एक के बाद एक लंदन प्रवास से जुड़ी "प्रभु-कृपा" की असंख्य मधुर स्मृतियाँ अन्तर पट पर उमड़ने लगी हैं । मेरे वार्डन अनुशासनप्रिय कुशल व्यवस्थापक थे । उन्होंने ने मेरी आयु, स्वभाव और रुचि को जान कर, मेरा परिचय पांच वर्ष से ऑर्गेनिक केमिस्ट्री में पी एच डी कर रही डॉ. अरनवाज़ माणिक शाह बारिया से करवाया । यह विदुषी महिला स्टूडेंट यूनियन की सर्वे सर्वा और कार्यकर्ता थी । इन्होने समय समय पर मुझे उचित और उपयोगी सलाह दी । इन्होंने विभिन्न आयोजित संगीत कार्यक्रम के आयोजकों से मेरी जान-पहिचान करवा कर मुझे उनमें भारतीय गायकी में गीत प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करवाया ।
प्रो के. जॉर्ज हम्फ्रीज, प्रो. आर. इन. साइक्स (सैक्स), प्रो. के. सी. टक मेरे आचार्य थे । डॉ. ई. सी. लीज़ मेरे विज़िटिंग प्रोफेसर थे, जो मैनेजमेंट पढ़ाने हावर्ड यूनिवर्सिटी से आया करते थे । डॉ. रे प्रिंसिपल और मेरे वार्डन मेरा बहुत ध्यान और मान रखते थे । भारत से जब कोई विशेष गणमान्य अतिथि आता था तो उनकी आगवानी और साथ चाय-पानी के समय मुझे बुला लेते थे । उनके स्नेह के कारण गणतंत्र दिवस पर प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री आये, उनके साथ फोटो भी खींची, इंग्लैंड और सारे कॉमनवैल्थ देशों की महारानी एलिज़ाबेथ से हाथ मिलाने का अवसर मिला, बेल्जियम में भारत के राजदूत नियुक्त डॉ. के. बी. लाल से भेंट हुई ।
गरमी के अवकाश काल के समय मैंने हार्नेस फैक्ट्री से जुड़े हुए टर्नर मशीन्स, लीड्स में समर ट्रेनिंग ले ली और प्रभु की आस्था तथा हनुमानजी द्वारा दी बल-बुद्धि से त्रि-वर्षीय कोर्स को दो सत्र में समाप्त कर लिया । अगस्त १९६५ में "जर्नल ऑफ़ सोसाइटी ऑफ़ लैदर ट्रेड केमिस्ट ऑफ़ यू. के." में मेरा लेख छपा ।
एडमीशन अधिकारियों ने मुझे एम. बी. ए. के कोर्स करने के लिए चुन लिया था, परन्तु मैं परिवार के उत्तरदायित्त्व की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, विवश था । नवम्बर १९६३ में अपने बाबूजी, पत्नी कृष्णा और प्यारे बच्चे श्रीदेवी, रामजी, राघव को छोड़ कर लन्दन पढ़ने आया था, प्रार्थना को अभी तक देखा भी नहीं था, मन आकुल था, मैंने भारत लौटने का निर्णय ले लिया ।
भारत-पाकिस्तान में परस्पर युद्ध चल रहा था, फिर भी पानी के जहाज से सुरक्षित अपने स्वदेश लौट आया । जहाज में यात्रा करते समय एक ओर तूफान के थपेड़े से जहाज कील रहा था और दूसरी ओर मन विचारों के झंझावत में फंसा हुआ था । घर लौटने की खुशी थी, पर दो वर्ष के अंतराल में पनपी जीवन की गुत्थियां अंदर ही अंदर उलझ रही थी । शिक्षा विभाग से लिया ऋण चुकाना होगा, कानपुर में हार्नेस फैक्ट्री के उसी माहौल में, उसी असिस्टेंट फोरमेन की पोस्ट पर काम करना होगा, तरक्की मिलेगी या नहीं, वरिष्ठ उच्चाधिकारी कैसा व्यवहार करेंगे, आदि, आदि ।
मेरी ये यात्राएं आशाओं और सफलताओं के साथ साथ आशंकाओं की घबराहट और भविष्य की योजनाओं से घिरी हुई थीं ,साथ ही आर्थिक सीमाओं में बंध कर हुईं थीं । क्योंकि मैं अपने खर्चे पर पढ़ने गया था, धन राशि के अभाव में मैं इंग्लैंड से अपने परिवार और हितैषी मित्रों के लिए कुछ भी नहीं ला सका, केवल एक फ्रिज कानपुर भेजा था जो कराची में कहीं गायब हो गया । उसका बीमा कराया था । प्रभु की कृपा देखिये, बीमा कम्पनी से उसकी धनराशी उस समय मिली जब बाबूजी की कूल्हे की हड्डी टूट जाने के कारण मकराबर्ट अस्पताल में भर्ती थे और मुझे उसका बिल चुकाने के लिए धन की अतीव आवश्यकता थी । कहते हैं कि जब चारों ओर से आशा दम तोड़ देती है तो प्रभु किसी न किसी रूप में मदद करता है । सत्य सिद्ध हुआ यह सूत्र । प्रश्न उठा, क्या सचमुच कुछ नहीं लाया ? अंतरात्मा से उत्तर मिला, लाया हूँ, सच्चे मित्रों की दुआएँ, उनकी यादें, अपनी प्रथम विदेश यात्रा के और लन्दन-प्रवास के अनुभव तथा अध्ययन की विविध विधाओं से पाया ऐसा ज्ञान जिसके आधार पर भावी जीवन की उपलब्धियों की नीव पड़ी ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें