इस संसार में साधारण मानव का जीवनपथ अनगिनत अवरोधों से भरा हुआ है । जीवन के इस अँधेरे कंटकों एवं चुभते कंकड़ पत्थरों से भरे मार्ग पर सुविधा से चल पाना आज के मानव के लिए बड़ा कठिन है । बिना किसी हादसे के गन्तव्य तक पहुंचना मानव की क्षमता से परे है । इसके लिए जीव को एक कुशल मार्ग दर्शक और संचालक की आवश्यकता होती है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का मार्ग दर्शन करते हुए कहा "योग: कर्मसु कौशलम" अर्थात कुशलता से, युक्तिसंगत विधि से कल्याणकारी कर्म करना ही योग है । इस "युक्ति" का ज्ञान या बोध और उसका अभ्यास "गुरु" ही कराते हैं, चाहे सामाजिक गुरु हों या राजनैतिक, धार्मिक गुरु हों या पारिवारिक, शिक्षा गुरु हों या दीक्षा गुरु, । ये गुरु हमें गृहस्थाश्रम के शास्त्रोक्त कर्तव्य कर्मोंको अपनी क्षमता और योग्यता के बल पर प्रसन्न मन से करने की प्रेरणा देते हैं, सत्य और धर्म पर चलने की राह दिखाते हैं और वानप्रस्थ जीवन की ओर बढ़ने का सन्देश देते हैं । जिनके मार्गदर्शन से आत्मोन्नति की राह नजर आती है, अपने जीवन को साधनामय बनाने की प्रेरणा मिलती है, सिद्ध संतों के सामीप्य का सुअवसर मिलता है, ऐसे सद्गुरु का सान्निध्य भी हमें हमारे परम सौभाग्य से एकमात्र उस प्यारे परमेश्वर की कृपा से ही मिलता है ।
प्रभु की असीम कृपा से ही मुझे मिले संत शिरोमणि श्री श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज जी, जो १९वीं सदी के एक शांत, दान्त, सिद्ध, उच्च कोटि के महान संत थे । एक सच्चे अनुभवी, पहुंचे हुए पूरे सतगुरु एवं महान योगी थे । इन्हीं पूज्यपाद स्वामीजी ने नाम दीक्षा के द्वारा अपनी संकल्प शक्ति से मेरे अन्तःकरण में एक जाग्रत चैतन्य मन्त्र "राम नाम" स्थापित कर दिया और पढाया नामयोग का पाठ । "सद्गुरु दर्शन" और मिलन के उपरांत मेरी सर्वोच्च उपलब्धि रही, सद्गुरु के "कृपा पात्र" बन पाने का सौभाग्य, जो बिरले साधकों को मिलता है । मुझे उनकी वाणी से, उनके दृष्टिपात से तथा उनके सानिध्य से मिली उनकी हार्दिक शुभ कामनाएं और उनका वरदायक आशीर्वाद । उनकी दिव्य शक्ति से मेरे रुग्ण तन को सुदृढ़ आत्मिक बल मिला और मिला अनिवर्चनीय आनंद, ऐसा आनंद जिसे पाने के लिए ऋषि मुनि गृह त्यागते हैं और अथक साधना करते हैं । उनके सामीप्य से पाए साधन की साधना से मेरा मन जड़ता से दूर जाने के लिए और चिन्मयता की प्राप्ति के लिए आकुल हो उठा, मेरे मन में संत दर्शन तथा सत्संगों में सम्मिलित होने की लालसा तीव्रता से जाग्रत हो गयी ।
मेरी संत-दर्शन और दिव्य विभूतियों के सत्संग की इच्छा अनुचित नहीं थी क्योकि श्री स्वामी जी महाराज द्वारा रचित (अवतरित) ग्रंथो मे यही पावन ऊर्जा तरंगित हो रही है कि संसार की दिव्य विभूतियों के जीवन से जब भी जहाँ कहीं भी जो सार तत्व, जो सत्व गुण सीखने को मिले, उसे तत्क्षण अपने जीवन में उतारें और साधन धाम मानव जीवन को सार्थक बनाएँ । उनकी वाणी है ---
मिले रत्न गुण जहाँ से, लेवे हाथ पसार ।
काढ़े कंचन पंक से, हीरा मणि सँवार ।।
(भक्ति-प्रकाश से संकलित)
अतएव यूँ समझिये कि अपने सद्गुरु प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री सत्यानन्दजी महाराज की "कृपा-प्रसाद" से ही हमें समय समय पर अनेकानेक परमहंस संतों के दर्शन हुए और उनके सान्निध्य के सुअवसर भी मिले ।
इनमें "विपुल" मुम्बई के सर्वस्व श्री अनंत स्वामी अखंडानंदजी, गणेशपुरी के संस्थापक स्वामी मुक्तानंद जी, चिन्मय मिशन के संरक्षक स्वामी चिन्मयानंदजी, श्री श्री माँ आनंदमयी, श्री श्री माँ निर्मला देवी, योगीराज श्री श्री देवराहा बाबा, अनंत श्री श्री राधाबाबा, जगद्गुरु श्री रामकृपालु महाराज, आदि अति उल्लेखनीय हैं । इनके समक्ष हमें परिवार सहित भजन-कीर्तन की प्रस्तुति करने का, उनके श्री चरणों पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर मिला है ।
इस संदर्भ में यह बताना अनिवार्य सा है कि उपरोक्त संतजनों के अतिरिक्त मानस मर्मज्ञ अंजनी नंदन शरण जी, मानस के अमर प्रेमी श्री राम किंकर जी महाराज, स्वामी ध्यानानन्दजी, बाबा नीम करोली, संत शिरोमणि डोंगरे जी महाराज, गायत्री परिवार शांति निकुंज हरिद्वार के संस्थापक श्री राम शर्मा जी, स्वर्गाश्रम के विभिन्न संतजन, कहाँ तक नाम गिनूँ, समकालीन सभी दिव्य आत्म विभूतियों से आध्यात्मिक विचारों का आदान-प्रदान करने का सुअवसर मिला, जीवन-मूल्यों के विचार रत्न मिले, साधना प्रशस्त करने का पथ मिला, जीवन में चरितार्थ करके जीवन का सर्वांगीण विकास करने वाले अनमोल सूत्रों का बोध हुआ । यह सर्वशक्तिमान प्रभु की असीम अनुकम्पा ही तो है जिसकी प्रेरणा से इन संत-महात्माओं ने अपनी दिव्य दृष्टि से औरअपने स्नेहिल आशीर्वाद से हमें और हमारे परिवार को कृतकृत्य किया है ।
यह मेरी अनुभूत मान्यता है कि सिद्ध संतों और सद्गुरु की दृष्टि से, शब्द से और स्पर्श से साधक की आत्मिक शक्ति जगती है । साधक जहां भी जाए, जो भी करे, जो भी सोचे, गुरु सदैव उसके साथ रहते हैं ।
एक विलक्षण एवं अद्वितीय सद्गुरु पूज्यपाद स्वामी सत्यानंदजी महाराज के सानिध्य में, उनकी छत्रछाया में मैंने जीवन में प्रथम बार पंचरात्रि साधना सत्संग का अनिर्वचनीय आत्मिक आनंद उठाया । जगत-व्यवहार में उनका हमारा साथ उतना ही था क्योंकि उसके एक वर्ष बाद ही वह ब्रह्मलीन हो गए, मेरा दुबारा मिलना नहीं हुआ । लेकिन मैंने अपने जीवन में अनेकों बार अपने हृदय की गहरायी से महसूस किया है, कि हमारे सद्गुरु भौतिक चोला छोड़ने के बाद भी सूक्ष्म रूप से हमारे अंग-संग रहे, और आज भी हैं ।
मानस -पटल पर अंकित एक अनुपम अविस्मरणीय आत्मानुभव; जिसके याद आते ही आभार के अश्रु कण आँखों से छलकने लगते है, एक दिव्य आनंद से हृदय छलछला उठता है -- वह है, "परमधाम डलहौज़ी" में आयोजित त्रिदिवसीय साधना-सत्संग ।
आइये; आपका परिचय करा दूँ "परमधाम डलहौज़ी" से यानी कि परम पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की तपस्थली से, प्रभु से साक्षात्कार का ऐतिहासिक व नीरव, शांत असीम ऊर्जा व तेज के अनुपम स्थल से ।
यह वह पुण्यस्थली है जहाँ सर्वशक्तिमान परम सत्ता का "राम राम "की ध्वनि में अवतरण हुआ, जो कालांतर में श्री रामशरणम नामक संस्था की स्थापना का मूल स्रोत रहा । योगसिद्ध स्वामीजी महाराज ने चौसठ वर्ष की आयु में परमात्म-मिलन की इच्छा से हिमालय के डलहौज़ी नामक निर्जन स्थान पर अनवरत साधना की । एक माह के अनंतर ७-७-१९२५ व्यास पूर्णिमा के मांगलिक पर्व के दिन उनकी चित्तवृत्तियाँ सविकल्पक समाधि से ऊर्ध्वगामी हुईं, परमात्मा से साक्षात्कार हुआ, ज्योति स्वरूप परमात्मा के दर्शन हुए, एक दिव्य ध्वनि में "राम राम" निनादित हुआ, आदेशात्मक स्वर गूंजा "राम भज, राम भज" । स्वामीजी को राम नाद द्वारा आस्तिकता का प्रचार-प्रसार करने का भी सन्देश मिला । स्वामीजी महाराज अपने इष्ट भगवान श्री राम को ही अपना परमगुरु बताते थे और अक्सर "परमगुरु जय जय राम " की धुन लगाते थे ।
महाराज जी ने परमात्मा के साक्षात्कार के विषय में अपने श्रीमुख से कहा है "मुझे उस स्थान पर साधना करते एक मास बीत गया । एक दिन जब मैं आँखे बंद किये प्रार्थना कर रहा था, मुझे "राम" शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वरों में सुनाई दिया, मैंने समझा कि कोई प्राणी इधर उधर राम-नाम का उच्चारण कर रहा है । ऑंखें खोलीं तो दूर दूर तक कोई दृष्टिगोचर नहीं हुआ । फिर आँखें बंद की तो उसी मधुर स्वर में पुनः वही "राम", "राम" सुनाई दिया, साथ ही आदेश "राम भज, राम भज“, "राम", "राम" ।
"मेरे प्रार्थना करने पर वह शब्द जब पुनः आया फिर दर्शन की मांग करने पर यह प्रश्न उठा " किस रूप का दर्शन चाहते हो ?" मैंने कहा, " जो तेरा रूप हो मैं क्या बताऊँ ?" तब यह "रा" और "म" अक्षरमयी "राम" रूप का तेजोमयी दर्शन हुआ ।
सन्त कुल दिवाकर स्वामी सत्यानंदजी महाराज की इस तपोभूमि को खोज निकाला श्रीरामशरणम गोहाना के प्रतिपालक; स्वामीजी के अतिप्रिय वरिष्ठ साधक, परमपूज्य श्री हंसराज भगतजी ने और उनके सहयोगियों साधकों ने ।
यहां यह बताना चाहता हूँ कि श्री हंसराजजी की अध्यात्म में रुचि और निष्ठा को आंक कर उनकी बाल्यावस्था में ही स्वामी जी ने उनका नाम “भगत” रख दिया था । स्वामीजी ने १९३६ में राम नाम के प्रचार के लिए पांच सदस्यों का जो राम सेवक संघ बनाया था, उसके एक सदस्य (पिताजी) हँस राज भी थे जो १९४६ में पाकिस्तान बनने से पूर्व ही भारत आ गये थे ।
इन्हीं के अथक प्रयास और पुरुषार्थ से डलहौज़ी के नारवुड के शिखर पर बादलों से आवृत पहाड़ियों और नीचे की आकर्षक मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य से अवगुंठित गहरी घाटियों के बीच स्वामीजी के तपस्थल पर निर्मित हो गया, अखण्ड जाप का कमरा और सत्संग-भवन, साथ ही साधकों के निवास के लिए सुविधाजनक कमरे को समेटे एक भव्य प्रासाद । इसे नाम दिया गया "श्री रामशरणम, परमधाम डलहौज़ी" । यहां लगने लगे साधना-सत्संग । यहाँ पहुँचने के लिए पहिली संकेतक सीढ़ी पर अंकित किया गया "परमधाम स्वामी श्री सत्यानंदजी महाराज डलहौज़ी" । इस परमधाम का साधना सत्संग कैसे और किस अदृश्य प्रेरणा और दिग्दर्शन से संभव हुआ से हुआ, गुरुदेव की कैसी कृपा हुई, कैसे हुआ यह चमत्कार ? सबके लिए हम पूज्य पिताजी के आजन्म ऋणी हैं ।
प्रियजन ! हमारा परम सौभाग्य रहा कि मुझे और मेरी पत्नी कृष्णा को श्रीरामशरणम गोहाना के प्रतिपालक; स्वामीजी के अतिप्रिय वरिष्ठ साधक परम पूज्य हंसराज "भगत"(पिताजी") की छत्रछाया में २००३ में "परमधाम" डलहौज़ी में आयोजित त्रिदिवसीय साधना-सत्संग में सम्मिलित होने की अनुमति मिल गयी ।
दिल्ली से पठानकोट तक की यात्रा का ट्रेन में रिज़र्वेशन हो गया, उसके आगे तो टैक्सी या बस से जाना था । जब ट्रेन में बैठे तब पता चला कि जो साधक हमारे साथ यात्रा करने वाले थे, उनका कार्यक्रम किसी कारणवश स्थगित हो गया । अनजान नगर, अनजान डगर, चक्की बैंक उतरना है या पठानकोट, इसका भी बोध नहीं, अवस्था जन्य शारीरिक शिथिलता, हम अवरोध के पर्वतों से घिर गए; चिंता होना स्वाभाविक ही था ।
अनुभूतियों के आधार पर कहता हूँ जीवन में बहुत यात्राएं कीं, चारों धाम की यात्रा भी की, पर इस पावन तीर्थस्थल की यात्रा अनुपम, अनूठी रही जिसने अहसास दिला दिया कि सिद्ध संत सद्गुरु हमारी समस्याओं के अवतरण से पूर्व, हमारी भविष्य में आने वाली समस्याओं के निराकरण की व्यवस्था कर देते हैं । ये अदृश्य रीति से साधकों पर किस भाव से और कैसे अहेतुकी कृपा कर देते हैं, कैसे कृपा अवतरित होती है; यह सब समझना हमारी मानवीय बुद्धि से परे है । हमारी यात्रा के दौरान कब, कैसे, किस रूप में किस किस को निमित्त बना कर प्रगट हुए हमारे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्दजी महाराज जो हमारे सहायक बने, जिन्होंने ट्रेन में हमारा पथ प्रदर्शित किया । गुरुदेव की कैसी कृपा हुई; कैसे हुआ यह चमत्कार ? सब सपना सा लगता है, हमारी बुद्धि से परे है ।
कौन होगा उन जैसा कृपालु सहायक, जिनका आश्रय ले कर हम दोनों ने त्रिदिवसीय सत्संग का अपूर्व लाभ उठाया । वहाँ के साधना सत्संग में दिन हो या रात, अखंड जाप के कमरे में जा कर कभी भी जप कर सकते थे । वर्षा खूब हो रही थी, रात्रि में जाप करने का सुअवसर मिला, प्रेरणा स्वामी जी की थी, जाप तो हुआ ही साथ ही अखंड ज्योति में ज्योति बदलने का सौभाग्य भी मिल गया, इसी बहाने से स्वामीजी ने सत्संग में इस सेवा को करने का अनमोल अवसर प्रदान किया । हमें सद्गुरु स्वामी जी महाराज की प्रेम से परिपूर्ण, भावनाओं से भीगा और अपनत्व से ओतप्रोत आशीर्वाद मिल गया, और क्या चाहिए ।
एक दिन दोपहर की धूप का आनंद लेते हुए श्री पिताजी साधकों पर अपनी वाणी और दृष्टि से कृपा वृष्टि कर रहे थे उसी समय उनको प्रणाम करते समय जितना प्यार और आशीर्वाद मिला, जितनी शक्ति प्रदान की, उसे हम लोग आजीवन भुला नहीं सकते । हमारे पीठ पर हाथ फेरते फेरते जो आनंद दिया, उस दिव्य अनुभूति का अहसास आजीवन बना रहेगा ।
यहां एक और चमत्कारिक अनुभव हुआ, कई साधकों से सुना था कि स्वामीजी की साधना की सात्विक तरंगों के प्रभाव से शिवालिक की पहाड़ियों के नीरव वातावरण में "राम नाम" की ध्वनि गुंजायमान है जिसे प्रातःकालीन सैर करते समय सुन सकते है । हम दोनों शारीरिक अस्वस्थता के कारण सैर के लिए नहीं जा सके लेकिन हमने वहाँ रात्रि में "राम" नाम अनुरागी साधको के स्वर में स्वर मिलाये परम धाम में नीड़ बनाये पंछी की "राम राम" धुन अवश्य सुनी । केवल मैंने ही नहीं कृष्णा जी ने तथा अन्य साधको ने भी आकाश के पंछियों को वहाँ "राम राम" प्रतिध्वनित करते हुए सुना ।
इस क्षण स्मृति पटल पर चलचित्र के समान प्रगट हो गई है "परम धाम" में बितायी उस रात्रि की कहानी जब सत्संग की अंतिम सभा की समाप्ति पर, रात्रि की नीरवता को चीरती एक अनोखी राम धुन सुनायी पड़ी, "रा s s s म, रा s s s म, रा s s s म, रा s s s म " । अंतरतम छू लिया इस स्वर लहरी ने, और व्यक्त हुए ये उदगार----
बर्फ गिरती, पानी जमता, उसका नाम जपन नहीं थमता ।
वह तो, राम राम ही बोले रे, मेरे परमधाम में डोले रे ।।
बाबा ने जो मन्त्र गुंजाया, उसने अब तक न बिसराया ।
वह तो अनहद स्वर में बोले रे, कानों में अमृत घोले रे ।।
बोले बोले रे राम चिरैया, मेरे बाबा की कुटिया में बोले रे ।
कानों में अमृत रस घोले रे, वह परम धाम में डोले रे ।।
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