शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

कबीर - मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे

खोजी हो तो तुरत मिल जाऊं 
पल भर की तलाश में 
मैं तो तेरे पास में 
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१० जनवरी २०१२ के प्रातः काल यहाँ 'बोस्टन' में नये वर्ष की पहली "स्नो-फाल" [बर्फबारी] हूई ! बहुत हल्की थी ! एक दो घंटे में , धूप खिलते ही, वह  गल कर ,जहां से आयी थी ,उसी जगह पहुंच गयी !   मन में प्रश्न उठा कि यह  "स्नो" जो हमारी आँखों से सदा सदा के लिए ओझल हो गई है क्या ये  वास्तव में सदा सदा के लिए नष्ट हो गयी है ?  नहीं न ! आप जानते ही हैं कि --

"स्नो" धूप से गली , पानी बनी , भाफ बनी  और उड़ कर आकाश की सैर कर पुनः आकर सागर  में समा गई ;उससे  मिल गयी ! जो  भाफ न बन सकी वह या तो धरती में समा गई या नदी नालों के साथ बहती हुई सागर तक पहुंच गयी !

सागर से पुनः ये जलकण ,बादल बनेंगे , और फिर जल अथवा बर्फ में परिवर्तित हो कर इस धरती पर बरसेंगे - और इसी प्रकार यह पूरा क्रम चलता रहेगा -- 

पानी के बुद्बूदों के समान जीवात्माएं अनंत शून्य के अपने स्थायी निवास से  धरती पर उतरती रहेंगी , और कोल्हू के बैल की तरह अपने अपने निश्चित चक्र पूरे करके पुनः अपने परम धाम पहुंच जाएंगी !


हमारे पूर्वजों ने ऎसी ही यात्रा की थी , हम सब भी ऐसी ही यात्रा पर निकले हैं और अपना अपना चक्र पूरा कर के एक एक कर अपने गंतव्य धाम तक वापस पहुंच जायेंगे ! 


हम समझते हैं कि हमारे पूर्वज भी उन जलबिंदुओं के समान विनष्ट हो गए परन्तु वास्तव में ,ऐसा नहीं है ! हम उन्हें देख नही पाते ,दुखी होते हैं यह सोच कर कि हम पुनः उनसे मिल न् पाएंगे ! पर ऐसा कुछ नहीं है , वे सभी "जलबिंदु" हमारे अंग संग हैं !  ये जल बिंदु हमारे रोम रोम को आच्छादित किये हैं , हमारी रग रग में प्रवाहित हो रहे हैं ! हमारे जन्म से लेकर हमारे जीवन के अंत तक वे हमारा साथ नहीं छोड़ते !   

धरातल पर जीव ढूँढते फिरते हैं अपने उस "अंशी"को ! अविनाशी जीव का स्थूल शरीर जीवन भर ,भटकता रहता है -  ?

मंदिर मंदिर , द्वारे द्वारे , मस्जिद  , चर्च  और  गुरुद्वारे 
भटका आजीवन मानव पर मिला न् उसको "अंशी" प्यारे 
[भोला]
परन्तु 

सैकड़ों वर्ष पूर्व भारत के एक अनपढ़ जुलाहे ने जो रहस्य अपने करघे पर चदरिया बुनते बुनते जान लिया था वह ,हमारे जैसे ज्ञानी विज्ञानी समझे जाने वाले महापुरुषों को आज तक समझ में नहीं आया !  :

योगेश्वर कृष्ण ने श्रीमद भगवदगीता के अध्. १८ के श्लोक ६१ में अर्जुन को बताया था कि  

ईश्वरः सर्वभूताना हृद्येशे अर्जुन तिष्टति
भ्रम्यन्सर्वभूतानि   यंत्रा   रूदानि  मायया  

अर्थात  

ईश्वर ह्रदय में प्राणियों के बस रहा है नित्य ही 
सब जीव यंत्रारूढ  माया  से   घुमाता  है    वही     

महात्मा कबीर ने आज से लगभग ५०० वर्ष पूर्व लोक भाषा में कितने आसान शब्दों में
वह गूढ़ रहस्य उजागर कर दिया था , उन्होंने कहा  :

" मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में ,ठीक से खोज मेरे प्यारे , सच्चे खोजी को मैं            पलभर की तलाश में ही मिल जाउंगा  "

आज "उनका" आदेश है कि गा के सुनाऊँ -  तो प्रस्तुत है प्रियजन -


मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 


ना तीरथ में ना मूरत में , ना एकांत निवास में 
ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काशी कैलास में 
 मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 

ना मैं जप में ना मैं तप में ,ना मैं ब्रत उपबास में  
ना मैं किरिया करम में रहता नहीं जोग सन्यास में 
 मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 

खोजी हो तो तुरत पा जाये पल भर की तलाश में  
कहे कबीर सुनो भाई साधो , मैं तो हूँ बिस्वास में 
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में 
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यह एक बूढे तोते की आवाज़ है , यदि कर्कश लगे तो क्षमा करना ! 
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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6 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

अक्षरक्ष: सत्य …………बस खोजने की वो लगन होनी चाहिये और हम मीरा नही बन पाते ना सर्वस्व समर्पण कहने को कहते हैं मगर करते नही अगर करते तो वो हमसे दूर ना होते अर्थात दृष्टिगोचर हो जाते।

G.N.SHAW ने कहा…

काकाजी और काकी जी को प्रणाम ! आप की आवाज और कवीर की वाणी - अति सुन्दर और भावपूर्ण !

रेखा ने कहा…

कबीर की पंक्तियाँ तो लाजबाब है ही साथ ही आपकी आवाज में इसे सुनना हमसब का सौभाग्य है ...सार्थक प्रस्तुति

Bhola-Krishna ने कहा…

स्नेहमयी सौभाग्यवती वन्दनाजी रेखा जी एवं स्नेही गोरखजी
"वह" हमसे दूर कहाँ हैं ? हमारे अंदर ही हैं! मीरा के 'गिरधरगोपाल',तुलसी के 'राम',नरसी के 'सांवरिया',सभी हमारे अंदर हैं ! हम अपने को पहचानें ,'खुदी' को इतना बुलंद करें कि श्रीकृष्ण अपना 'यदा यदा' वाला और श्रीराम ,अपना "निर्मल मन जन सो मोहि पावा" वाला वादा पूरा करने को मजबूर हो जाएँ !
वन्दना जी "दिल के आईनें में है तस्वीरे यार" ('प्यारेप्रभु' हमारे हृदय में ही हैं) हमे तों केवल गर्दन झुकानी है -निज'अहंकार' मिटाकर दर्शन ही दर्शन पाना है !
अगले अंक में सविस्तार उत्तर दूँगा ! देखिएगा अवश्य

Brahma Nand Gupta ने कहा…

bahut achha laga

Brahma Nand Gupta ने कहा…

bahut achha laga