रिजल्ट देखते ही मेरे पैरों तले की धरती सरक गयी । उस समय ऐसा लगा जैसे किसी ने क़ुतुब मीनार की सबसे ऊपरी मंजिल से धक्का देकर मुझे नीचे फेंक दिया । इस सुनामी के पीछे आये भयंकर भूचाल के एक झटके में मेरी कल्पना का सुनहरा महल पल भर में टूट कर चकनाचूर हो गया । फेल होने के कारण मैंने दोनों प्रेयसियों को खो दिया -- एक "कारवाली" और दूसरी "कार" । एक महत्वाकांक्षी बीस वर्षीय नवयुवक की मनः स्थिति ऐसी हालत में कितनी निराश और दुखी रही होगी, उसका अनुमान शायद ही आज के हमारे युवा वर्ग लगा पायें । युद्ध में हारा सिपाही "मैं" खाली हाथ बनारस से कानपुर लौट आया ।
इस प्रसंग का स्मरण होते ही मुझे गीता राय जी का एक बहुत पुराना गीत याद आया - "मेरा सुंदर सपना बीत गया, मैं प्रेम में सब कुछ हार गयी, बेदर्द जमाना जीत गया " । कानपुर वापिस लौटने पर कुछ दिनो के बाद आकाशवाणी लखनऊ से छोटी बहिन माधुरी के पास, "स्वप्न लोक" शीर्षक से, सुगम संगीत कार्यक्रम में गाने के लिए गीत आये - "सपनों के महल बने बिगड़े " और "सपने मेरे टूट रहे हैं ", मैंने उन गीतों की धुनें बनायी और इत्तेफाक से धुनें अंतरंग में व्याप्त पीड़ा के कारण इतनी भाव भरी और पीड़ामय बनी कि रेडिओ स्टेशन के सम्बंधित पारखी अधिकारिओं को कहना पड़ा "अवश्य ही ये धुनें किसी टूटे सपने वाले दुखिया ने बनाई होंगी !! "
कष्ट के क्षण मानव के मन को विचलित कर देते हैं और सत्य और धर्म की राह पर बढते हुए उसके कदम डगमगा जाते हैं । कुछ समय बाद जब मैं उस धक्के से उबर गया तो पाया कि मेरे मन में रह रह कर यह प्रश्न बार बार उठ रहा था कि सभी विषयों में उच्च श्रेणी से अधिक अंक प्राप्त हुए थे फिर कहाँ, किस विषय में और, कैसे कमी रह गयी । अन्ततः इस झंझावात के थमने पर मैंने केवल एक विषय में ही परीक्षा देने का निश्चय किया और बी. एच. यू. फिर से विद्याध्ययन के लिए चला गया ।
जब पहले दिन क्लास में पहुंचा, हाजिरी के लिए मेरा नाम पुकारा गया और मैं अपना परिचय देने को खड़ा हुआ तो प्रोफेसर राजू आश्चर्यचकित रह गये और बोले "तुम तो फेल नहीं हुए, फिर तुम यहाँ कैसे ? तुम्हें तो एम टेक में होना चाहिए ।" डॉक्टर राजू उस वर्ष की हमारी प्रेक्टिकल परीक्षा के इंटरनल एक्जामिनेर (internal examiner ) थे । यह जान कर मेरे प्रोफेसर राजू स्तब्ध रह गए कि वह "विश्वम्भर" नामक विद्यार्थी (जिसने साल भर में एक दिन भी क्लास में अपनी शकल नहीं दिखाई थी) वास्तव में मैं ही था "भोला" जिसने सभी क्लास attend किये थे । मेरा रजिस्टर का नाम "विश्वम्भर" है और प्यार दुलार का नाम nick name "भोला" है और "भोला" नाम से ही विश्वविद्यालय में सब मुझे जानते थे और बुलाते थे । इसके ही कारण उन्हें कन्फ्यूजन हुआ था, यह जान कर वे दुखी भी हुए । मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें विश्वास दिला पाया कि उनके ही विषय में एक अंक की कमी से फेल होने के कारण रिपीट कर रहा था । जो होना था वह तो हो ही चुका था । "होनी प्रबल होती है ।" आज तक बी. एच. यू. के इतिहास में इस विषय की मौखिक परीक्षा में कोई फेल नहीं हुआ था । मेरे नाम का कमाल तो देखिये जिसने एक नया इतिहास लिख दिया । अगले वर्ष, पूरी तैयारी के साथ १९५० के सत्र में परीक्षा दे कर मैं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ और बनारस हिंदू विश्व विद्यालय' के 'कॉलेज ऑफ टेक्नोलोजी' से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली ।
बी.एच .यू के प्रवास के दौरान संकटमोचन हनुमान मंदिर में की गयी मेरी प्रार्थनाओं के फलस्वरूप मेरे कुलदेव ने मुझे परीक्षा में उत्तीर्ण न कर कडुए-मीठे फलों से मिश्रित वही कृपा प्रसाद मुझे दिया जो मेरे लिए सर्वथा लाभप्रद था । वह कारवाली देवी जिनके सपनें मैंने देखने शुरू कर दिए थे उनका विवाह हो गया इसलिए वह मेरे हाथ से ठीक वैसे ही निकल गयीं जैसे विष्णु भगवान की कृपा से नारद जी के हाथ से विश्वमोहिनी ।
रामावतार में देवर्षि नारद जी ने जब अपने प्रभु से पूछा कि "आपने मेरे साथ ये अत्याचार क्यों किया ? मुझे अपने जैसा सुंदर स्वरूप न देकर आपने मुझे बन्दर क्यों बना दिया ?" नारद जी की शंका का समाधान करते हुए श्री राम ने उन्हें बताया --
सुनु मुनि तोहि कहहुं सह रोसा । भजहिं जे मोहिं तज सकल भरोसा ।।
करहु सदा तिन्हकै रखवारी । जिमि बालक राखहिं महतारी ।।
नारदजी की रक्षा जैसे श्री हरि ने की उसी भांति मेरे कुलदेव हनुमानजी ने मेरी रक्षा की । मेरी झूठी निरर्थक कामनाओं के जाल से मुझे छुडाया । मेरे भावी जीवन को सुखद-सार्थक बनाया और मुझे वही दिया जो मेरे हित में था ।
मैंने कारवाली कन्या और कार खोई थी, उनके स्थान पर इष्ट देव की कृपा से जो "कन्या" मुझे छः वर्ष बाद मिलीं, आप उनसे परिचित हैं - मेरी जीवन संगिनी श्रीमती कृष्णा जी । लगभग ६० वर्षों से वह मेरा साथ निभा रही हैं । नहीं जानता, उन कारवाली देवी के साथ मेरा गार्हस्थ जीवन कैसा होता, पर "इष्टदेव" की असीम अनुकम्पा से आज मैं कृष्णा जी के साथ जो आनंदमय, सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जी रहा हूँ, उससे उत्तम गृहस्थ जीवन की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ ।
धीरे धीरे मुझे अहसास हुआ कि उस दिन यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ऑफिस में रिजल्ट देखने के बाद "जो" टूटा था, वह वास्तव में मेरा "स्वप्न महल" नहीं था, बल्कि वह था मेरे मन की गहराइयों में कुछ दिनों से बसा हुआ, बिना श्रम किये ही प्राप्त होने वाले सुखों का मोह, कार का आकर्षण और समृद्ध परिवार से सम्बन्ध का लोभ । मैं लोभी बन गया था । मेरे मन में अपनी पढाई लिखाई का तथा मुझे शीघ्र ही मिलने वाली टेक्नोलोजी की डिग्री का अहंकार भर गया था और उसके अतिरिक्त अपने ही आइने में मैं स्वयं को उस जमाने के प्रसिद्ध फिल्म स्टार - भारत भूषण, देवानंद, सुरिंदर, प्रेम अदीब, आदि के समानांतर समझने लगा था । मुझे अपने स्वरूप पर भी शायद कुछ नाज़ हो गया था । गायकी में जहां मेरे बड़े भैया को लोग श्री के. एल. सहगल का प्रतिरूप मानते थे, मैं भी अपने आपको मुकेश जी से कम नहीं समझता था । मेरे मन में बरबस आ बैठे अतिथि श्री "माया मोह जी " ने मुझे इतना बेबस कर लिया कि मैंने वह सब तत्काल हथिया लेने का सपना संजो लिया । नही समझ पाया कि यह मेरी किशोर अवस्था जन्य मूर्खता थी अथवा विधि का कोई अदृश्य विधान । मुझे फेल करके "जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई "के अनुपात में बढ़ते हुए मेरे लोभ और अहंकार पर मेरे कुलदेव ने अंकुश लगा दिया ।
असफलता कभी कभी जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो जाती है । जो होता है अच्छे के लिए होता है । पुन: परीक्षा देने की तैयारी करते हुए उस वर्ष मैंने आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुए बाबूजी के कार्य में उनका हाथ बटाने की भावना से लिपिक का कार्य करना प्रारम्भ कर दिया ।
काशी विश्वविद्यालय में संगीत के क्षेत्र में पायी प्रसिद्धि से मुझे प्रेरणा मिली कि सुरीली और मधुर कंठ की धनी अपनी छोटी बहिन माधुरी को लखनऊ आकाशवाणी का कलाकार बनाऊं । संगीत-कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की महत अनुकम्पा से जून १९५१ में मैं उसका प्रथम कार्यक्रम आकाशवाणी लखनऊ से करा कर उसे कलाकार बनाने में सफल हुआ ।
जीवन में समय समय पर आयी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण मनुष्यों को सुख, दुःख, आनंद तथा ताप-संताप का अनुभव होता है । वाराणसी-प्रवास में पहिले दो वर्षों में मेरे जीवन में ऐसी अनूठी रोमांचकारी घटनाएँ घटतीं रहीं जिनसे मुझे जीवन के कड़वे सत्य का अविस्मरणीय मधुर अनुभव हुआ, जिनकी आनंदमयी अनुभूतियों के साथ इस श्रंखला से जुडी अवसाद के क्षणों की अनुभूति ने किशोर अवस्था में ही मुझे जीवन के कडुए और मधुर सत्यों के साथ जीना सिखा दिया ।
सत्य तो यह है कि इन पर विश्वास करना स्वयं मेरे लिए कठिन होता यदि मैं खुद ही उसका गवाह न होता । स्वभावतः यह विश्वास और भरोसा दिन प्रति दिन दृढ़ ही होता गया कि परमात्मा प्रतिपल हमारे साथ है जिसका अनुभव हमें सदा ही जीवन में हर क्षण होने वाली विविध अनहोनी घटनाओं के घटने पर ही होता है पर हमें अपनी नादानी के कारण अधिकतर उसका अहसास नही हो पाता इसलिए हम उसे नजरंदाज़ कर जाते हैं ।
नहीं गिन सकूगा मैं उपकार "उनके",
दया इस कदर "वह " किये जा रहे हैं ।
हरिक सांस मेरी है सौगात "उनकी",
उन्हीं के सहारे जिये जा रहे हैं ।।
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