रफी साहेब के फिल्मी गाने ही गाता था । पर पंडित ओम्कारनाथ ठाकुर के संगीत के प्रभाव से मुझमें एक चमत्कारिक परिवर्तन हुआ, गायन के क्षेत्र में फिल्मी गीतों के साथ ही भजनों को और पारम्परिक गीतों को प्राथमिकता देनी शुरू कर दी । मेरी संगीत साधना में पंडित नारायण राव व्यास, पटवर्धनजी एवं डी वी पलुस्करजी की गायकी का समावेश हो गया ।
अपने बनारस-प्रवास के दो वर्षों में काशी विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान विभिन्न तत्कालीन विषयों को संजोते हुए समय समय पर जो शब्द-संरचना हुई और उन्हें स्वरबद्ध करके मैंने वहां गाया जैसे -- गणतन्त्र-दिवस पर लिखा और गाया “प्रजातंत्र बन गया, मिट गयी दुःख विपदा की रात“, स्वतंत्रता दिवस से संबंधित रचना ”बन ठन के आ गयी हमारी आज़ादी की रानी", गीत गोष्ठी में स्वरचित गीत गाया -- ”अरे मानिनी मान छोड़ दे” । ये सभी लोकप्रिय रचना रहीं, गुनगुनाई गयीं । इसके अतिरिक्त अपनी छोटी बहिन माधुरी के लिए उसके विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा संगीत प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए गीत लिखे, उन्हें स्वरबद्ध किया, जिन्हें माधुरी ने भावपूर्ण सुरीले स्वरों में प्रस्तुत किया, तब उसे जिसने सुना, उसे सराहा, उसे पुरुस्कार भी मिले । इन सब प्रशंसाओं के फलस्वरूप मुझे संगीत-कला के क्षेत्र में कुछ विशिष्ट कर जाने की प्रेरणा हुई ।
उन दिनों मैं कानपुर के प्रथम संगीत विद्यालय [ College of Music and Fine Arts] के संस्थापक मंडल से जुड़ा हुआ था, जिसके सौजन्य से बालक-बालिकाओं को संगीत एवं नृत्य में प्रशिक्षित करने की भावना से "कॉलेज ऑफ़ म्यूजिक एंड फाइन आर्ट्स, माल रोड" की एक शाखा को अपने मोहल्ले में खोलने की प्रेरणा हुई । १९५० के दशक में ग्वालटोली बाज़ार के मकान के निचले हिस्से में अपने परिचित कला-पारखी सज्जनों के सहयोग से संगीत विद्यालय खोला । म्युनिस्पल गर्ल्स स्कूल के नृत्य के अध्यापक श्री शिशिर रंजन चक्रवर्ती, श्री शरदचंद्र कौशिक, प्राचार्य अवस्थी हमारे सहयोगी और प्रबंधक रहे । इसका उद्घाटन प्रसिद्ध सितारवादक श्री रविशंकरजी ने और संगीत विज्ञ पुरुषोत्तम दास जलौटा और संगीतज्ञ विद्यानाथ सेठ ने किया । पर तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति के कारण उस समय संगीत-कला का प्रदर्शन और उसकी गोष्ठी में बालक-बालिकाओं का भाग लेना समाज की संकीर्ण विचार धारा के कारण अभिनंदनीय नहीं समझा जाता था, अतः विद्यार्थियों की संख्या नगण्य सी रही और चार-पांच वर्ष में ही वह निष्प्राण हो गया, बंद हो गया ।
इसके साथ साथ १९५० में कानपुर में घर में रह कर अपनी प्रैक्टिकल परीक्षा देने की तैयारी करते हुए, मैंने माधुरी को आकाशवाणी लखनऊ का कलाकार बनाने की मन में ठान ली । ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से गीत, लोकगीत, भजन के कार्यक्रम को प्रसारित करने के लिए निर्धारित परीक्षाओं में जब प्रथम प्रयास में ही माधुरी अपनी ध्वनि परीक्षा में (ऑडिशन में) उत्तीर्ण हो गयी, चुन ली गयी तो उसकी सफलता पर मैं फूला नहीं समाया । आर्थिक कठिनाइयों के कारण सुयोग्य निर्देशक नियुक्त करना सम्भव न था, इसलिए मैंने ही संगीत निर्देशक की भूमिका निबाही । न हारमोनियम बजाना आता था, न तबला, न माइक था, न अन्य अपेक्षित साज । एक लकड़ी के डंडे को झूठ मूठ माईक की तरह हाथ में ले कर कैसे गाना है, कहाँ, कब और कैसे सांस लेना है और छोड़ना है आदि का समुचित अभ्यास कराया । स्वर, लय और भावों के साथ शब्दों का सही उच्चारण करके उसके समवेत सामंजस्य से भावात्मक गायन के प्रस्तुतिकरण के लिए माधुरी को प्रशिक्षित किया । इस प्रकार स्वर साधना और अभ्यास की नयी विलक्षण रीति कायम की । उन दिनों पहिले से रिकॉर्डिंग नहीं होती थी, वाद्य-वृंदों के साथ तत्काल ही कार्यक्रम प्रस्तुत करना होता था । जून १९५१ में उसका पहिला कार्यक्रम हुआ । माधुरी के मधुर सुरीले भाव भरे गायन ने और उसके मृदुल स्वभाव ने रेडियो स्टेशन के अधिकारियों का और श्रोताओं का मन जीत लिया। मेरी संगीत-साधना ने सफलता के चरण चूमे ।
वीणापाणि माँ सरस्वती की महनीय कृपा से मेरा सपना साकार हुआ । प्रति मास माधुरी के पास आकाशवाणी के सुगम संगीत विभाग से भजन और गीत की पाण्डुलिपि आने लगी, जिन्हें मैं चौबीसों घंटे अपनी जेब में रख कर, घर में, ऑफिस में, काम करते समय, खाना खाते समय, हर जगह, हर समय स्वरबद्ध करने के अभियान में जुट गया । क्योंकि ये भजन और गीत अम्मा दादी आदि से सुने हुए मीरा, तुलसी, सूर आदि के भजन ही नहीं अपितु उनके समकालीन अन्य भक्त जैसे सहजोबाईजी, युगलप्रियाजी, रानी रूपकुंवरि जी तथा मंजुकेशी जी, संत मलूकदास आदि के पद और महादेवी, निराला, जयशंकर प्रसाद, हरबन्स राय बच्चन आदि महा कवियों के गीत, जिन्हें हमने पहले कभी सुना भी नहीं होता था, वहाँ से आते थे, इनके बोल कठिन होते थे, अर्थ आसानी से समझ में नहीं आते थे । मुझे असंख्य बार उनकी पंक्तियों को गुनगुनाना पड़ता था । उनके भाव समझने के लिए एक प्रकार से शोध करना पड़ता था । कभी कभी उनके गूढ़ार्थ को समझ कर मैं आत्मिक आनंद सागर में डुबकियां लगाने लगता था । धुन बनाने में अपनी आत्मा को उंडेल देने के फलस्वरूप इस अंतराल में जितनी धुनें बनायीं, वे आज तक बनी धुनों में सबसे हृदयग्राही और रसमयी रहीं ।
माधुरी के संगीत निदेशन का, आकाशवाणी से आये हुए गीत के स्वर-संयोजन का और नियुक्त अवधि में वाद्य-वृंदों के साथ कार्यक्रम की रसमयी सुंदर प्रस्तुति का भार मेरे ही कन्धों पर था । इसलिए मैं माधुरी का अभिभावक और संगीत शिक्षक बनकर प्रति मास सुगम संगीत के कार्यक्रम के प्रस्तुतिकरण के लिए उसके साथ आकाशवाणी लखनऊ जाया करता था । धीरे धीरे सुगम-संगीत विभाग में कार्यरत अधिकारियों से मेरी जान-पहिचान हो गयी । संगीत विभाग में सुगम-संगीत के अध्यक्ष मुज़ददित नियाज़ी, पंचायती कार्यक्रम के बाबाजी जंग बहादुर जी, गायक हरीश भारद्वाज, वंशीवादक श्री रघुनाथ सेठ तथा श्री विनोद चैटर्जी आदि से हमारे आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो गए । शफाअत अली सिद्दीकी तो मुझे अभिन्न मित्र जैसा भरपूर स्नेह देकर "भोला भाई" कहने लगे और अपनी छोटी बहिन की तरह माधुरी की संरक्षा का पूरा ध्यान रखने लगे । इन सबकी प्रेम भावना का क्या बखान करूँ, परिवार के स्वजन की भाँति सभी हम दोनों पर आशीष बरसाते रहते थे । उनके आत्मीय व्यवहार के फलस्वरूप ही मुझे आकाशवाणी में अनेको गण्यमान विशिष्ट संगीतज्ञों के साथ बैठने का सौभाग्य मिला और उनका भी स्नेहाशीर्वाद प्राप्त हुआ ।
१९५०-६० के दशक में सुगम-संगीत और उससे संबंधित साहित्य के प्रसारण-विभाग के अधिकारी हिन्दी-विज्ञ श्री शफाअत अली सिद्दीकी थे, जिन्होंने हमारी मुलाक़ात बदायूं के (मरहूम) उस्ताद इनायत हुसैन खान के बेटे और रामपुर के (मरहूम) फिदा हुसैन साहेब के नाती गुलाम मुस्तफ़ा साहिब से करायी । उस्ताद तब कानपुर के संगीत महाविद्यालय के प्रोफेसर बृहस्पति जी के साथ मिलकर, आज से लगभग ८०० वर्ष पूर्व मतंग ऋषि द्वारा रचित नाट्य शास्त्र में वर्णित "जति गायन" की भूली बिसरी पद्धति का व्यावहारिक प्रयोग करके उस गायन पद्धति को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे थे । अतः इस शोध-कार्य के कारण उनका कानपुर आना जाना होता ही रहता था ।
मेरे पुरज़ोर अनुरोध पर उस्ताद गुलाम मुस्तफा ने कानपुर में अपने प्रथम शागिर्द के रूप में मुझे और मेरे छोटे भाई जैसे सुगम संगीत प्रेमी संतू श्रीवास्तव को स्वीकार किया । पारम्परिक हिन्दू गुरुजन जिस प्रकार रोली टीका कर के कलाई में 'कलावा' बांधते हैं, सहसवान-रामपुर-ग्वालियर घरानो से सम्बन्धित मुस्लिम काल के संगीत घरानों की परंपरा के अनुसार वैसे ही हमारी कलाई में मुस्तफा साहेब ने "गण्डा" बाँधा, जो मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी । यह मेरा सौभाग्य था कि हम उनके शागिर्द हो गये । औपचारिक विधि से बाकायदा मेरी वास्तविक संगीत शिक्षा शुरू हुई ।
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