शुक्रवार, 4 मार्च 2022

स्वर ही ईश्वर है

अपने "संगीत-गुरु गुलाम मुस्तफा खान साहेब" से पायी शिक्षा से जाना और पाया कि स्वर ही ईश्वर है और स्वर साधना ही ईश्वर की पूजा है । हमने पहली बार उनसे ही सुना था कि केवल एक स्वर "सा"( षड्ज) को ठीक से साध लेने से गायक के कंठ में सप्तक के सभी स्वर भली भांति सध जाते हैं । उनसे पायी शिक्षा के कुछ विशेष अंशों में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह रहा कि प्रथम पाठ में ही उस्ताद ने हमें "स्वर साधना" का महत्व बता दिया था । उन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाते हुए कहा था " भोला भाई, मुश्किल नहीं है यह । तानपुरा उठाओ, अपने स्वर से मिलाओ, और फिर पूरे भाव-चाव से स्वर से स्वर मिला कर "सा" या "ॐ" स्वर का उच्चारण करो ।"

"एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय“ उक्ति "गुरु मन्त्र" के समान मेरे मन बुद्धि पटल पर, सदा सदा के लिए, फौलादी अक्षरों में अंकित हो गयी और उस्तादजी का कथन जीवन भर मेरी संगीत साधना का मूलाधार बना रहा। मैं उस्ताद जी के बताये महान सूत्र के सहारे, "स्वर में ही ईश्वर" के दर्शन करता कराता अपनी संगीत साधना में जुटा रहा । जब जब भी मैंने कोई उत्तम संगीत सुना अथवा किसी 'पहुंचे हुए' सिद्ध गायक के कंठ से स्वरित "सा" मेरे कानों में पड़ा, मुझे रोमांच हो गया, मेरी आँखें नम हो कर मुंद गयी और मन आनंद रस से रसमय हो गया । वास्तविक सत्य तो यह है कि समर्थ संगीतज्ञों के अंतर्घट से उठे "षड्ज" स्वर की तरंगों के कानों में पड़ते ही जिस परमानन्द की प्राप्ति होती है वह साक्षात "हरिदर्शन" से कम नहीं होती है । संगीत हमारे अंदर समाये हृदयगत भावों के आत्मिक स्वरूप का दर्पण ही तो है सम्भवतः इसीलिये "स्वर ही ईश्वर है" की सत्यता का सदैव ही मैंने निजी स्तर पर अनुभव किया है ।

इस महनीय पाठ के बाद उस्ताद जी की देख रेख में अधिक से अधिक स्वरसाधना करने का हमारा अभ्यास कुछ समय तक ही यथावत चला । जब उस्तादजी के "जति गायन" का शोध कार्य समाप्त हो गया, उनका कानपुर आना जाना धीरे धीरे कम हो गया और वे मुंबई निवासी हो गए । तब वर्षों तक उनसे मुलाक़ात नहीं हुई । संयोग से सन १९९७ में हम भी मुंबई पहुंच गए, तब उनसे मेरी भेंट हुई । इस समय तक उस्ताद जी की प्रसिद्धि एवं सफलता आकाश छू रही थी । वह विश्वविख्यात हो चुके थे । भारत सरकार द्वारा "पद्मश्री" उपाधि के लिए मनोनीत हो चुके थे, एक फिल्म में "बैजू बावरा" का किरदार निभा चुके थे, एक में "उमरावजान" के उस्ताद बनने का मौका भी पा चुके थे, अनेक फिल्मों में संगीत निर्देशन करने के प्रस्ताव भी उनके सन्मुख थे ।

यह उस्ताद जी की महान उदारता थी और मेरे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात थी कि मेरे जैसे साधारण शागिर्द को उन्होंने याद रखा । उन्होंने फोन पर मेरी आवाज़ पहचान ली और मुझसे भेंट करने के लिए वह खुद ही बांदरा से अल्टामाऊंट रोड तक हमारे घर आने को तैयार हो गये। गुरु परम्परा के अनुसार यह अनुचित होता, इसलिए मैं स्वयं उनके घर गया । उन्होंने मुझे गले लगाया । "मेरे भोला भाई" कहकर उन्होंने मेरा परिचय घर में सबसे कराया । अनेकों पीढ़ियों से संगीत की सेवा करने वाले बदायूं के इस होनहार संगीतज्ञ का भाई या मित्र कहला पाना, आत्मीय स्नेह पाना मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी, तब भी थी और आज भी है ।

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