हिंद महासागर से अटलांतिक की गोद में लहराते नील वर्ण उत्तुंग तरंगो वाले करेबियन सागर तट तक की यात्रा जिस हरि की शुभेच्छा से हुई, वह कृपालु पालनहार प्रभु हमें और हमारे परिवार को अवश्य कोई विशेष लाभ दिलाने के लिए ही गयाना देश में लाया है । हमें लाभ ही लाभ होगा, हमारा कोई अनर्थ नहीं हो सकता, यह हमारा विशवास था । हमें अपने इष्टदेव पर पूरा भरोसा था ।
गयाना पहुँचने पर हमारा भव्य स्वागत हुआ, एक सप्ताह पैगेशस होटल में ठहराया, शीघ्र ही कार खरीदने का आदेश मिला और उसके लिए सरकार से ऋण भी मिल गया । पीले रंग की ट्योटा कैरोला कार भी आगयी । होटल में जब रेडियो चलाया तो सुनायी दिया साउथ अमेरिका के एक देश के रेडियो स्टेशन के "सिग्नेचर ट्यून" में स्वरचित और अपनी पारिवारिक भजन मण्डली द्वारा गाया हुआ भजन “शंकर शिव शम्भु साधु सन्तान हितकारी”। आश्चर्य हुआ हमें ही क्या, हमारे परिवार को भी ।
सन १९७५ से १९७८ तक हम अपने परिवार के साथ, साउथ अमेरिका के एक छोटे से देश (ब्रिटिश) गयाना की राजधानी जॉर्जटाउन में ,१८ एचलीबार विला, केम्पवैलविल, जॉर्जटाउन में रहे । इस एरिया में २० घर थे जिनमें विदेशों से आये विशेषज्ञ, डॉक्टर, जज, आदि रहते थे । डायरेक्टर जनरल ऑफ़ बॉर्डर रोड संगठन के उच्चाधिकारी कर्नल टी. पी श्रीवास्तव और उनकी टीम के सात भारतीय अधिकारी, जो भारत सरकार से वहां सड़कें बनाने के लिए भेजे गए थे, वहीं रहते थे । हमारे पडौसी डॉ. चैनी और डॉ. उषा जयपाल थे। ऑफिस जॉर्ज टाउन में था, उससे ७० मील दूर स्थित न्यू एम्स्टर्डम में मुझे टेनरी और बूट प्लांट लगवाना था, जहां सप्ताह में तीन दिन जाना रहता था ।
नयी जगह, नए लोग, नयी परिस्थितियाँ, नया वातावरण । घर के कामकाज में कृष्णा जी की मददगार गायनीज़ स्त्री 'राधिका' मिल गयी थी। राधिका ने ही हमे उस देश के निवासियों की विशेष संस्कृति से अवगत कराया था । उसने बताया था कि सभी हिन्दू गायनीज़ के पूर्वज भारतीय थे, जिन्हें डलहौज़ी के शासन काल में अँगरेज़ पानी के जहाजों पर बैठा कर गन्ने और चावल के खेतों में काम कराने के लिए ले आये थे । वे सब जहाजी कहे जाते थे । भारत में वे किस शहर के थे, उनका धर्म, उनकी जाति क्या थी, आज उनके वंशज नहीं जानते हैं । उन्होंने तो बचपन से अपने ही घर परिवार में रुचि के अनुसार किसी सदस्य को मंदिर जाते देखा है, किसी को चर्च, तो किसी को नमाज़ अदा करते देखा है ।
गयाना के किसी घर के आंगन के एक छोर पर आप देखेंगे दादी की तुलसी का बिरवा, उनका शिवाला और उसके सन्मुख ही दूसरी ओर साफ़ सुथरी जमीन पर बड़े करीने से फैली खानदान की बड़ी बहूबेगम के नमाज़ पढ़ने की इरानी कालीन । कभी कोई झगड़ा नहीं कोई शोरो गुल नहीं । किसी पर कोई पाबंदी नहीं, कोई जोर जबरदस्ती नहीं । जिसको जो भाये जिस पर जिसकी आस्था जम जाए ; वही उसका धर्म-कर्म बन जाता है । यहाँ के निवासियों की रहनी में जो एक चीज़ मुझे बहुत ही पसंद आई, वह थी, वहाँ की विभिन्न जातियों और विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच की अटूट एकता और उनका अद्भुत भाई चारा ।
यहां के गायनीज़ हिंदुओं की प्रार्थना, उनके भजन, उनके कीर्तन वही थे जिन्हें डेढ़ दो शताब्दी पहले उनके पूर्वज भारत में गाते बजाते थे। रामायण पाठ में आज उनके बाल बच्चे, सभी स्त्री पुरुष अपने सामने रामायण का पृष्ठ खोल कर रख लेते थे और बड़े भाव से दोहे चौपाइयां गाते थे । हिन्दी पढ़ना तो ये लोग जानते न थे इसलिए चाहे पृष्ठ कोई भी खुला हो, वे गाते वही थे जो उन्होंने अपने पूर्वजों से सुन कर याद कर रखा था । उनकी मुंदी हुई आँखें, भाव भरी मुद्रा और गवंयी गाँव की चौपाली शैली में रामायण पाठ हमे आज भी उनकी सहजता तथा उनकी एकनिष्ठ निष्काम भक्ति की याद दिलाता है और मन को छू जाता है।
गयाना में सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन, उत्सव, समारोह, आदि को सम्पन्न करने की गायनीज़ हिंदुओं की अपनी ही रीति थी । इन कार्यक्रमों में, विवाहोत्सव में, मन्दिर में, शराब पीना वर्जित था । यहां की हिंदू महिलाएं मंदिर में पाश्चात्य वेश भूषा में भी अपना सिर एक दुपट्टे (ओढनी ) से ढके रहतीं थीं । ऐसा प्रतीत होता था कि प्राप्त सुविधाओं के ढाँचे में भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को ढाल कर इन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी से जीवित रखा है । भारतीय संस्कृति के प्रति वहाँ के निवासियों के हृदय में अपार श्रद्धा थी । वहाँ उतनी ही हर्षोल्लास से शिवरात्रि, दशहरा, दिवाली, होली, ईद, बकरीद मनाई जाती थी जितनी जोश से कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के शिवालयों और ईदगाहों में ।
काली घटाओं में जैसे कभी कभी दामिनी की दमक जगमगाहट भर देती है वैसे ही वहाँ के भारतीय मूल के दो विशिष्ट नागरिकों, कस्टम ऑफिसर सूरजबली, उनकी पत्नी कानन और पुरोहित श्री रतनजी से मिलने के बाद हमारा वहाँ का शुष्क जीवन रसमय हो गया। ये दोनों ही सज्जन, दो तीन शताब्दियों पूर्व उस देश में भारत से आये पूर्वजों के वंशज थे। ये दोनों ही अपनी भारतीय हिन्दू संस्कृति को अपने जीवन से विलग नहीं कर पाए थे। उनके साथ जो सत्संग का सौभाग्य मिला वह अविस्मरणीय है.।
आदिकाल से सभी धर्म ग्रंथों में इस सम्पूर्ण सृष्टि के सर्जक, उत्पादक, पालक, संहांरक, सर्वशक्तिमान भगवान को "पिता" कह कर पुकारा गया है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में उन्हें "परमपिता" की संज्ञा दी गयी है । ईसाई धर्मावलंबी उन्हें अतीव श्रद्धा सहित "होली फादर" कह कर संबोधित करते हैं । हमारी "ब्रह्मकुमारी" बहनें उसी परम आनन्द दायक, अतुलित शक्ति प्रदायक, ज्योतिर्मय, शान्तिपुंज को "शिवबाबा" की उपाधि से विभूषित करके, सर्वशक्तिमान निराकार परब्रह्म परमेश्वर से साधकों के साथ पिता और सन्तान सा सम्बन्ध दृढ़ करतीं हैं ।
सांस्कृतिक परिवेश में हमें गयाना में सन १९७६ में ब्रह्मकुमारी मोहिनी दीदी और उनकी सर्वेसर्वा तेजोमयी दिव्य स्वरुपा “दादी” के सान्निध्य का, उनके दर्शन और प्रवचन सुनने का, ध्यानवस्थित मुद्रा में अविरल अश्रुधारा प्रवाहित करती हुई छवि को निहारने का तथा प्रेम विव्हल मन से अपने स्वरचित स्वागत गान से उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ---
धन्य अवसर आज का है स्वागतम, शुभागमन ।
आपका दर्शन हुआ है स्वागतम शुभागमन।।
आपके आने से जो सुख शांति हमको मिल रही ।
कर नहीं सकते बयाँ, प्रीती जो मन में भरी ।।
आपकी शिक्षामयी वाणी सदा हम सुन सकें ।
ब्रह्मा पिता की हम सदा आराधना भी कर सकें ।।
राह ऐसी दो दिखा जा सकें शिव बाबा के धाम ।
पूज्य दादी और भैया आपको शत शत प्रणाम ।।
वहां रहते हुए गयाना के कल्चरल सेंटर से जुड़े नृत्य प्रवीण पण्डित दुर्गालाल, तबला वादक श्री मिश्राजी, सरोद वादक श्री भास्करजी, संगीतज्ञ श्रीमती गुहा और गयाना की गायिका सिल्विया एवं पण्डित गोकरण शर्मा के सम्मेल और सौजन्य से हमने रामचरित मानस के चुने प्रसंग और सन्तों के भजन से भारतीय दर्शन को उजागर करता हुआ एक लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड ‘भजन माला’ बनाया ।
यहां पूरे देश की आबादी भारत के एक बड़े शहर की आबादी से भी कम थी । देश की ५५ प्रतिशत आबादी भारतीय मूल की थी। मौलिक सुविधाओं पर उस सरकार ने ऐसे नियन्त्रण लगा रखे थे कि बहु संख्यक अधिक समृद्ध भारतीय मूल के नागरिकों को मजबूर हो कर अतिरिक्त मूल के अल्पसंख्यक नागरिकों के शासन में अपनी प्राचीन संस्कृति वेशभूषा खानपान और धर्म तक बदलना पड़ रहा था ।
भारतीय मूल के निवासी अधिकतर शाकाहारी थे । उस देश की सरकार ने आलू, प्याज तथा गेंहूँ की काश्तकारी तक पर निषेध लगा रखा था, इनका आयात भी वर्जित था । गाय का दूध तक मिलना दूभर था । बीफ हर चौराहे पर मिल जाता था। प्रत्यक्ष रूप में वह सरकार भारतीयों के प्रति भेद भाव रखती थी । परिस्थिति अति विषम थी। हमें भी इससे समस्या थी। पर छोडिये इन दुखदायी बातों को, डिप्लोमेटिक श्रेणी के विदेशी नागरिक होने के कारण हमारे हाई कमिश्नर पी. जौहरी, हाई कमीशन के अन्य अफसर श्री प्रभाकर, श्री बिसारिया, श्री चावला, और श्री बोस आदि ने हमें सब सुविधाएं प्रदान कर दी थी अतएव हमारा काम तो किसी तरह चल ही गया ।
टैनरी और बूट प्लांट बनाने की परियोजना में भारत सरकार द्वारा निर्धारित हमारी पोस्टिंग की अवधि में एम्स्टर्डम में बूट प्लांट की बिल्डिंग बन गयी थी, मशीने आ गयी थी पर चालू नहीं हो पायी थीं ।
रामजी का एडमीशन मेरिट लिस्ट के आधार पर आई. आई. टी. दिल्ली में हो चुका था । उन दिनों प्रेसीडेंट कॉमरेड बर्नहम की कूटनीतियों से गयाना में राजनैतिक और सामाजिक हालात बिगड़ रहे थे, लूटमार, अराजकता, छुरे की नोक पर घात प्रतिघात, बलात्कार जैसी घटनाएं घट रहीं थीं । अतः हमने और अधिक वहां न रुक कर, भारत वापिस जाने का निश्चय कर लिया ।
गायनीज़ मित्रों की प्रेम भीनी स्मृतियों को समेटे हम परिवार सहित पोर्ट ऑफ़ स्पेन, डिज़्नी वर्ल्ड, फ्लोरिडा, न्यूयॉर्क और लन्दन के दर्शनीय स्थानों को देखते हुए घुमते घामते २६ मई १९७८ को भारत पहुँच गए ।
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