बचपन से मेरी माँ मुझे दुलराते हुए अक्सर कहा करती थी कि "हमार भोला ता विलायत में पढ़ी, ओकरा पासे बड़ा बड़ा गाड़ी होखी, और ऊ बड़का चुक्के सीसा के बंगला में रही, देख लीहा तू सब लोग" । बचपन में मुझे दिया हुआ वह आशीर्वाद १९६२ में अम्मा ने अपने जीवन की अंतिम घड़ी में फिर दिया, "होखी बबुआ कुल होखी, तू पढ़े खातिर बिलायत जइब, तोहार सीसा के बडका चुका बंगला होखी, बड़का बडका बिलायती कार पर तू घुमबा" । अम्मा के निधन के साल भर के अंदर ही उनका आशीर्वाद फलीभूत हो गया । कार भी आ गयी और लंदन यात्रा भी हो गयी । तत्कालीन परिस्थितियों में असंभव लगने वाली पढ़ायी के लिए मेरी लंदन यात्रा की घटना अचानक कैसे घट गयी, इस यात्रा की कल्पना और उसके विषय में मेरे मन में तीव्र उत्कंठा कब और कैसे जागृत हुई, सब माँ की झोली से मिला आशीर्वाद का चमत्कार ही तो है ।
मैं अपनी आजीविका प्रदायक हार्नेस फैक्ट्री का काम जी जान लगा कर अपनी क्षमता और सामर्थ्य से किया करता था, लेकिन तरक्की की सूची के नियमानुसार अपना ग्रेड बढ़ते हुए नहीं देखता था तो दुखी हो जाता था । पिछले दस वर्षों में सीढ़ियां चढ़ते हुए सुपरवायजर से चार्जमैन, चार्जमैन से असिस्टेंट फोरमेन ही हो पाया था । इसके अतिरिक्त मेरे उच्च अधिकारी मेरी इच्छा के विरुद्ध, कच्चा चमड़ा पास करने के लिए मेरे अंतर्गत कार्यरत कर्मचारियों के माध्यम से मेरे नाम पर रिश्वत लिया करते थे, जिसके कारण मेरा अंतर्मन पीड़ित था, निरुत्साहित था ।
मुझसे एक ग्रेड ऊंचे पद पर कार्यरत मेरे हितैषी श्री विजय कुमार मित्रा ने मेरी पीड़ा को आंका, मेरे अंतर्द्वन्द को समझा और उन्होंने मुझे लंदन के "लैदर सैलर्स कॉलेज" से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा की पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया । तत्संबंधी जानकारी हासिल करने में उन्होंने मेरी मदद भी की । अपने प्रयास एवं पुरुषार्थ से मैंने कॉलेज के प्रिंसिपल के साथ पत्र-व्यवहार शुरू किया और एक दिन मेरे पास उस कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ डैनबी का पत्र आया कि मेरा एडमिशन लैदर टेक्नोलॉजी में डिप्लोमा लेने के लिए तीन वर्षीय कोर्स में नैशनल लैदर सैलर्स कॉलेज में हो गया है और मुझे शीघ्रातिशीघ्र लन्दन पहुँच कर कॉलेज में दाखिल होना है ।
उन दिनों चीन और पाकिस्तान से भारत का युद्ध चल रहा था । चीन ने धोखे से भारत की पीठ में छुरा घोंप दिया था । "हिन्दी चीनी भाई भाई" के नारे लगाने वालों के मुंह बंद हो गए थे । भारत को अपनी अखंडता कायम रखने और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए चीन से युद्ध करने की तैयारियों में जुटना पड़ा । भारत के सरकारी आयुध निर्माणी कारखाने, जो स्वतंत्रता के बाद से धीरे धीरे निष्क्रिय हो गए थे पुनः जीवित किये जाने लगे । रक्षा मंत्रालय के जिस आयुध बनाने वाले कारखाने में मैं काम करता था वहां मुझे स्टडी लीव मिल सकती थी लेकिन इस युद्ध के कारण कर्मचारियों की छुट्टियाँ रद्द हो गयी, पुराने रिटायड कर्मचारियों को काम पर वापस बुलाया जाने लगा, नये लोगों की भर्ती शुरू हो गयी । ऐसे में मुझे स्टडी लीव कौन देता? नीचे से ऊपर तक मैं जिन जिन से कह सकता था, मैंने कहा, पूरी कोशिश कर ली, पर कुछ नहीं हुआ । सब ने मना कर दिया ।
छुट्टियां मिलनी मुश्किल थीं, फिर भी मुझे अपने कुलदेवता और इष्ट देवता पर दृढ़ विश्वास था, अम्मा के आशीर्वाद पर भरोसा था, सोचता रहता था कि अम्मा का एक वचन सत्य हुआ, कार खरीद ली, तो लन्दन में पढ़ाई का कथन भी सच होगा । हुआ भी ऐसा ही । एक दिन कारखाने के जनरल मेनेजर श्री आर. सी. वर्मा ने सूचना दी कि मुझे अध्ययन-कार्यकाल की छुटियां भारत सरकार ने दे दी है । सभी आश्चर्यचकित थे कि इतनी विषम परिस्थिति में यह सब हुआ कैसे? इसका उत्तर न मेरे पास था न मेरे जनरल मेनेजर वर्मा के पास ।
मुझे टेक्नीकल एज्यूकेशन विभाग कानपुर से इस अध्ययन कार्य के लिए ऋण भी मिल गया जिसके लिए पूज्य बाबूजी एवं पड़ौसी चाचा प्रो. सी. पी. श्रीवास्तव का घर गिरवी रखना पड़ा । मैं दुविधा ग्रस्त था, जाऊँ कि न जाऊं । अंतर्द्वन्द गहन था क्योकि बाबूजी की ढलती उम्र थी, राघव अस्वस्थ था, श्रीदेवी, रामजी छोटी उम्र के अबोध बच्चे थे, कृष्णा गर्भवती थी, फिर सरकारी छुट्टियां वेतन रहित थी । केवल दस माह तक ही आधा वेतन मिलने वाला था, जिससे फैक्ट्री की सहकारी समिति से लिया ऋण चुकाना था, लंदन की पढ़ाई अपने बलबूते पर करनी थी, आदि आदि । इन सभी जिम्मेदारियों को छोड़ कर कोर्स करना उचित है या नहीं । मेरे पास तो हवाई-यात्रा की कौन कहे, कानपुर से दिल्ली जाने का रेल-टिकिट खरीदने की भी धन-राशि नहीं थी । जब गया तो पहली तारीख को वेतन मिलने पर टिकिट खरीद कर दिल्ली से उड़ान भरने दिल्ली गया ।
किसने की यह सारी व्यवस्था ? किसने मेरी जिम्मेदारियों का बोझ उठाया ? मेरे इष्टदेव सर्वशक्तिमान सर्वसमर्थ श्री राम ने, उनके प्रिय भक्त महाबीर हनुमान ने, मेरे प्यारे सद्गुरु महाराज ने, मेरी माँ के आशीर्वाद ने ? किस किस को धन्यवाद दूँ, किस किस को सराहूं, किस किस का उपकार मानूं? कौन होगा उनके जैसा भक्तवत्सल, कृपानिधान ?
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