प्रियजन !
सर्व विदित है कि आपका यह "भोला" न तो संत है, न ग्यानी, न विरागी, न जोगी । सौभाग्यवश गुरुजन के गुरुमंत्र से, उनकी करुणा और कृपा से, उनके आशीर्वाद से इसे अनेकानेक उपलब्धिया हुईं । ज़िक्र करूँगा, तो कदाचित अभिमानी अहंकारी कहा जाऊँगा । अस्तु केवल यह बताऊंगा कि गुरुजन के आदेशानुसार साधना पथ पर मंत्र जाप, सिमरन, ध्यान एवं स्वर साधना करने से मुझे, उनके आशीर्वाद ने, इस स्थूल जगत में जहां एक तरफ धरती से उठाकर आकाश तक पहुंचाया, वहीं मेरी अंतरात्मा को जिस परमानंद का रसास्वादन करवाया, वह अवर्णनीय है ।
सर्वशक्तिमान परम प्रभु का आदेश है कि आत्म कथा के अन्तिम छोर में "कृपा" के दृष्टांत प्रस्तुत करूं और मैं वैसा ही कर रहा हूँ । समस्या यह है कि इस अंतिम पडाव में मुझे अपने आस पास ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है जो "उनकी" कृपा के बिना मुझे प्राप्त हुआ हो ।
मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी हरेक सांस, मेरे हृदय की प्रत्येक धडकन, मेरा रोम रोम, मेरी शिराओं में प्रवाहित रक्त की एक एक बूंद, जो कुछ भी इस समय मेरे पास है वह सब ही "उनका" कृपा प्रसाद है । तर्क करने वाले तर्क करते रहते हैं लेकिन वे व्यक्ति जिन्होंने "परम" की अदृश्य शक्ति का अनुभव अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों में किया है वे भली भांति जानते हैं कि भगवत्कृपा अनुभवगम्य है; उसके आनंद का अनुभव करो ।
अपनी आत्मकथा में अब तक मैंने कुछ निजी अनुभवों की झलक प्रस्तुत की है, जीवन की ढलती अवस्था में अपने जीवन का एक विलक्षण अनूठा अनुभव का वर्णन करने का प्रयास करने जा रहा हूँ । न तब समझ पाया था, न आज कि वह स्वप्न था अथवा जाग्रत अवस्था का सच्चा अनुभव । जो भी रहा हो, अब भी उसकी याद आते ही पूरे शरीर में आनंद की लहर दौड़ जाती है ।
मेरे अतीत की स्मृतियों में जीवन्त है, नवम्बर २००८ का वह दिन, जब मैं नोएडा के मेट्रो अस्पताल में इंटेन्सिव केयर यूनिट में अचेतन अवस्था में अपनी जिंदगी गुज़ार रहा था, हॉस्पिटल के आई. सी. यू. में मैं कितने दिन अचेत पड़ा रहा और कितने दिन मेरी भौतिक आँखें बंद रहीं थीं, मुझे याद नहीं । पर उतने दिन मुझे किसी प्रकार की कोई मानसिक अथवा शारीरिक पीड़ा महसूस ही नहीं हुई, मेरा बाह्य जगत से कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा, यह पक्का है । उन दिनों जो चमत्कारिक अनुभव मुझे वहाँ हुआ, वह अविस्मरणीय है ।
प्रियजन ! वह अनुभव ही हमारे इस मानव जीवन की सबसे सार्थक उपलब्धि है ।
अतीत की स्मृतियाँ याद दिला रहीं है, नवम्बर २००८ की एक रात्रि, जब मैं जन्म-मरण के झूले में झूल रहा था, डॉक्टर क्रिटिकल अवस्था की घोषणा कर चुके थे, उस अचेत अवस्था में मुझे दिखा खुला हुआ विशाल सिंहद्वार और धवल प्रकाश पुन्ज से आवृत वैभवशाली प्रासाद जिसकी चमक धमक मेरी बन्द आँखो को भी चकाचौन्ध कर रही थी और मैंने सुना था सुमधुर "श्रुति" का गान ।
तन निश्चेष्ट था, ऐसे में, मेरी बंद आँखों के रजतपट पर जो प्रकाश पुंज था वह कदाचित भगवान् की कृपा का स्वरूप ही रहा होगा । वास्तव में वह था क्या ? मैं कहाँ था ? मैं अभी भी इसका निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ । तब से ही मैं इस सोच में पड़ा हूँ कि अचेनता, बेहोशी, मदहोशी को मैं किस नाम से पुकारूँ ? इतना तो मुझे अच्छी तरह याद है कि अस्पताल में भर्ती होने से पहले घर में ही स्वजनो के बीच मैं कितने घंटों तक उसी अर्ध सुप्त अवस्था मे पड़ा रहा था । अस्पताल में शायद वह तन्द्रा अधिक गहन हो गयी होगी ।
अपनी अचेतन अवस्था में आई, सी. यू . में ही मैंने देखा कि मैं एक राज प्रासाद के विशाल सिंहद्वार के बाहर खडा हूँ । प्रासाद की प्राचीर के बाहर घनघोर अँधेरा है । हाथ को हाथ नहीं सूझता है । लेकिन खुले द्वार के आगे इतना धवल प्रकाश पुँज है कि आखें चका चौंध हो रहीं हैं । मैं देख रहा था उस प्रासाद के घेरे को, जिसमें संपूर्ण सृष्टि का विशिष्ट वैभव और सौन्दर्य समाहित था । इतना मनमोहक था वह दृश्य कि उससे नज़रे हटाने की इच्छा ही नहीं होती थी । उस राज प्रासाद का वैभव, उसकी विलक्षण सुन्दरता, उसके नन्दन बन के समान कुसुमित, सुरभित और सुगन्धित उद्यान और उसमे कूकती कोयल तथा चहचहाती अन्य चिड़ियों का मधुर कलरव; मेरी आत्मा के नेत्र खुले के खुले रह गये, पल भर को भी मेरी पलके नहीं झपकी । कितना निराला खेल चल रहा था ।
उस बुलन्द दरवाजे के आगे मैं निर्बल, बेबस, निराश्रय प्राणी अवाक् खडा था, उस विलक्षण प्रासाद में प्रवेश पाने को मेरा मन व्याकुल हो रहा था । मैं उस दूधिया प्रकाश पुंज को निकट से देखना चाहता था और उस मे समाहित सात रंगी किरणो से अपने रोम रोम को नहला देना चाहता था l अचेतन अवस्था में बिल्कुल सफ़ेद, चान्दी की तरह चमकीले, आँखो को चकाचौंध कर देने वाले रोशनी के गोले देखने के बाद मैं इतना संम्मोहित हो गया था कि उस निन्द्रा से जागना ही नहीं चाहता था । मेरा अन्तर जिस परमानन्द का रसास्वादन कर रहा था, उसको खोना नहीं चाहता था । मेरी दशा उस प्यासे राही के समान थी जिसे तपते मरुस्थल में दूर से ही एक हरा भरा ओएसिस दिखायी पड़ रहा हो, पर उसके पग इतने शक्तिहीन हो कि आगे बढ़ पाना उसे दुष्कर हो रहा हो ।
उठते नहीं चरन, निर्बल मैं, कैसे आ पाऊँगा अन्दर ।
मैं हूं वह, प्यासा राही जो, मूर्छित हुआ द्वार पर आकर ।।
प्रीतम प्यारे आगे आओ, गिर जाऊँगा हाथ बढ़ाओ ।
भरलो मुझे अङ्क में अपने, जनम जनम की प्यास बुझाओ ।।
मैं दरवाजे के बाहर ही खड़ा रहा । मैं उतना साहस बटोर न पाया कि बिना आज्ञा के भीतर घुस जाऊं और न कोई भीतर से आया मुझे अन्दर ले जाने को । मैं खड़ा का खड़ा रह गया । पर ये क्या हुआ, अचानक वह द्वार धीरे धीरे बन्द होने लगा । उसके बाहर झांकती प्रकाश की किरणें क्षीण होने लगी और मेरी बन्द आँखो के आगे से शनै : शने: अन्धकार उतरने लगा । मेरे कानों में मुरली की मधुर धुन के समान एक धुन बजने लगी, ऐसा लगा जैसे कोई कह रहा हो, "अभी समय नहीं हुआ, लौट जाओ । यात्रा पुन: शून्य से प्रारम्भ करो" मेरे कान में वह एक शब्द "शून्य" तब तक गूंजता रहा जब तक मैं पूरी तरह सचेत नहीं हो गया ।
इस दृश्य की सुन्दरता और मनोहरता का शब्दों में वर्णन कर पाना मेरे जैसे निरक्षर प्राणी के लिए असंभव है । कोई भी भाषा, शैली, कोई भी लिपि उतनी सक्षम नही कि उस विलक्ष्ण आनंद दायक सुन्दरता का वास्तविक शब्द चित्र खींच सके । मुझे उस मदहोशी में वो तस्कीने दिल मिल रहा था जो चिलमन के सरक जाने पर पर्दे के पीछे से छुप छुप कर अपनी महबूबा का दीदार करने वाले दीवाने आशिक को होता है, जो उस पल तक केवल तसव्वुर में ही उसकी तस्वीर देखता रहा है । यदि उर्दू शायरों की जुबान में कहूँ तो शायद ऐसी तस्वीर बनेगी --
मुझको मुंदी नजर से ही सब कुछ दिखा दिया ।
तेरे खयाल ने मुझे तुझ से मिला दिया ।।
मुझको दिखा के चकित किया रंग सृष्टि का ।
आनंद भरा रूप प्रभु का दिखा दिया ।।
चेहरा पिया का खेंच कर मन की किताब पर ।
मेरे हृदय को प्यार का गुलशन बना दिया ।।
मेरी दशा वैसी थी जैसे प्रेयसी का घूँघट उठ जाने पर उसका सुंदर मुखड़ा एकटक निहारते किसी प्रेमी की होती है । शायद बिलकुल ऐसा ही सुख, ऐसा ही आनंद, जीवन भर की लम्बी प्रतीक्षा के बाद, दर्शनाभिलाषी भक्त को अपने प्रियतम इष्ट देव के दर्शन से प्राप्त होती है ।
प्रियजन! उस दिव्य प्रकाश और श्रुति का समग्र दर्शन, उसके तुरन्त बाद ही परम पूज्य डॉ विश्वामित्र का दर्शन, मेरे मस्तक पर उनका वरद हस्त और उसके साथ साथ अकस्मात ही मेरा आई. सी. यू. से कमरे में आ जाना और स्वस्थ होना प्रारम्भ हो जाना क्या दर्शाता है ? यह मेरे चिंतन मनन का विषय रहा । कितनी अनहोनी बातें हुईं इसमें; पर विश्वास कीजिए वह सब घटनाएँ सचमुच ही घटीं थीं । और वैसे ही घटीं थीं जैसे मैंने बयाँ की ।
उस समय तो अशक्त था पर पुन : चेतनता पा जाने के बाद भी मैं अपने कृपण मन की गुप्त तिजोरी मे वह सारा आनन्द जो अचेतन अवस्था मे मुझे प्राप्त हुआ था, सन्जोये रहा । मैंने किसी से इस विषय मे वार्ता भी नही की । प्रश्न यह था कि जिस विषय को मैं स्वयं नही समझता उस विषय मे किसी अन्य से क्या चर्चा कऱता । अतएव सचेत होने के बाद भी, मैं बहुत समय तक इस चिन्तन मे व्यस्त रहा कि पुरातन काल से आज तक सिद्ध आत्माओं ने कठिन तपश्चर्या के पश्चात जिस "परम" का अनुभव किया वह कैसा था ? और मैंने, इस मरणासन्न साधारण मनुज ने, जो अपने क्षणिक अनुभव में देखा, वह स्वरुप (यदि सच्चा परम था) तो वह उन महात्माओं को दीखे परम से कितना भिन्न था ? वैदिक ऋषियों ने उद्घोषणा की है "ब्रह्मलोक प्रकाशमयम" ।
२००८ के हॉस्पिटल प्रवास के दौरान क्या क्या हुआ मुझे अब वो भी पूरा पूरा याद नहीं है । आपसे एक प्रार्थना है कि मेरे इस कथन को "मेरा अनुभव" मान कर पढ़ें । इस पर कोई अनावश्यक चर्चा न करें । मैं ये अनुभव इस लिए बता रहा हूँ कि इष्ट-कृपा पर भरोसा रखने वाले मेरे प्रियजन भी अपने अपने इष्ट के उतने ही कृपा पात्र बन सकें जितना यह अति साधारण नामानुरागी दासानुदास बन पाया है. ।
इस सन्दर्भ में बॉस्टन में रहते हुए अभी हाल ही में, मुझे एक विचित्र जानकारी मिली, मुझे ज्ञात हुआ है, कि आध्यात्मिक विषयों के शोध कर्ता एक अमेरिकन ने अनेको ऐसे अनुभवी साधकों से साक्षात्कार किया जिन्हें ध्यानावस्था में ऐसा प्रकाश दिखायी दिया था । उन्होंने यह देखा कि उन साधको में से लगभग पचास प्रतिशत ऐसे थे जो प्रकाश के उस दिव्य सौन्दर्य से ऐसे सम्मोहित हुए कि उस पर से नज़र हटा पाना उनके लिये मृत्यु को आलिंगन करने जैसा लगा । उस सुन्दर दृश्य को वह किसी भी कीमत पर अपनी आँखो से दूर नहीं करना चाहते थे ।
मैं उस अमरीकी शोधकर्ता के उन दस प्रतिशत अनुभवी साधको में शामिल हो गया हूँ जिनका जीवन उस विलक्षण "ज्योति-श्रुति" दर्शन के बाद एकदम बदल गया । कदाचित् आपको भी मेरे जीवन का यह बदलाव नज़र आया होगा ।
मुझे भी याद आ रहा है कि अचेतावस्था के उस अनुभव के बाद जब मैं उठा तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अब वह व्यक्ति ही नहीं हूँ जो मैं रुग्णावस्था से पहले था । द्वार बन्द हो जाने के कारण मैं "परम-धाम" में प्रवेश नहीं कर पाया और जीवन यात्रा समाप्त करते करते मैं पुनः यात्रा शुरू करने को मजबूर हो गया । मैं स्वस्थ हो जाने के बाद, बहुत दिनो तक अपने स्वजनो से कहता रहा कि "परमधाम" के स्वामी "उन्होंने" मुझे द्वार से ही वापस कर दिया पर यह नहीं बताया कि मेरे नये जीवन मे अब "वह" मुझसे नया क्या करवाना चाहते हैं? "जीवन दान" मिलने के बाद मैं सोचा करता था कि क्या किया जाये । इस प्रश्न का उत्तर मिल गया - भजन-कीर्तन और सिमरन ।
श्री राम शरणम के संस्थापक सद्गुरु श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की महनीय कृपा से मैंने राम नाम की जो अमूल्य निधि पायी थी उसकी साधना के लिए मैंने भाव-भक्ति भरे भजन-कीर्तन और जप-सिमरन जैसे साधन को अपनाया । दिव्य गुरु जनों के प्रोत्साहन से मैंने अपनी "साधना" को संगीतमय "नारदीय" मोड़ दे दिया ।
स्वामीजी ने अनुमोदन किया, प्रेमजी महाराज की प्रेरणा रही, डॉ विश्वामित्तर जी ने उत्साह बढाया और मैंने दृढ़ निश्चय किया कि जब तक जीवन है, अपनी शब्द-रचना, स्वर संयोजना और स्वरलहरी में अपनी आत्मा को उंडेल कर अपने आराध्य देव को रिझाता रहूंगा । अब तो प्रियजन "मोहिं भजन तजि काज न आना", भजन के अतिरिक्त और कुछ न मैं जानता हूँ, न जानने का प्रयास करता हूँ । मुझे नवजीवन देकर हॉस्पिटल के क्रिटिकल केयर यूनिट में ही प्रभु ने सूक्ष्म रूप मे मेरे चिन्तन और मेरी भावनाओं में प्रगट होकर मुझे आदेश दिया था कि मैं उनसे प्राप्त जीवन दान के समय को बिताने के लिए अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों का लेखन कर डालूँ और भजन-कीर्तन-सिमरन में मगन रहूँ । अब तो बस "सर्व शक्तिमय नाम जपूँ मैं, दिव्य शक्ति आनंद छकूँ मैं" ।
श्री रामशरणम के गुरुजनों की महनीय कृपा का वर्णन करना मेरे सामर्थ्य से परे है, जिनसे आत्मशक्ति पा कर मैंने अवस्थानुसार जीवन भर विवेक बुद्धि से कार्य किया, कर्मयोग की साधना में कर्म से सृष्टिकर्ता का पूजन किया । आजीविका अर्जन के विहित कर्म अपनी सरकारी नौकरी में, मैं उच्चतम शिखर पर पहुँच गया । स्वेच्छा से साठ वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो कर कुछ वर्षों में सब बच्चों के विवाह-संस्कार सम्पन्न कर और उनको आजीविका अर्जन के लिए स्वावलम्बी बना कर, उनके भरण-पोषण के उत्तरदायित्व से मैं मुक्त हो गया । फिर रह गया एक ही ध्येय, एक ही कार्य, एक ही लगन, एक ही चिंतन - "सर्व शक्तिमान परम पुरुष परमात्मा के गुणों का गान करना, उनकी महिमा का बखान करना, भक्तिभाव से भजन-कीर्तन करना और मगन रहना" । सद्गुरु स्वामीजी की आदेशात्मक वाणी है--
भक्तों भजिये नाम को भाव भक्ति में आय ।
आत्मज्ञान का है यह उत्तम परम उपाय ।।
(भक्ति -प्रकाश से संकलित)
भक्ति का एकमात्र साधन जो मैंने बचपन से आज तक किया (या यूं कहें कि, मैं कर पाया) वह है "भजन गायन" और "कीर्तन" । मन मंदिर में अपने "प्यारे प्रभु" का विग्रह प्रतिष्ठित कर, बंद नेत्रों से "प्यारे" की छवि निरंतर निहारते हुए, सुध बुध खोकर "उनका" गुणगान करना, गीत संगीत द्वारा "उनकी" अनंत कृपाओं के लिए अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करना, यह है मेरा भजन कीर्तन ।
कीर्तन आत्मा से निकली हुई झंकार है । कीर्तन में मोहक शक्ति है । कीर्तन में गायक साधकों के स्वरों के अतिशय मधुर नाद एवं वाद्यों की झंकार तथा करतल ध्वनि के संयोग से एक अद्भुत दिव्यता अवतरित होती है जिससे गायकों एवं श्रोताओं को परमानंद स्वरूप में "परब्रह्म"के दर्शन की अनुभूति होती है । श्री राम शरणम के सत्संगों में इसे मैंने स्वयं देखा और अनुभव किया है । श्रद्धेय स्वामी जी महाराज तथा श्री प्रेमजी महाराज और डॉक्टर विश्वामित्र जी महाराज मस्ती में झूम झूम कर गाते और नाचते थे और अपने साथ साथ साधकों को भी गवाते और नचाते थे । इन सभी को मैंने उनकी ही धुनों पर मस्ती से नाचते हुए साधकों के हृदय में राम नाम की लौ लगा कर उनके मन मन्दिर की सुषुप्त भक्ति भवानी को जगाते हुए देखा है । मेरा अनुभव है कि कीर्तन में तल्लीनता "मैं-तुम" का भेद मिटा देती है, मन मीठे नाद में ऐसा रम जाता है, इतना मस्त हो जाता है कि उसे तन मन की सुधि नहीं रहती, ऑंखें भर आतीं हैं, गला अवरुद्ध हो जाता है, मुंह से बोल नहीं निकलते, तन रोमांचित हो जाता है ।
प्रियजन, न कवि हूँ, न शायर हूँ, न लेखक हूँ, न गायक हूँ, फिर भी ईश्वरीय प्रेरणा से अनवरत लिख रहा हूँ । परम सत्ता ने प्रेरणास्रोत्र बन कर जब जो कुछ भी लिखवाया, वही लिखा, जो कुछ शब्द रचना करायी, स्वर-संयोजना कराई, वही स्वयं गा रहा हूँ, बच्चों से गवा रहा हूँ । आप ज्ञानी हैं, आप जानते हैं "कर्ता राम है ", फिर हम कहाँ ? वह ही गवाता है, वह ही गाता है, वह ही सुनता है । सीखा नहीं ? अभिमन्यू ने व्यूह भेदन कब, कहाँ सीखा ? यह दास क्या प्रोफेशनल गायक है ? क्या इसने किसी से विधिवत गायन सीखा ? नहीं । गुरुजन ने प्रोत्साहित किया, जैसी उनकी आज्ञा हुई, वही किया । उनको अच्छा लगता है, जब तक शक्ति है, जब तक सांसे हैं, गाऊंगा । परम दयालु हैं वह ? किसके शब्द ? किसकी धुन ? किसने किसको सिखाया ? किसकी वाणी में रेकॉर्ड हुआ ? भूल गया ।
प्रियजन, अधिकतर भजनों का सृजन यूं होता है --- मध्य रात्रि में, मेरे प्यारे सद्गुरु कहूँ या परमगुरु, इस दास के कानों में धुन सहित शब्द फूंक देते हैं । उसके बाद नींद तब तक नहीं आती जब तक तकिये के नीचे पड़ी डायरी में शब्द और छोटे से केसेट रेकॉर्डर पर वह, आकाश से मध्य रात्रि में अवतरित शब्द व धुन रेकॉर्ड नही हो जाती । उनके" शब्द "उनकी" धुन, सबको पसन्द आती है, श्रेय में "परमानन्द प्रसाद" इस दास "भोला" को दिला देते हैं "मेरे प्यारे" । कितने दयालु हैं वह !!
लगभग मेरे जीवन की यह यात्रा युवावस्था में ही प्रारंभ हुई थी, आज भी यह यात्रा उसी प्रकार आगे बढ रही है । कभी मध्य रात्रि में तो कभी प्रातः काल की अमृत बेला में अनायास ही किसी पारंपरिक भजन की धुन आप से आप मेरे कंठ से मुखरित हो उठती है और कभी कभी किसी नयी भक्ति रचना के शब्द सस्वर अवतरित हो जाते हैं । धीरे धीरे पूरे भजन बन जाते हैं । मेरे मानस से स्वतः प्राक्रतिक निर्झरों के समान, श्री राम शरणम के तीनों गुरुजनों के आध्यात्मिक चिंतन संजोये भजनों की रचना एवं गायन का प्राकट्य होने लगता है ।
मुझे अपने इन समग्र क्रिया कलापों में अपने ऊपर प्यारे प्रभु की अनंत कृपा के दर्शन होते हैं, परमानंद का आभास होता है । हमे आनंद आता है अपने इष्ट के गुण गाने में । ऐसा क्यूँ न हो, उन्होंने हमें शब्द एवं स्वर रचने की क्षमता दी, गीत गाने के लिए कंठ और वाद्य बजाने के लिए हाथों में शक्ति दी । "उनसे" प्राप्त इस क्षमता का उपयोग कर और पत्र पुष्प सदृश्य अपनी रचनायें "उनके" श्री चरणों पर अर्पित कर हम संतुष्ट होते हैं, परम शान्ति का अनुभव करते हैं, आनंदित होते हैं ।
संत महापुरुषों का कथन है कि जीव को यह सूत्र निरंतर याद रखना चाहिए कि उसे कभी, किसी एक निश्चित पल में इस नश्वर शरीर को जिसे वह भूले से चिरस्थायी माने हुए हैं एक न एक दिन, इस संसार रूपी रैन बसेरे में, निर्जीव छोड़ कर जाना ही पडेगा । उसका अपना कहा जाने वाला 'बोरिया बिस्तर' यहाँ ही रह जाएगा । उसके अपने कहे जाने वाले सब सम्बन्धी यहीं रह जायेंगे ।
निर्विवाद सत्य तो यही है कि जन्म से लेकर आज तक हम केवल उस प्रभु की कृपा के सहारे ही जी रहे हैं और उस पल तक जीते रहेंगे जिस पल तक वह पालनहार हमें जीवित रखना चाहता है । परमात्मा द्वारा निश्चित पल के बाद हम एक सांस भी नहीं ले पाएंगे, प्राण पखेरू अविलम्ब नीड़ छोड़ उड़ जायेगा, सब हाथ मलते रह जायेंगे । सर्व शक्तिमान परम पुरुष दयालु देवाधिदेव के अहसानों की लम्बी दासताँ हैं, जब तलक सांस है, तब तक चलती रहेगी ---
आत्म कथा है यह मेरी इसलिए पहले यह ही सुनिए कि मेरी यही इच्छा है कि मैं सदा प्यारे प्रभु को धन्यवाद देता रहूँ, उन क्षणों के लिए जिसमें वे हमें परमानंद की अनुभूति कराते रहे, हमें दिव्य प्रकाश की ओर ले जाते रहे, अपने स्पर्श का, अंग-संग रहने का बोध कराते रहे ।
मेरी हार्दिक इच्छा है कि परम शान्ति की धारा अंतरतम तक प्रवाहित होती रहे, मैं दिव्य शक्ति का आनंद छकता रहूं, अंतिम श्वास तक प्रभु मेरे अंग-संग रहें और मैं हर पल उनका सिमरन करता रहूँ।
अब सुनिये कि मैंने स्वयं अपने लिए क्या शुभकामना की, क्या प्रार्थना की और प्यारे प्रभु से अपने लिए क्या 'वर' माँगा । मेरे प्रभु । मेरे नाथ । मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए । बस जब तक जीवन है, आपके सन्मुख, आपसे ही प्राप्त क्षमताओं के संबल से, मैं आपके ही शब्द, आपकी ही धुनों से सजा कर, आपके ही कंठ से मुखर कर, आपकी ही प्रेरणा से, उन्हें अपनी स्वरांजलि बनाकर आपके श्री चरणों पर अर्पित करता रहूँ । मेरे प्यारे मुझे जनम जनम तक "अपने श्रीचरणों" के प्रति अखंड प्रीति प्रदान करो, मैं 'आपको' अनंतकाल तक न भूलूं, ऐसा वरदान दो ।
बाक़ी हैं जो थोड़े से दिन, व्यर्थ न हो इनका इक भी छिन ।
अंतकाल करूं तेरा सिमरन, मिले शान्ति विश्राम ।।
प्रेम-भक्ति दो दान, यही वर दो मेरे राम ।
रहे जन्म जन्म तेरा ध्यान, यही वर दो मेरे राम ।।
विश्वम्भरनाथ “भोला”
मकर संक्रांति
१४-१ १७
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