यह सर्वमान्य सत्य है कि गार्हस्थ्य जीवन ऐहिक एवं पारलौकिक सुख-समृद्धि-शान्ति का साधना क्षेत्र है । पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक उन्नति के लिए लोक कल्याण की दृष्टि से जगत व्यवहार करते हुए प्रभु का स्मरण करते रहना; गृहस्थके जीवन का सार है । महापुरुषों से ये सूत्र सुन कर, यह धारणा मेरे और कृष्णा के मन में बसी हुई थी कि गृहस्थी का परिपालन ही कर्मयोग की साधना है अतएव जीवन निर्वाह हेतु पूर्वजन्म के संस्कारों एवं कार्मिक लेखा जोखा-"बेलेंस शीट" के अनुसार निर्धारित सभी कर्तव्य कर्मों को हम दोनों अपनी दैनिक साधना समझ कर ईमानदारी से सदा करते रहे, परिस्थिति वश आयी अनुकूल-प्रतिकूल घटनाओं का स्वागत करते रहे; पारिवारिक जीवन की कभी अवहेलना नहीं की; जिसके फलस्वरूप जिया सुख-शांतिमय पारिवारिक जीवन ।
हमने जब जब अतीत के पृष्ठों को पलटा, पाया कि हमारी हर उपलब्धि के पीछे "प्रभु" की अहैतुकी कृपा का अदृश्य हाथ रहा है । हमारा सारा जीवन, इसी प्रकार की प्रभुकृपा-जानित चमत्कारिक सफलताओं से भरपूर है । फिर भी जब कभी उन उपलब्धियों को याद करने का प्रयास करते हैं तब मानव-स्वभाव के कारण उनमे से एक भी ऐसी नहीं लगती जो मेरे निजी प्रयास के कारण न प्राप्त हुई हो । हर सफलता का श्रेय हम अपने आप को ही देते हैंऔर हम उन अदृश्य हाथों को भूल जाते हैं जिनकी सहायता से हमें वह सफलता मिली । मेरी आत्म कथा में ऐसी अनेकों घटनाओं का विवरण है ।
अपने गृहस्थजीवन में हमने पुरुषार्थ और परमार्थ के नियत कर्तव्यों का पालन विधिवत किया, "उनकी इच्छा" और "उनसे मिली प्रेरणा "के कारण । कृष्णा को जब प्रसूति घर जाना होता था, सन्तान को जन्म देने के लिए, तब जाने से पहिले सुंदरकांड का पाठ, श्री अमृतवाणी का पाठ करके हम सब जाते थे । महापुरुषों और सिद्ध संतों के चित्र और उनकी वाणी के सुभाषित घर में टँगे रहते थे ।
इस संदर्भ में मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आ रही है । नवंबर १९५६ में हमारा विवाह सम्पन्न हुआ; हम दोनों ने बड़े चाव से अपने कमरे में लगाने के लिए गीताप्रेस गोरखपुर में मुद्रित देवी देवताओं के चित्रों में से दो चित्र चुने, एक रामजी का और दूसरा कृष्ण का । हमने उन्हें अपने बेड रूम के निजी मंदिर में बड़े प्रेम से प्रस्थापित भी कर दिया ।
कुछ माह उपरान्त एक अद्भुत घटना घटी ।
मैं उन दिनों कानपूर में हार्नेस फेक्ट्री में कार्यरत था और बहुत सबेरे घर से निकल कर देर शाम तक घर लौटता था । जब की यह घटना है उन दिनों मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी भी एम. ए. की परीक्षा में बैठने के लिए ग्वालियर अपने मायके गयी हुईं थीं ।
एक दिन मैंने फैक्ट्री से वापिस आकर देखा कि हमारे बेड रूम के मंदिर में श्रीकृष्ण का वह चित्र नहीं है । पूछताछ करने पर मेरी भाभी ने बतलाया कि उस दिन दोपहर में बेवख्त ही घर के द्वार पर दस्तक हुई । द्वार खोला तो देखा कि एक अपरिचित महिला बहुत सकुचायी और डरी हुई दरवाजे पर खड़ी थी । उसके साथ उसका एक चार पांच वर्ष का बहुत ही सुंदर बालक था, गूंगा था । बच्चा महिला का पल्लू पकडे हुए खड़ा था । दोनों ही देखने में किसी धनाढ्य, भद्र वणिज परिवार के लगते थे ।
भाभी ने आगे बताया कि अभी उसकी माँ अपना परिचय दे ही रही थी कि वह बालक माँ का हाथ छुड़ा कर घर के अंदर ऐसे घुसा जैसे कि बहुत पहिले से हमारे घर के चप्पे चप्पे से अच्छी तरह से वाकिफ हो । घर के अंदर घुस कर वह सारे खुले हुए कमरे छोड़ कर, सीधे हमारे बंद बेड रूम की ओर ही गया ।
घर के सभी सदस्य आश्चर्य चकित थे कि वह बालक बंद कमरे की ओर ही क्यों गया ? कमरा खुलते ही वह सीधे उसी ओर ही कैसे चला गया जहां मंदिर में श्रीकृष्ण जी का वह चित्र लगा हुआ था ? मंदिर के निकट पहुंच कर, बिना मुंह से कुछ बोले, केवल संकेत से ही उसने श्री कृष्णजी के उस चित्र विशेष को पाने के लिए जिद करना चालू कर दिया । जब तक उसने वह चित्र अपने हाथ में थाम नहीं लिया तब तक वह शांत नहीं हुआ । उसे पा लेने पर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा; उसने एक पल को भी उस चित्र से अपनी नजर नहीं हटायी, वह अपलक एक टक बड़े आनंद से कृष्णजी की मनमोहिनी छवि को अतीव श्रद्धा से निहारता रहा । उसे अपने साथ ले गया । फिर कभी वह दोनों नहीं दिखे ।
सारी घटना एक अमिट छाप छोड़ गयी, अदृश्य शक्ति के रहस्यमय चमत्कारी क्रियाओं की ।
ऐसे तो मुझे कई बार इस प्रकार के स्वप्न आये हैं कि मैं किसी शिखर पर मन्दिर में विराजे हनुमानजी के दर्शन कर रहा हूँ । एक बार तो स्वप्न देखा कि मेरे ऊपर किसी जानवर ने हमला किया है, मुझे इधर उधर भगा रहा है, मैं भय से काँप रहा हूँ, डर से घिग्घी बन्ध रही है, प्रार्थना कर रहा हूँ मेरे ईश्वर मुझे बचाओ । तभी देखता हूँ कि मेरे सामने काले रंग के हनुमानजी खड़े हैं मैं उन्हें "friend friend" कह कह कर उनसे रक्षा करने को कह रहा हूँ, और वे मेरी रक्षा कर रहे हैं; लेकिन उस नादान अनजाने गूंगे बालक की श्रीकृष्ण के चित्र के प्रेम और अनुरक्ति को क्या कहूँ ?
आज जब मन के दर्पण में पिछले साठ साल के जीवन के रहन सहन को आंका और परखा तो पाया कि रुचि, योग्यता सामर्थ्य और इच्छाशक्ति से सुख-शान्ति से पारिवारिक जीवन जीने का इच्छुक मैं "भोला "कभी अकेला रहने का आदी नहीं रहा । अकेले घर से बाहर रहना मुझे प्रिय नहीं रहा । सदा कोई न कोई स्वजन सम्बन्धी को साथ रखा । हाँ, लन्दन में पढाई के लिए परिवार को छोड़ कर अकेले रहना पड़ा, जो मजबूरी थी । किसी साहित्य या संगीत की गोष्ठी में जाना हो या किसी सम्मेलन में, चलचित्र देखने जाना हो या दर्शनीय स्थलों को देखने जाना हो, परिवार के साथ ही जाना स्वीकृत रहा, अकेले जाना मुझे मंजूर नहीं रहा ।
परिवार साथ हो तभी आनंद आता है । अपने बच्चों के साथ ही नहीं कुटुंब के सभी बच्चों से परिहासमयी वार्ता करना, आपबीती सुनाना, हंसना-हंसाना, नाचना-गाना, बच्चों में बच्चा बन जाना, शिशु के साथ किलकारी मारना मेरा जन्मजात स्वभाव रहा । आजीविका अर्जन के कार्यक्षेत्र में जब जब स्थानान्तर हुए, चाहे देश में या विदेश में, परिवार के साथ ही रहा । देश विदेश के भ्रमण से श्रीदेवी, राम, राघव, प्रार्थना और माधव को विविध प्रदेशों की सभ्यता और संस्कृति का बोध हुआ । विविध वेश-भूषा, रहन-सहन, खान-पान से परिचय हुआ जिससे उनकी विचारधारा संकीर्णता के घेरे से बाहर निकली, भेदभाव रहित सौहार्द पूर्ण व्यवहार की नीव पड़ी । परिवार की हँसी, खुशी, प्रगति, उन्नति, समृद्धि ही तो मेरे गृहस्थाश्रम के साफल्य की निशानी है ।
ऐसा नहीं है कि हमारे जीवन में कष्ट आये ही नहीं अथवा जटिल समस्याओं ने हमें नहीं घेरा । भारतीय सामाजिक प्रचलन के अनुसार जब किसी गृहस्थ को उलझनें सतत सताती हैं, तब उन सब समस्याओं के समाधान के लिए वह ज्योतिषियों का द्वार खटखटाता हैं । हम भी गए, पर अनुभव ने सिखाया कि इस विज्ञान का आदर करो पर इस पर निर्भर नहीं रहो ।
हमारे परिवार के कई ज्योतिषियों से घने पारस्परिक सम्बन्ध थे । हमारे बड़े भैया की इस विज्ञान में रुचि थी, उन्होंने अध्ययन किया, कोर्स किया, प्रमाण-पत्र पाया, इस नाते उनके साथी ज्योतिष भाई हमारे घर आते जाते रहते थे । उन सबकी मेरे जीवन के सम्बन्ध में की गयी भविष्यवाणियाँ सच निकली, केवल एक छोड़ कर, वह भी सन्तानोत्पत्ति के सम्बन्ध में । ग्रहों के अनुसार सबका निर्णय था कि मेरी सन्तान जीवित नहीं रहेंगी, जिसे सुन सुन कर मन ही मन एक भय पनप रहा था लेकिन कालांतर में प्रभु कृपा से उनका कथन खरा नहीं उतरा ।
हुआ कुछ ऐसा कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर विवाह के दो वर्ष बाद १५ अगस्त १९५८ में एक मृत कन्या का जन्म हुआ । इत्तफाक से उस दिन हमारे घर में दिन भर लखनऊ से आये राज ज्योतिषी बैठे थे । २९ वर्ष की उम्र में उसका गंगा-प्रवाह करने के बाद इस अनहोनी से मन और अधिक भयभीत हो गया, ज्योतिषियों के कथन तड़पाते रहे । यह प्रारब्ध और पूर्वजन्म के कर्मों का प्रभाव है, इसी भावना से मन शांत हुआ । फिर उसके बाद हमारी पांच संतान हुईं जो प्रभु के आशीर्वाद से आज भी अपने आचार, विचार, व्यवहार तथा अपनी कार्यक्षमता से हमें गौरवान्वित कर रही हैं । जीवन ने यह सूत्र सिखा दिया कि ईश्वर पर अचल आस्था रखने वालों को ज्योतिषियों और जन्मपत्रियों के निर्णयों पर तभी तक महत्व देना चाहिए जब तक वे सकारात्मक ऊर्जा को बढाने में सहायक हों अन्यथा उसकी अनदेखी और अनसुनी कर दें ।
यहां उल्लेखनीय महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ज्योतिषों के चक्कर में न फंस कर इस बात पर अडिग विश्वास रखो कि तुम्हारा इष्ट, तुम्हारा कुलदेवता जिसका तुमने आश्रय लिया है प्रति क्षण तुम्हारे अंग संग है और तुम्हे उचित मंत्रणा और आवश्यक प्रेरणा दे रहा है, उसकी छत्रछाया में कभी आश्रित का अकल्याण हो ही नहीं सकता ।
अपने सभी कार्य करते हुए "उसको" याद करते रहो, "उसका" नाम जपते रहो और उसका काम समझ कर अपना काम करते रहो । हमारे गुरुजन का कथन है कि सोते-जगते, खाते-पीते, उठते-बैठते, आते-जाते, यहाँ तक कि दफ्तर में काम करते समय भी एक पल को भी अपनी यह सहज एवं सरलतम साधना "नाम जाप" छोडो नहीं, सतत करते रहो ।
प्रियजन, असम्भव नहीं है उपरोक्त गुरु आज्ञा का पालन । मेरे जीवन का अनुभव है कि सद्गुरु की दी हुई नाम दीक्षा ने और इष्टदेव की परम कृपा ने जीवन में पग पग पर आयी हुई सभी बाधाओं, आपदाओं, पीड़ाओं, कष्टों से हमें बचाया है । दीक्षा के शुभ दिन से आज तक सद्गुरु से मिला 'नाम' का अभेद कवच सभी देहिक, दैविक, भौतिक तापों में हमारे परिवार की रक्षा करता रहा है ।
परमेश्वर की असीम अनुकम्पा, गुरुजनों के आशीर्वाद, पूज्यजनों की पुण्याई और हमारे एवं कृष्णा के पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप हमारी पाँचों सन्तान -- श्रीदेवी, राम, राघव, प्रार्थना, और माधव, तथा उनके जीवन साथी और हमारे पौत्र-पौत्रियां, सभी संस्कारी, सदाचारी, शीलवान, सुयोग्य और आस्तिक भावनाओं के धनी हैं । वर्षों से स्थान स्थान पर उन सबके साथ हम दोनों रह रहे हैं, गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थ की ओर जाते हुए अनासक्त भाव से रहने का प्रयत्न कर रहे हैं, जिसकी साधना में सब बच्चों का सहयोग मिल रहा है । वे हम दोनों के स्वास्थ्य की देख भाल, सुख-सुविधा, खान-पान, मनो-विनोद आदि का ज़रूरत से भी ज़्यादा ध्यान रख रहे हैं, यह उस परमपिता की अनंत कृपा नहीं तो और क्या है ?
जितने भी संकट आ घेरें, जितनी भी विपदाएं आयें,
जिसको प्यार मिला है इतना, उसको कोई और चाह क्यों ?
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