माँ का आशीर्वाद और अपना स्वप्न साकार हुआ, चमत्कार सरीखी “राम कृपा” थी यह । मेरी प्यारी अम्मा का संसार छोड़ते समय मुझे दिया वह आशीर्वाद, “तुम विलायत जाओगे बेटा, ज़रूर जाओगे”, सच हो रहा था । साइकिल रिक्शे, पब्लिक बस, और रेल के इंटर क्लास में यात्रा करने वाला “भोला“, लंदन जाने के लिए, जीवन में पहली बार एयर इंडिआ के ७०७ “जम्बो जेट” की सवारी करने जा रहा था ।
२ नवंबर १९६३ को दिल्ली से लंदन तक की लगभग १०-१२ घंटे की एयर इंडिआ की हमारी फ्लाइट उड़ी और मैं धीरे धीरे सहयात्रियों की देखा देखी आश्वस्त हो कर ऊपरी दिखावटी सहजता से यात्रा करता रह, लेकिन मन ही मन घबराता रहा । बुरी तरह नर्वस था । एयर होस्टेस के एलान के अनुसार, पास में बैठा यात्री जो जो करता रहा, उसे चोरी चोरी देख पर मैं उसका अनुसरण करता रहा । कुर्सी सीधी कर ली, सेफ्टी बेल्ट बांधली । ट्रे में नाना प्रकार की टॉफी चॉकलेट लिए हुए होस्टेस जब निकट आने लगी, मैंने आँखें मूंद ली, जैसे सो रहा हूँ । मुझे यह डर सता रहा था कि कहीं टॉफी ले लेने पर वह बड़ा बिल पेश कर देगी तो पेमेंट कैसे करूँगा । जेब में अधिक धन राशि नहीं थी । पहली बार जा रहा हूँ, कैसे सब व्यवस्था होगी, कहाँ ठहरूँगा, आदि प्रश्न उठ रहे थे । मन ही मन गुनगुना रहा था "कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो "। प्रभु की कृपा पर अटूट भरोसा था मुझे, फिर भी मानव मन?
लंदन के GMT समयानुसार शाम के ४ बजे हीथरो एयर पोर्ट पर हमारा जम्बो जेट उतरा । चार बजे तो दिन होता है, ये क्या ? यहां तो रात हो चुकी थी । इस अनजान नए शहर में रात के अन्धकार में कैसे पहुँच पाउँगा अपने पहले गंतव्य - “इंडिआ हाउस”, और यदि पहुंच भी गया तो वहां इतनी रात तक कौन मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा । पांच बजे दफ्तर बंद हो गया होगा । किसी से कुछ पूछने का मौका नहीं था, सब जल्दी जल्दी भाग रहे थे अपने अपने घरों की और कौन रुकेगा मुझे राह बताने को । टैक्सी लेने का साहस नहीं कर सकता, न जाने कितना घुमाए फिराए और उतरने के बाद मीटर दिखा कर पर्स का सारा फॉरेन एक्सचेंज निकलवा ले । भारत के अपने अनुभूवों के आधार पर शंकाओं का बवंडर झकझोर रहा था मेरे मन को ।
इन शंकाओं से जूझता हुआ मैं उस समय लंदन की नवंबर मास की सर्दी में पसीने से तर हो रहा था । एक सूटकेस, एक खचा खच भरा सूटकेस से भी भारी हैंड बैग और भारी भारी ऊनी कपड़े शरीर पर लादे हुए, भय युक्त शंकाओं से थर थर कांपते ब्रिटिश इमीग्रेशन, कस्टम पार करके, केवल मार्ग दर्शाते बोर्डों को पढ़ते पढ़ते, एयर पोर्ट के बस अड्डे तक पहुंच गया और वहां से विक्टोरिया बस टर्मिनस जाने वाली बस में सवार हो गया । इतना सुन रखा था की विक्टोरिया बस अड्डे से लंदन नगर के सब भाग तक पहुंचाने के लिए बसें मिलतीं हैं । सो एयरपोर्ट से बस ले कर विक्टोरिया बस अड्डे, फिर वहां से दूसरी बस ले कर “इंडिया हाउस” पहुंचा, । मूख्य द्वार के “वाच मैन” ने नाम पूछ कर मुझे हाई कमीशन के शिक्षा-विभाग के अध्यक्ष श्री ए. आर. किदवई तक पहुंचा दिया । किदवई जी ने बताया की कमीशन के एक अधिकारी (कदाचित उनका नाम श्री साठे था), एयरपोर्ट गए थे, मुझे रिसीव करने और वह वहां पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे । उन्होंने कई बार पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर मेरा नाम कई बार पुकारा भी था । किदवई जी को कैसे बताता की एयर पोर्ट में घबड़ाहट के कारण मैं कुछ सुन ही नहीं सका और बस द्वारा वहां पहुंच गया । किदवई जी ने वाई. एम. सी. ए. के इंडियन स्टूडेंट हॉस्टल के वार्डन श्री मलय पेरूमन से बात करके मुझे वहां रहने की व्यवस्था करवा दी थी ।
व्यक्ति का संकल्प दृढ़ हो, प्रभु पर अटल विश्वास हो और वह स्वधर्म के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे तो उसे "प्यारे प्रभु की अहेतुकी कृपा" बिन मांगे ही प्राप्त हो जाती है । आवश्यकता पड़ने पर ऐसे व्यक्ति को उसकी समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से निपटने के लिए उसके “इष्ट देव”, उसके “प्यारे प्रभु” आवश्यकतानुसार समुचित शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक बल भी प्रदान करते रहते हैं ।
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