प्यारे प्रभु की अनन्य कृपा ही थी कि लन्दन से स्वदेश लौटने पर अगस्त १९६५ में जब लैदर सैलर्स कॉलेज से लैदर टेक्नॉलॉजी का पोस्ट ग्रजुएट डिप्लोमा प्राप्त कर बिना किसी हिचकचाहट के मैं साइकिल से हार्नेस फैक्ट्री गया और पुनः अपने विभाग में असिस्टेंट फोरमेन के पद पर मैंने कार्य सम्भालना प्रारम्भ किया तब सभी अफसरों, कर्मचारियों, हितैषी मित्र, के. के. तनेजा, धर्मसिंह, तिलकराज खुल्लर ने मेरा हार्दिक स्वागत किया । मेरे बड़े भाई समान मित्रा साहिब की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था । जनरल मेनेजर वर्मा साहिब भी गौरवान्वित थे । सब खुश थे पर मेरे मन में कहीं न कहीं यह तड़पन जीवन्त थी कि लन्दन के डिप्लोमा की पढाई के लिए छुट्टियाँ लेने से तरक्की की दौर में मैं पीछे रह गया, ज़रूर कुछ खो बैठा ।
कानपुर की हार्नेस फेक्ट्री में टरनर कम्पनी की पुरानी मशीनें थीं, जो सस्ते दामों पर रशिया से आईं थीं, जिन्हें चलाने की ट्रेनिंग हासिल करने के लिए कुछ अधिकारी वहां भेजे गए थे, जो वहां से मौज मस्ती कर, अर्थ लाभ उठा कर वापिस तो आगये परन्तु दक्षता प्राप्त न कर सके । अतः मशीनों पर काम कराने करने में असमर्थ रहे, इस प्लांट में चल रही परेशानियों को दूर करने में असफल रहे, । जैसा मैंने पहिले ही बताया है कि लन्दन में समर ट्रेनिंग के दौरान टरनर मशीन्स, लीड्स में मैंने चमड़े की इस विधा से सम्बन्धित एक और विधा की भी दक्षता प्राप्त कर ली थी । इसका लाभ उठाते हुए मेरे जनरल मेनेजर वर्मा साहिब ने और मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बूट प्लांट चलाने का कार्य भार सौंप दिया । मुझसे कहा गया "तुम इसमें विज्ञ हो कर आये हो, इसकी सभी विधाओं को सम्भालना और उन्नत करना तुम्हारा कार्य है "।
सृष्टिकर्ता की लीला निराली है । मैंने दक्षता प्राप्त की थी चमड़ा बनाने में और दे दिया गया बूट प्लांट चलाने को । इस सन्दर्भ में मुझे एक गाने की यह पंक्ति याद आ रही है -- "अजब विधि का लेख किसी से पढा नहीं जाए" । मैंने इस चुनौती को स्वीकारा और अपने इष्ट देव की कृपा से तीन चार महीने के अंदर बूट प्लांट की समस्याओं का हल निकाल कर उसे जीवन्त कर दिया ।
इससे मुझे एक अनूठा अनुभव हुआ कि प्रगति-पथ उसी का प्रशस्त होता है जो चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस रखता है । बचपन से सुनता आया था जो होता है, भले के लिए होता है । चमड़े के क्षेत्र में अभी तक केवल एक ही क्षेत्र में दक्षता प्राप्त करने का विधि-विधान रहा था । बूट प्लांट चलाने की जिम्मेदारी ने मुझे चमड़ा बनाने और जूता बनाने की विभिन्न विधाओं का अनुभव करा दिया, ऐसा अनुभव जो भारत में किसी के पास न था । मेरा भला हो गया, लाभ यह हुआ कि इस अनुभव के आधार पर बिना किसी प्रयास के अगस्त १९६७ में एक्सपोर्ट एजेंसी दिल्ली में मेरी नियुक्ति डिप्टी डायरेक्टर के पद पर हो गयी । रक्षा मंत्रालय को छोड़ कर मैं वाणिज्य-व्योपार, उद्योग मंत्रालय से सम्बद्ध हो गया ।।
प्यारे प्रभु की अनन्य कृपा सदैव मुझपर बनी रही और मैंने अपने आपको अपने किसी भी कर्म का कर्ता समझा ही नहीं । पल भर को भी यह भुला ना पाया कि वह "सर्वशक्तिमान यंत्री", मुझे संचालित कर रहे हैं । "मेरे प्यारे प्रभु" ने मुझे जो काम सौंपा, मैंने उसे शिरोधार्य किया क्योकि करनेवाला यंत्री प्रभु ही है, हम सब तो उनके मात्र यंत्र ही हैं ।
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