बचपन से ही मुझे केवल एक शौक था - कार चलाने का । सारे घर में घू घू करता हुआ हाथों से हवा में स्टेअरिंग घुमाने का नाटक करते हुए काल्पनिक कार चलाता हुआ मैं दिन भर हुडदंग मचाता रहता था । शनिदेव की कृपा से जब बाबूजी का कारखाना घर से कुछ दूर अगले नगर में स्थापित हुआ तब आने जाने के लिए अश्व द्वारा संचालित रथों का प्रयोग बाबूजी के लिए अनिवार्य हो गया । जब किराये की सवारियों से दुखी हुए तो एक सुंदर सा अन्य पशुओं से बिलकुल फरक "ग्रे" काले और सफेद के मिश्रण के रंग का तगड़ा अरबी घोड़ा और उसके साथ एक तांगा भी खरीदा गया । छोटा था, पर मुझे उस घोड़े से कुछ दिनों में ही बहुत प्यार हो गया । लेकिन कुछ ही दिनों में जब हम सब बलिया गये थे हमारे अफीमची साईस ने वह घोड़ा कहीं अंतर्ध्यान करा दिया और यह ऐलान कर दिया की घोड़ा अचानक इस संसार से कूच कर गया । हमें उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन बाबूजी ने तीन पुश्त से गाँव में हमारे वंशजों की सेवा करने वाले उस साईस को माफ़ कर दिया ।
दया धर्म का मूल है, नरक मूल अभिमान ।
तुलसी दया न छाडिये जब लगि घट में प्राण ।।
धर्म का यह सूत्र जो बाबूजी अपनी प्रार्थना में नित्य बार बार दुहराते थे, उसे ही उन्होंने अपने आचरण में उतारा ।
इन दिनों बाबूजी की "ग्रह-दशा" उनका साथ नहीं दे रही थी इस कारण हमारे बाबूजी जिस किसी भाड़े की सवारी पर चढ़ते शनिदेव की कृपा से उसका ही एक्सीडेंट हो जाता था । अक्सर शाम को बाबूजी अपने शरीर के किसी न किसी अंग पर पट्टी बंधवा कर घर लौटते थे । चिंता का विषय था । खबर मिलने पर उनके अवकाश प्राप्त जिला जज बड़े भाई ने इलाहबाद में उनके लिए केवल चार सौ रूपये में एक सेकण्ड हेंड कार खरीदी और उसे बाबूजी के लिए कानपुर भेज दिया । वह कार तब दुनिया की सबसे छोटी कार थी । इंग्लेंड की बनी उस कार का नाम ही था "बेबी ऑस्टिन" ।
१९३८ की बात है, मैं ८-९ वर्ष का था । कार प्रेमी जो था, स्कूल से लौट कर मैं गेराज में खड़ी उस 'बेबी' को देखना नहीं भूलता था । मौक़ा पाकर, हफ्ता पंद्रह दिन में, घर के नौकर से धक्का लगवाकर मैं उसे बाहर निकालता था और उसे अपने खुशबूदार लक्स साबुन से नहला धुला कर पुनः मोटर खाने में रख देता था ।
एक बुड्ढा शोफर रखा गया कि सम्हाल के धीरे धीरे चलायेगा । लेकिन शनिदेव ने इस सवारी पर भी अपनी कृपा दृष्टि डाल ही दी । धीमी रफ्तार में ही एक दिन वो हेलेट होस्पिटल के सामने वाले स्वरूप नगर के गोल चक्कर पर पलट गयी । दो साइकिल वालों ने उठा कर सीधी की और नीचे से शोफर और बाबूजी को निकाला । गाड़ी बहुत हल्की थी इस लिए किसी को अधिक चोट नहीं लगी थी । उस शाम को भी बाबूजी घायल अवस्था में घर लाये गये । उसी रात यह निर्णय ले लिया गया कि इस कार को भी निकाल दिया जाये । जल्दी ही एक ग्राहक भी मिल गया, हमारी प्यारी बेबी ऑस्टिन के लिए जल्दी ही एक ग्राहक भी मिल गया वह पूरे चार सौ रूपये देने को तैयार भी हो गया ।
विदा की बेला आयी, ग्राहक गाड़ी लेने को आया । रजिस्ट्रेशन की किताब ग्राहक को देने से पहले ये कन्फर्म करने के लिए कि सब कर चुकता हो चुके हैं, जब बड़े भैया ने उस पुस्तिका का गहन अदध्यन किया तो वह चौक गये । उस पुस्तक में लिखा था कि उस बेबी ऑस्टिन कार के पहले मालिक थे वह सज्जन जिनका अनुकरण हमारे बड़े भैया बचपन से करते आये थे। भैया ने उनका ही हेअर स्टाइल, उनके हाव भाव, उनकी मुद्राएँ, यहाँ तक उनकी आवाज़ की भी बखूबी नकल की थी । उनके देवदास, चंडीदास, दुश्मन, स्ट्रीट सिंगर आदि फिल्मों के कटआउटों से भैया के कमरे की दीवालें भरी पड़ी थी । बड़े वाले एच .एम् . वी . ग्रामफोंन पर बजाने के लिए भैया के पास उनके सभी फिल्मी और प्राईवेट गानों के रिकार्ड थे । एक तरह से वह सज्जन जिनका नाम उस पुस्तिका में प्रथम मालिक की जगह लिखा था, वह हमारे बड़े भैया के भगवान् की तरह ही पूज्य थे । कह नही सकता पर शायद जैसे आजकल अमिताभ बच्चन, रजनीकान्त, शाहरुख़ खान आदि की पूजा अर्चना घर घर में होती है, हमारे भैया भी उन महाशय की पूजा करते रहे होंगे । मेरे भी एक फिल्मी इष्ट थे भारत भूषन और मेरे अति प्रिय गायक थे मुकेश जी ।
अब आपको बता ही दूं, उस प्यारी सी बेबी ऑस्टिन के पहले मालिक का नाम-पता था : कुंदन लाल सहगल, मार्फत - न्यू थिअटर, धरमतल्ला स्ट्रीट, कोलकत्ता ।
सच कहूँ तो किशोर अवस्था में, विश्वविद्यालय में पढते हुए, दिल के कोने में अपनी प्रथम प्रेयसी कार को पाने की ललक तो सदा बनी ही रही । कालान्तर में मैंने अपने पुरुषार्थ से अर्जित धनराशि से कार खरीदने का संकल्प किया । मेरे बचपन के मित्र रमेश रस्तोगी ने तथा अन्य सम्बन्धियों ने अनेकों बार उनकी कार चला कर अपना शौक पूरा करने का अवसर प्रदान किया, परन्तु मैं अपने संकल्प को सुदृढ़ता से निभाता रहा और जब अपनी अर्जित धनराशि से कार खरीदी, तभी अपना शौक पूरा किया । बाबूजी की उस चार सौ रुपयों वाली, परिवार की सबसे पहली ऑटोमोबाइल "बेबी ऑस्टिन" से प्रारंभ करके मैंने ३३ वर्ष की अवस्था में अपनी पहली कार, हिलमेन मिंनक्स खरीदी और उसके बाद एक एक करके स्टेंडर्ड हराल्ड, फीएट प्रीमियर और फिर भारत सरकार की सेवा में रहते हुए, अपनी ईमानदारी की कमाई से नयी टोयोटा करोला डीलक्स कार खरीदी जो उस जमाने में भारत में केवल बड़े बड़े सेठ साहूकारों और फिल्म स्टारों के पास ही देखी जाती थी ।
१९५०-१९६० के दशक में मेरी ही क्या, आई. आई. टी., आई. आई. एम., मेडिकल कॉलेज आदि में भर्ती हो जाने के बाद अधिकतर विद्यार्थियों की, मन्दिरों में अपने इष्ट देवों से सबसे बड़ी मांग होती थी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने की या प्रेसिडेंट या निदेशक का गोल्ड मेडल पाने की या डिग्री मिलने पर मल्टी नेशनल कम्पनी में जॉब पाने की और उसके बाद एक कार और एक सुंदर सुशील टिकाऊ जीवन साथी प्राप्त करने की । मेरे अंतर्मन में भी कहीं न कहीं पढायी के दिनों में इन्ही उपलब्धियों की प्राप्ति की चाह रही होगी पर शायद अपने संस्कारवश मैं अपनी प्रार्थना में इष्टदेव से उनकी मांग करने के बजाय बस इतना ही कह पाता था कि "मेरे प्रभु । मुझे केवल वह दो, जो मेरे लिए हितकर हो । मेरे साथ वही हो जो "तुम्हे" अच्छा लगे " । न जाने कैसे बचपन से ही यह प्रार्थना मुझे भली लगती थी और अक्सर देव मंदिरों में मेरे मुंह से यही प्रार्थना निकलती थी ।
काशी हिंदू विश्व विद्यालय से बेचलर डिग्री की परीक्षा दे कर जब ग्रीष्मावकाश में मैं घर लौटा तो कुटुंब और आस-पडौस के परिवार के स्वजन सुशील कुंवारी लडकियाँ से मेरा सम्बन्ध जोड़ने का प्रस्ताव रखने लगे । एक दिन मुझे घर के बाहर शेवरले की सुपर डीलक्स दुरंगी कार खड़ी दिखाई दी । माथा ठनका । पहुंचते ही भाभी ने घेर लिया । "मैं जानती हूँ, अब इस उम्र में तुम्हारे भैया के लिए कौन आएगा ? ये तुम्हारी ही कोई चीज़ है" । मैंने पूछा "कौन भाभी ? "जाओ खुद ही देख लो"! हम सब बच्चे भाभी एवं बाबूजी से बहुत फ्री थे, अतएव हम सबके बीच खूब हंसी मजाक चलता था । दोस्ताना कटाक्ष करते हुए बाबूजी बोले, " आइये, आपका ही इंतजार हो रहा था । देखिये कौन आया है ?" मैं भाँप गया, आगंतुका बालिका अवश्य ही मेरी जीजी के ससुराल की या किसी बुआ, चाची या मौसी के संबंधी की होनहार बिटिया होंगी । "दूर दूर क्यों, यहाँ सामने बैठिये, शर्माइये नहीं" के सम्वाद से मेरा इंटरव्यू होने लगा । औपचारिक शिष्टाचार के बाद कन्या ने सीधा मुझसे यह प्रश्न किया कि आप चारों भाई बहेन गाने बजाने के बड़े शौकीन हैं और आपके बड़े भैया सिनेमा के हीरो बनना चाहते थे, कहीं आपका इरादा भी आगे चल कर सिनेमा में जाने का तो नहीं है ?" । भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में कन्या द्वारा मुझसे इस प्रकार टेढ़े मेढ़े सवाल करना केवल मुझे ही नहीं मेरे पूरे परिवार को बड़ा अटपटा और अस्वाभाविक सा लगा ।
यद्यपि मुझे कन्या के इस विचित्र व्यवहार के कारण बड़ा आश्चर्य हो रहा था फिर भी क्योंकि वह देखने सुनने में ठीक ठाक थीं, पढ़ी लिखी थीं और सत्ता पक्ष के एक प्रभावशाली नेता की पुत्री तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सहसा धनाढ्य हुए बड़े भाई की छोटी बहेन थीं और इतनी बड़ी चमचमाती लेटेस्ट मॉडल शेवि सुपर डिलुक्स शोफर ड्रिवेन कार पर बैठ कर हमारे घर आयीं थीं और तब मैं बड़े बड़े सपने देखने वाला, एक नासमझ नवयुवक था, मैं कभी उनको कनखी से निहार रहा था तो कभी उनकी कार के प्रति आकर्षित हो रहा था । उनकी कार देख कर मुझे अपने घर की पुरानी कारों की याद आने लगी । आशा बंध रही थी कि इतनी बड़ी नहीं तो कम से कम बिरला जी के हिंदुस्तान मोटर्स की नयी छोटी गाड़ी - 'हिंदुस्तान टेन' - तो मिलेगी ही । देवीजी की बातों से यह विश्वास हो गया कि उनके बड़े भाई के धक्के से मैं केंद्र के सिविल सर्विस में स्पेशल पोलिटिकल सफरर कोटा से हो रहे रिक्रूटमेंट में आई. ए. एस. नहीं तो कम से कम अपने प्रदेश का पी. सी. एस. तो बन ही जाउंगा । कार और जॉब की लालच मुझे मजबूर कर रही थी कि मैं बिना किसी शर्त के अति आधुनिक विचारोंवाली वीरांगना के साथ विवाह के लिए राजी हो जाऊं ।
अम्मा-बाबूजी को भी उस सम्बन्ध से कोई एतराज़ नहीं था पर उसका कारण कुछ और ही था । हमारी नामौजूदगी में बाबूजी और अम्मा ने उससे काफी लम्बी बातचीत कर ली थी जिसके आधार पर अम्मा की यह दलील थी -"जब यह दो वर्ष की थी तभी उसके पिता नहीं रहे, भाई की जिम्मेदारी है ।" आप समझ ही सकते हैं कि दुल्हा राजी, अम्मा राजी, भौजी औ भैया भी राजी, बाजी औ बाबूजी राजी, तु ही कहौ का करिहे काजी । मेरा हाल था --
यहाँ देखते हैं, वहां देखते हैं,
उन्हें देखते हैं, जहाँ देखते हैं
वो आये मेरे घर बड़ी उनकी रहमत
हम उनकी नजर से 'मकाँ' देखते हैं
कभी अपनी 'खोली' कभी उनकी गाड़ी
ज़मीं पर पड़े, आसमां देखते हैं
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