शनिवार, 19 मार्च 2022

सद्गुरु से मिलन और नाम दीक्षा

महापुरुष कहते हैं कि सच्चे साधक का एक ध्येय, एक इष्ट और एक गुरु होना चाहिए । आसरा-आश्रय भी मात्र एक का ही लेना उचित है । सागर पार करने को केवल एक सुदृढ़ नौका चाहिए, अनेकों नौकाये हो कर भी काम नही आयेंगी । लेकिन क्या करें ? जब तक हमारी अपनी सद्वृत्तियों के अनुरूप हमें हमारी मंजिल तक ले जाने वाला या हमारा पथ प्रशस्त करने वाला सद्गुरु नहीं मिलता, तब तक हम डगमगाते रहते हैं ।

बचपन में और विद्याध्ययन के शुरूआती वर्षों में पारिवारिक संस्कारों के प्रभाव में सबके साथ नगर के हर हिंदू मदिर में जाना, उसमे स्थापित देवता की मूर्ति के सन्मुख प्रणाम करना, आरती में सब के साथ तालियाँ बजाना, शब्द याद न हो तों भी होठ हिलाकर यह जतलाना कि आरती गा रहा हूँ वाला नाटक बखूबी मैं करता रहता था । हमारे पूर्वज मूर्ति पूजक थे । वे गंगास्नान, देवालयों में दर्शन, आरती वंदन करते थे और समय समय पर, कठिनाइयाँ झेल कर भी कष्टप्रद एवं दुर्गम "तीर्थ यात्राओं" पर जाते थे । मैं उस समय मान्यताओं और मत मतान्तरों के जटिल जाल में इतना उलझ गया कि यह नहीं समझ पाया था कि उनमें से कौन सा रास्ता मेरे लिए कारगर होगा; मैं निज आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए इनमें से कौन सा मार्ग चुनूँ? पुरातन वैदिक विधि पालन करूँ या समय समय पर बदलती परिस्थिति के कारण बदले विधि विधान को निभाऊं । 

समय बताता है कि जीव अपने जीवन के अनुभवों से ही सीखता है, चुनता है । मैं अपना अनुभव सुनाऊँ ।

१९५० के दशक के उत्तरार्ध नवम्बर १९५६ में मेरा विवाह ग्वालियर के एक ऐसे धार्मिक परिवार में हुआ जिसका बच्चा बच्चा, श्री राम शरणम् के संस्थापक स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के सानिध्य से प्रभावित था । स्वामीजी महाराज की "नामयोग " साधना में, पानीपत की माता शकुन्तलाजी, गुहाना के पिताजी श्री भगत हंसराज जी, बम्बई के ईश्वरदास जी, दिल्ली के श्री भगवान दास जी कत्याल एवं मुरार के ही श्री राम अवतार शर्मा जी और श्री मुरारीलाल पवैया जी के साथ वे सत्संग एवं साधना-सत्संग में पूर्णतः समर्पित थे । 

परिवार के मुखिया दिवंगत गृहस्थ संत भूतपूर्व चीफ जस्टिस, म. प्र., माननीय शिव दयालजी ने घर को श्री राम शरणम् के सत्संग भवन सा बना रखा था । परिवार के सभी सदस्य, जितना उनसे बन पाता था, अपने दैनिक जीवन में भी 'पंचरात्रि' सत्संग के नियमों का पालन करते थे । प्रातः ५ बजे नाम जाप ध्यान आदि होता था और दिन भर के अपने कार्य निपटाने के बाद, रात्रिकाल में "अमृतवाणी जी" का तथा स्वामी जी के अन्य ग्रंथों का पाठ होता था । दैनिक रहनी सहनी, खान पान भी साधना-सत्संगों के समान होता था । प्रातः में दलिया दूध, भोजन अति सात्विक पर सरस, भोजन से पूर्व एवं उसके उपरान्त की प्रार्थना, सामूहिक प्रार्थना, आदि आदि, ।

संत शिरोमणि श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज इस युग के महानतम धर्मवेत्ताओं में से एक थे जो लगभग ६४ वर्षों तक जैन धर्म तथा आर्यसमाज की सेवा करते रहे । अपने प्रवचनों द्वारा वह जन जन की आध्यात्मिक उन्नति के साथ साथ सामाजिक उत्थान के लिए भी प्रयत्नशील रहे । इन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखने पर तथा उनकी विधि के अनुसार साधना करने पर भी जब उन्हें उस आनंद का अनुभव नहीं हुआ जो परमेश्वर मिलन से होना चाहिए तो उन्होंने इन दोनों मतों के प्रमुख प्रचारक बने रहना निरर्थक जाना और १९२५ में हिमालय की सुरम्य एकांत गोद में जा कर उस निराकार ब्रह्म की (जिसकी महिमा वह आर्य समाज के प्रचार मंचों पर लगभग ३० वर्षों से अथक गाते रहे थे) इतनी सघन उपासना की कि वह निर्गुण "ब्रह्म" स्वमेव उनके सन्मुख "नाद" स्वरूप में प्रगट हुआ और उसने स्वामीजी को "परम तेजोमय, प्रकाश रूप, ज्योतिर्मय, परमज्ञानानंद स्वरूप, देवाधिदेव श्री 'राम नाम' " के प्रचार प्रसार में लग जाने की दिव्य प्रेरणा दी ।

सिद्ध संत स्वामी सत्यानंदजी महाराज की "नामोपासना" की नियम बद्ध अनुशासित पद्धति जो मेरे ससुराल के सदस्यों द्वारा अपनायी गयी थी, मुझे बहुत अच्छी लगी । इन सब आत्मीय स्वजनों की साधना के प्रभाव से, अपने परम सौभाग्य और सर्वोपरि "प्यारे प्रभु " की अनंत कृपा से, वर्षों भ्रम भूलों में भटकने के बाद मूर्ति पूजन तथा निराकार ब्रह्म की उपासना के बीच का यह सहज सरल साधना पथ मुझे भा गया । 

मेरा भाग्योदय हुआ, मुझ जैसे खोजी को सतगुरु का ठिकाना मिल गया, स्वामी जी महाराज से दीक्षित होने की इच्छा प्रबल हो उठी । मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी तो सद्गुरु स्वामीजी महाराज से १४ वर्ष की अवस्था में १९५१ से ही दीक्षित थीं हीं; मुझे भी मेरे कुलदेव महावीर हनुमानजी की कृपा से ही विवाहोपरांत मिल गया "राम परिवार", अनमोल पुस्तिका "उत्थान पथ "और सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज का दर्शन, फिर प्रसाद में उनसे मिली अनमोल निधि "नाम दीक्षा"

प्यारे प्रभु की विशेष कृपा से ३ नवम्बर १९५९ को मुझे अपने जन्म जन्मान्तर के संचित पुण्य के फलस्वरूप कृपा से परम दिव्य आकर्षक व्यक्तित्व वाले श्रद्धेय स्वामी श्री सत्यानन्द जी महाराज के प्रथम बार दर्शन हुए । क्योंकि मैंने अपने जीवन में कभी इतने निकट से, एकदम एकांत में स्वामी जी के समान तेजस्वी देव पुरुष के दर्शन नहीं किये थे, नवोदित सूर्य की स्वर्णिम किरणों के समान जगमगाते उस देवतुल्य महापुरुष के दिव्य स्वरूप ने मुझे इतना सम्मोहित कर लिया कि मैं अपनी सुध बुध ही खो बैठा, मुझे न तो समय का भान रहा न वस्तुस्थिति का ज्ञान । दर्शन मात्र से ही मुझे एक शब्दातीत आत्मिक शान्ति की अनुभूति हुई । इस प्रथम दिव्य मिलन में ही प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद स्वामी श्री सत्यानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने सन्मुख सहमे से बैठे धृति धारणा हीन, धर्म-कर्म में अतिशय दीन, मुझ ३० वर्षीय नवयुवक को मुरार, ग्वालियर के, सौदागर सन्तर में अपने परम स्नेही साधक श्री देवेन्द्र सिंह बैरी के 'पूजा-प्रकोष्ठ' में परम मंगलमय राम नाम का 'मन्त्र रत्न' प्रदान कर दिया ।

इस दास पर विशेष अनुकम्पा कर, उस प्रकोष्ठ के एकांत में स्वामी जी महाराज ने वाणी, स्पर्श एवं अपनी दिव्य कृपा दृष्टि द्वारा मुझे दीक्षित कर के मेरा जन्म सार्थक कर दिया । मैं स्वामी जी महाराज की औपचारिक साधना पद्धति से पूर्णतः अनभिज्ञ था । उस पूजा प्रकोष्ठ में मेरे गुरुदेव थे और कोई नहीं था । मेरा प्यासा मन स्वामी जी की मधुर वाणी से नि:सृत अमृत वर्षा से सिंचित हो रहा था, मेरा रिक्त अंतरघट 'नामामृत' से शनै: शनै: भर रहा था । उनकी वाणी से नि:सृत मधुर 'राम नाम' ने मेरे रोम रोम में "राम" को रमा दिया था । मुझे अपने मस्तक पर श्री स्वामी जी महाराज के वरद हस्त का कल्याणकारी स्पर्श महसूस हुआ और उस दिव्य स्पर्शानुभूति से मेरी सम्पूर्ण काया रोमांचित हो गयी । मैं कृतार्थ हो गया ।

सच पूछो तो मेरा यह मानव जन्म सार्थक हो गया क्योंकि स्वामी जी जैसे सिद्ध महापुरुष से, "राम नाम" का मंगलकारी तारक मंत्र पाना स्वयमेव एक अनमोल उपलब्धि थी । सद्गुरु दर्शन से, मिलन से मुझे जो उत्कृष्ट उपलब्धि हुई वह अविस्मरणीय है ।

हमने बस एक नज़र ही लखा था वह जलवा
जन्मजन्मांतरों को कर दिया रोशन जिसने

धन्य हो गया मैं । 

मैं यद्यपि स्वामीजी के सन्मुख रहा फिर भी उनके तेजस्वी मुखमंडल से निस्तरित विलक्षण ज्योति पुंज की चकाचौंध से ऐसा सकपकाया हुआ था कि मुझे उस पूजास्थल में बिराज रहे महाराज की ओर आँख उठा कर देखने का साहस ही नहीं हुआ । नाम दीक्षा के अंतराल में, मैं मंत्र मुग्ध सा उनके नव विकसित कमल कलिकाओं जैसे गुलाबी श्री चरणों की ओर लालची भंवरे के समान निहारता रहा । अतः उनके गुलाबी गुलाबी श्री चरणों के अलावा मैं और कुछ देख नहीं सका ।

एक चमत्कार - सन २००७ में, भारत से यू. एस. ए. वापस आने से पहले गुरुदेव श्री श्री विश्वामित्र जी महाराज के दर्शनार्थ श्री राम शरणम् गया । महाराज जी से आशीर्वाद प्राप्त कर, प्रकोष्ठ से बाहर निकला ही था कि ऐसा लगा जैसे महाराज जी ने कुछ कहा । पलट कर उनके निकट गया । महाराज जी अलमारी से निकाल कर कुछ लाए और उसे मेरे हाथों में देते हुए कुछ इस प्रकार बोले, "श्रीवास्तव जी, आपके हृदय में श्री गुरुचरणों की मधुर स्मृति सतत बनी रहती है । मैं बाबा गुरु के वही श्रीचरण आपको दे रहा हूँ ।" 

महर्षि विश्वामित्र जी ने मुझे सद्गुरु चरणों का वह चित्र देकर, मानो मुझे जीवन का एक सुदृढ़ अवलंबन सौंपा । धन्य हुआ मैं सद्गुरु पा के । उस चित्र के अवलोकन से ऐसा लगा मानो ------

समय शिला पर खिली हुई है "गुरु"-चरणों की दिव्य धूप ।
आंसूँ पोछो, आँखें खोलो, देखो चहुँदिश "गुरु" का स्वरूप ।।

सद्गुरु कभी निकट आते हैं मिलकर पुनःबिछड जाते हैं ।
प्रियजन अब वह दूर नहीं हैं "वह" हर ओर नजर आते हैं ।।

वो अब हम सब के अंतर में बैठे हैं बन कर यादें ।
केवल एक नाम लेने से, पूरी होंगी सभी मुरादें ।।

राम कृपा से सद्गुरु पाओ आजीवन आनंद मनाओ ।
उंगली कभी न उनकी छोडो जीवन पथ पर बढ़ते जाओ ।।

कितना सत्य है यह सूत्र कि जिस व्यक्ति को उसका सद्गुरु मिल गया उसके जीवन का अन्धकार सदा सदा के लिये मिट गया और उसके सौभाग्य का भानु उदय हो गया । गहन अन्धकार में डूबे मेरे अन्तःकरण में "नाम" ज्योति प्रज्वलित हुई । 

आज इस पल भी मेरा जीवन उस सौभाग्य सूर्य के दिव्य प्रकाश से जगमगा रहा है । उनकी अनंत करुणा आज भी मुझे प्राप्त है । हृदय परमानंद में सराबोर है । मुझे आज इस पल भी उस दिव्य घड़ी के स्मरण मात्र से सिहरन हो रही है - वह शुभ घड़ी जब मेरे जैसे कुपात्र की खाली झोली में, स्वामी जी महाराज ने अपनी वर्षों की तपश्चर्या दारा अर्जित " राम नाम " की बहुमूल्य निधि डाल दी थी, उस घड़ी के असीम आनंद का वर्णन करने की क्षमता मुझमे नहीं है पर उनकी छत्र छाया में अब भोला-कृष्णा दम्पति की जीवन गाड़ी के दोनों दृढ़ पहिये उनके नामयोग की साधना के पथ पर चलने को सक्षम हो गए हैं । जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श मात्र से "लोहा""सोना" बन जाता है, उस प्रकार ही सद्गुरु के संसर्ग से आपका यह अति साधारण स्वजन -"भोला"- माटी का कच्चा घड़ा, आज परिपक्व हो अपने प्यारे सद्गुरुजन का एक सुदृढ़ कृपा पात्र बन गया है ।

1 टिप्पणी:

Dr. Dipika (Ayurvedic Gynaecologist) ने कहा…

Ram Ram Ji. I have written on Swami Ji. Please can I connect with you. I am in Bangalore and reachable at +919980491780. Dev Rishi.