यह मेरा परम सौभाग्य रहा कि स्वामीजी महाराज ने नाम दीक्षा वाले दिन ही मुझे 'अधिष्ठान जी' भी प्रदान कर दिए और उन्होंने मुझे अगले दिन ग्वालियर में लगने वाले 'पंचरात्रीय साधना सत्संग' में सम्मिलत होने की अनुमति भी दे दी ।
१९५९ में मैंने पहिली बार ग्वालियर में आयोजित श्री रामशरणम् के पंचरात्रि सत्संग में भाग लिया । यह मेरे जीवन का यह पहिला साधना-सत्संग था और उस सत्संग का मेरा प्रत्येक अनुभव अनूठा था । यह सत्संग ग्वालियर में पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की छत्रछाया में हुआ था । सत्संग के मोटे मोटे नियम मुझे मेरे स्वजनों ने बता दिये थे और इसकी पृष्ठभूमि में मुझसे यह भी कहा था कि मैं वहां गाने के लिए भजन भी तैयार कर लूँ ।
आज की तरह उन दिनों भी प्रातः कालीन सभा और रात्रि की सभा में साधकों के भजन होते थे और गुरुदेव ही इशारा करके उस साधक को आमंत्रित करते थे जिसका भजन वह सुनना चाहते थे । श्री स्वामी जी महाराज के सानिध्य में होने वाले उस पंचरात्रि सत्संग की सभी बैठकों में मैं अपनी गायकी की प्रवीणता प्रदर्शित करने को उतावला रहता था, सोचता था कि स्वामी जी महाराज की दृष्टि मुझ पर पड़े और अपने आसन पर बैठे बैठे वह मुझे पुकार कर अपने निकट बैठा लें और मुझे भजन गाने का आदेश दें !!
नित्य प्रति हर सभा में मैं उतनी ही तैयारी के साथ जाता, उचक उचक कर स्वामी जी की ओर देखता लेकिन अवसर नहीं मिलता । प्रियजन, अपने आप को सर्व श्रेष्ठ समझने वाले अहंकारी व्यक्तियों की अंततः ऐसी ही गति होती है । सम्भवतः उन दिनों मेरे स्वर में अंतरात्मा की अगम्य गहराई में बसे भावों की प्रस्तुति में उतना माधुर्य नहीं रहा होगा, जितना स्वामीजी चाहते थे ।
आखिर एक दिन महाराज जी की कृपा दृष्टि पड़ ही गयी, महाराज जी की उंगली मेरी ओर उठी । मैं पुलकित हुआ, महाराज जी की उंगली उनके बगल में बैठे किसी और साधक की ओर घूम कर रुक गयी और उन्होंने किसी अन्य साधक भजन सुनाने का आदेश दे दिया । काफी देर बाद समझ पाया कि उस सभा में, पंडित राम अवतार शर्मा जी, श्री मुरारीलाल पवैया जी, श्री गुप्ता जी, श्री बंसल जी, श्री बेरी जी, श्री शिवदयाल जी तथा श्री जगन्नाथ प्रसाद जी जैसे महान साधकों के होते हुए, मेरा यह सोचना कि श्री स्वामी जी महाराज मेरे जैसे नये साधक को आगे बुलाकर अपने निकट बैठाएंगे, कितनी बड़ी मूर्खता थी ? एक दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ न था ।
ऐसा नहीं है कि मैं पाँचों दिन उपेक्षित ही पड़ा रहा । अंततः महाराज जी ने हमें मौका दिया पर काफी लम्बी प्रतीक्षा के बाद । यूं कहिये कि मन ही मन बहुत रोने धोने के बाद मुझ पर विशेष कृपा कर के हमारे इष्ट देव श्री राम ने ही मुझे वह अवसर प्रदान किया कि मैं नैवेद्य सरीखा अपना भजन उनके श्री चरणों पर अर्पित कर सकूं । मैं तैयार तो था ही, बड़े भाव से पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ, मैंने भजन गाया । स्वामीजी मेरी ओर देख कर थोड़ा मुस्कुराए, मुझे रोमांच हो आया, मैं गदगद हो गया, मेरी आँखे सजल हो गयीं । मुझे विश्वास हो गया कि नैवेद्य स्वरूप अर्पित मेरी भजन-भेंट मेरे गुरुदेव ने स्वीकार कर ली ।
एक और संस्मरण स्वामी जी के अपनत्व का --
नित्यप्रति साधकों को भोजन परोसने की सेवा करते देख मन में उमंग उठी कि मैं भी यह सेवा करूं । कभी काम किया नहीं था, कैसे कर पाता यह सेवा । मेरे गुरुदेव मेरे अंतःकरण की भावना को समझ गए और विनोद पूर्वक बोले मुरार और शिवदयालजी के बहनोई के नाते आप तो हमारे दामाद हैं, आपसे कैसे सेवा लें? ऐसे होते हैं सद्गुरु, साधक के मन को परख कर उनकी सहज-सम्भार करने वाले ।
पूर्णाहुति की अंतिम बैठक के बाद विदाई के समय मुझे गले लगाकर मेरी पीठ पर हाथ फेरते फेरते उन्होंने मेरे तन-मन और मेरे अन्तःकरण पर प्यार और आशीर्वाद का शीतल सुगंधमय चन्दन लेप लगाया था, उसकी गमक अभी भी मेरे आन्तरिक और बाह्य जीवन को पवित्र कर रही है । गुरु कृपा ही तो श्री रामकृपा है । गुरु कृपा में आनंद ही आनंद है ।
गुरुजन साधारण मानव को उसकी उसमें ही निहित क्षमताओं का ज्ञान कराते हैं और उसे अनुशासित जीवन जीने की कला बता कर उसका उचित मार्ग दर्शन करते हैं । मेरे सद्गुरु ने भी मुझे दीक्षा दे कर मुझ पर महत कृपा की, मेरा पथ प्रदर्शित कर मुझे सत्य, प्रेम और सेवा के मार्ग पर चलना सिखाया, सात्विक जीवन जीने की कला सिखाई, अनुशासन पालन करते हुए जगत में व्यवहार करना सिखाया ।
मैं कभी कभी सोचता हूँ कि मेरा क्या हुआ होता यदि मुझे मेरे "सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज " इस जीवन में मुझे नहीं मिलते और इतनी कृपा करके उन्होंने मुझे अपना न बनाया होता या मुझे अपने श्री राम शरणम् के "राम नाम उपासक परिवार" में सम्मिलित न किया होता ?
मेरी संन १९५९ की डायरी का एक पृष्ठ ---
मंगलवार - कार्तिक - शु. ३, वि. २०१६- तदनुसार ३. नवम्बर १९५९ ई.
ग्वालियर
हम 'जनता' से ग्वालियर आये । दोपहर बाद दादा के साथ, (शर्मा बिल्डिंग, लश्कर से परमेश्वर भवन), मुरार गये श्री स्वामी जी के दर्शन करने तथा पंच रात्रि सत्संग में सम्मिलित होने की आज्ञा प्राप्त करने ।
आज्ञा मिल गयी । आज सायंकाल श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने हमे "नाम दीक्षा" दी । कितना "सुख" मिला ? कौन वर्णन कर सकता है ?
गुरु दर्शन में ही तो है उस आनंदघन परम का दर्शन ।
मेरी डायरी का पृष्ठ ---
९ नवंबर १९५९---अक्षयनवमी
सत्संग से बिदाई
प्रातःकाल में बिदाई के समय गुरुदेव ने आरती की, सत्संग समाप्त हुआ । पूज्य दादा के साथ श्री गुरु महाराज को विदा करने स्टेशन गया । स्वप्नवत सत्संग की आनंदपूर्ण और सुखद घड़ियाँ समाप्त हुईं । कितनी विलक्षण प्रसन्नता तथा अद्भुत आनंद मिला है कि वर्णन नहीं कर सकता ।
परम पूज्यनीय, प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज के दर्शन मुझे उस पंच रात्रि सत्संग के बाद दुबारा नहीं हुए । एक वर्ष में ही महाराज अपने इष्ट परमप्रभु श्री राम के "परम धाम" सिधार गये । मैं कानपुर से हरिद्वार भी नहीं पहुँच पाया । मन मसोस कर रह गया ।
सद्गुरु स्वामीजी महाराज स्वामी जी महांराज ही नहीं वरन उनके बाद एक एक करके, गुरुदेव प्रेम जी महाराज तथा मेरे अतिशय प्रिय गुरुदेव डॉक्टर विश्वामित्तर जी महाराज हमारे जीवन के आध्यात्मिक अन्धकार को परमानंद की ज्योति से भरने को आये और चले भी गये । स्थूल रूप में हमसे दूर होते हुए भी उनमें से कोई भी हमसे एक पल को भी विलग नहीं हुआ । सद्गुरु स्वामीजी महाराज आज भी हमारे अंग संग हैं । वह हमारी मनोभावनाओं में, हमारे चिंतन और विचारों में इस क्षण भी उतने ही जीवंत और क्रियाशील हैं जितने वे आज से ६० वर्ष पूर्व मेरे दीक्षांत की घड़ी में थे । आध्यात्म के क्षेत्र में हमारे प्रथम मार्ग दर्शक थे, हैं, और जीवन पर्यन्त रहेंगे । उनके गुलाबी गुलाबी आभायुक्त श्रीचरण आज भी मेरे जीवन का सम्बल हैं उसी तरह जिस तरह भरत के लिए श्री राम की पादुकाएं थीं ।
सद्गुरु चरण सरोज रज जो जन लावें माथ ।
श्री हरि की करुणा-कृपा तजे न उनका साथ ।।
ऐसे प्रिय जन पर सदा कृपा करे "रघुनाथ" ।
सुख समृद्धि सद्बुद्धि भी कभी न छोड़े साथ ।।
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