हमारी भारतीय भूमि पर प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक देशकाल और धर्म के अनुरूप तत्कालीन प्रचलित गायन पद्धति पर आधारित कंठ एवं वाद्य संगीत की धुनें सदा ही गूंजीं हैं । वैदिक काल के ऋषि मुनियों के मंत्रोच्चारण, ऋषि वाल्मीकि के रामायण गायन तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण के गीता के गायन में जहां शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी लहरायी है वहीं इस कृषि प्रधान देश में खेतिहर किसानों के खेत खलियानों में काम करते समय के गायन में तथा गृहस्थ स्त्रियों के घर के काम काज के मध्य मसाले और अनाज कूटते समय, खाना बनाते समय अथवा दही बिलोते समय स्थानीय बोलचाल की भाषा में गाये गीतों में सदा से सुगम संगीत जीवंत रहा है । शास्त्रीय संगीत से सरल, भावना-प्रधान स्वर में सराबोर गायकी ही सुगम संगीत है, जिसकी विधाएँ हैं - गीत, ग़ज़ल, कव्वाली, लोकगीत, भजन, आदि । ये ऐसी गरिमामयी सांस्कृतिक धरोहर है जो पुरातन एवम नवीनतम संगीत को संजोये, हल्के-फुल्के गायन से हृदयगत भावों को स्वरित कर श्रोताओं को आत्मानंद की रसानुभूति कराती है ।
१९५०-६० के दशक में आकाशवाणी के प्रबन्धक और संगीत-विभाग के अधिकारियों ने मेरी धुन बनाने तथा गीत लिखने की प्रतिभा को पहिचान कर, मुझे आकाशवाणी के लिए गीत-ग़ज़ल लिखने को आमंत्रित किया, जिसमें मुझे भाव-गीत के अतिरिक्त पंचायत-कार्यक्रम के लिए तत्कालीन सामाजिक पहलू जैसे बचत, परिवार नियोजन, दहेज उन्मूलन, आदि विषयों पर भी गीत लिखने का कार्य मिला । इसके लिए संगीत विभाग से प्रति गीत २५ रुपया भी मिलने लगा । कृष्णा-भोला के नाम से प्रसार-गीत विभाग ने मेरी जिन रचनाओं को चुना, उन्हें गाया सुधा मल्होत्रा, संध्या मुखेर्जी, शान्ति माथुर, यमन मानसिंह, ईरा निगम, लक्ष्मीबाई राठौड़, माधुरी श्रीवास्तव जैसी प्रख्यात गायिकाओं ने । मेरे लिखे गीतों में से चुन कर मुज़ददित नियाज़ी ने "साँझ के रुसले रसिया हो "गीत की धुन बनायी और उसे माधुरी से गवाया ।
सुगम संगीत के लिए रचित गीतों में से कुछ लोकप्रिय रहे गीत हैं ---
१- सांझ के रुसले रसिया हो
२- सुन मेरे सजना, मैं दुखड़ा कैसे कहूं
३- चंदनिया बैरिन भई
४- ठुमुक चली मद मस्त
५- उनकी बाट निहार थकी मैं
६- साथी सुनाना वो गम का फ़साना
७- सपनों में आना, सुरतिया दिखाना
८- संदेसा ले जा रे बादल
९- रंग बदलता है जग अपना
१०- सूनी सूनी लागे नज़रिया
११- मैं तेरा जीवन मीत नहीं
१२- हम किसान हल हाथ हमारे
"बांटन वारे को लगे ज्यों मेहंदी को रंग" कहावत चरितार्थ हो गयी । परमात्मा की इच्छा से गीत-भजन लेखन, स्वर संयोजन, संगीत निर्देशन और गायन के क्षेत्र में मुझे उमंग-उत्साह के साथ आगे बढ़ते रहने के सुअवसर मिलते रहे । श्री अरोराजी की “हिन्दुस्तान स्टार कम्पनी” ने सूरीनाम के अफ्रीकन मूल के वादक अक्क्ल अकॉर्डियन के सहयोग से ८ जनवरी १९६० को दो भजन, एक तो संत तुलसीदास कृत "गाइए गणपति जगवंदन"और दूसरा मेरे द्वारा रचित एवं स्वर बद्ध भजन "शंकर शिव शम्भु साधु" को रिकॉर्ड किया, जिसने देश के ही नहीं अपितु विदेश के श्रोताओं का भी मन मोह लिया । जब १९७५ में भारत सरकार की सेवा करते हुए मेरी नियुक्ति दक्षिण अमेरिका के एक राज्य (ब्रिटिश ) गयाना में हुई तब मुझे वहां "साउथ अमेरिका" के एक देश के रेडियो स्टेशन के "सिग्नेचर ट्यून" में नित्य प्रति स्वरचित शिव-वंदना "शंकर शिव शम्भु साधु"और गणपति वंदना "गाइए गणपति जगवंदन" (विनयपत्रिका का पद ), जिनकी धुन मैंने ही बनायी थी, सुनाई पडी, । ये दोनों भजन उसी देश के हिंदू मंदिर में गायनीज बालिकाओं को इन्हीं धुनों में गाते भी सुना । मैं क्या मेरा पूरा परिवार ही भौचक्का रह गया ।
१९५१ से प्रारम्भ हुई संगीत की इस यात्रा में अहम पड़ाव आया जब १९७४ में पौलीडोर कम्पनी ने “राम गीत गुंजन” के दो एल पी, १९७५ में, "आरती गीत माला" के दो एल पी अलबम बनाये और मैंने १९७६-१९७८ में "गयाना साउथ अमेरिका" प्रवास में वहाँ के हिंदू मंदिर के पुरोहित पंडित गोकर्ण शर्मा के अनुरोध पर गायनीज़ गायकों सिल्विया, गोकर्ण आदि के सहयोग से अपने निर्देशन में उस देश का सर्व प्रथम एल पी “भजन माला “ बनाया । भारत लौटने पर १९७९ में "रामाय नमः" एल पी अलबम बना, तदन्तर १९८३ में “हे राम” कैसेट की लखनऊ स्टूडियो में रेकॉर्डिंग हुई जिसमें प्रमुख कलाकार थीं अंजना भट्टाचार्य और श्रीमती प्रेमजीत कौर । फिर सरकारी नौकरी से सेवामुक्त होने पर १९९५ सितंबर में “अंतर्ध्वनि“, मई १९९७ में “गांधी प्रेरणा“, १९९८ में ”प्रीती की रीति“ कैसेट बने, जिसके पश्चात, हनुमत कृपा से और परम प्रभु श्री राम की आज्ञा से, श्री राम शरणम में समर्पित करने के लिए यथा सम्भव ”बोलो राम“ आदि कैसेट और सी डी बनते रहे ।
मैं श्री दुर्गाप्रसाद मण्डेलिया, श्री डाल्मियाजी, श्री घनश्यामदास बिड़ला का अंतरतम से आभारी हूँ, जिनके प्रोत्साहन से मुझे इन लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड में संगीत निर्देशक का कार्य करने का सुअवसर मिला। मैं महाराजा लाल एन्ड संस, दिल्ली के मालिक श्री रमेश बिहारी का भी चिर ऋणी हूँ, जिन्होंने मेरे निर्देशन में बने कैसेट्स को, मेरी शब्द-स्वर-संयोजना को सराहा और अपने दिल में इतना बसाया कि डॉ से अनुनय-विनय करके अस्पताल में अपनी अंतिम श्वास अंतर्ध्वनि कैसेट के भजन "पायो निधि राम नाम" सुनते हुए ली । उनके परिवार ने शांति-हवन तक नित्य प्रति इस कैसेट को ही बजा कर उनकी आत्मा को सुनाया । शत शत नमन है इस दिवंगत पुण्यात्मा को ।
यद्यपि जीवन की आपाधापी में नियमितता से शास्त्रीय संगीत सीखने का अवसर मुझे नहीं मिला फिर भी "स्वर द्वारा ईश्वर सिमरन" करने की शिक्षा पा कर संगीत का रियाज़ करते समय प्रत्येक "षड्ज" के उच्चारण में उस परम प्रभु परमेश्वर को पुकारते रहने का जो अभ्यास किया, उससे मधुर आनंद रस की अनुभूति हुई । हमारे उपनिषद कहते है "रसो वै सः", ईश्वर का स्वरूप रस है । भजन-कीर्तन में वह आनंद-रस के रूप में प्रकट होता है ।
माँ शारदा की अपार कृपा से शब्द-स्वर-गायन के संयोजन से आत्मानंद की रसानुभूति प्राप्त करने की यह यात्रा आज भी, इस शर्त के साथ कि इस कार्य से मैं किसी प्रकार कोई धन न कमाऊँ, उसी प्रकार आगे बढ रही है । कभी मध्य रात्रि में, तो कभी प्रातः काल की अमृत बेला में अनायास ही किसी पारंपरिक भजन की धुन आप से आप मेरे कंठ से मुखरित हो उठती है और कभी कभी किसी नयी भक्ति रचना के शब्द सस्वर अवतरित हो जाते हैं, धीरे धीरे पूरे भजन बन जाते हैं । न कवि हूँ, न शायर हूँ, न लेखक हूँ न गायक हूँ, लेकिन पिछले साठ साल से अनवरत लिख रहा हूँ । आस्तिकता के प्रचार और प्रसार हेतु अपनी रचनाओं के स्वर संजो रहा हूँ स्वयं गा रहा हूँ, बच्चों से गवा रहा हूँ । मैं जो लिखता हूँ, उसमें शब्द "उनके" है, भाव "उनका" है, इसमें सबको जो लुभा रहा है, आनंद-रस प्रदान कर रहा है वह स्वरूप उनका है ।
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