मानव है क्या ?
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मूक होइ वाचाल पंगु चढहिं गिरिवर गहन
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मूक होइ वाचाल पंगु चढहिं गिरिवर गहन
जासु कृपा सुदयाल द्रवइ सकल कलिमल दहन
(रामचरित मानस -बाल कान्ड -सोरठा २)
इस अकाट्य तथ्य का व्यक्तिगत प्रत्यक्ष अनुभव मुझे पिछले १५ - २० दिनो में एक बार फिर हुआ जब कि , बिना नागा, नित्य प्रति एक सन्देश भेजने वाला अपने "'टूल बौक्स" के गहन अंधकार में मुँह छुपाये , गुमसुम पड़ा रहा ! ऐसा क्यूँ और कैसे हुआ ?
प्रियजन उपरोक्त प्रश्न के उत्तर से ही मैंने अपने इस सन्देश का श्रीगणेश किया है !
पिछले पखवारे मैं न कुछ लिख-पढ़ सका , न कुछ गा-बजा ही सका ! इसका एक मात्र कारण यह था कि मुझ- "अचल यंत्र" को संचालित कर सकने वाला "यंत्री" कदाचित मुझे भूल गया ! संभवतः , मेरे दुर्भाग्य से "प्रेरणास्रोत्र" से मेरा सम्बन्ध विच्छेद हो गया और "पॉवर हाउस" से मेरा तार विलग हो गया !
परन्तु कल रात पुनः प्रेरणा स्फुरित हुई ! मुझे मेरी इस चुप्पी के सन्दर्भ में महापुरुषों के कुछ ऐसे वचनों का स्मरण कराया गया जिनमें मेरे इस आकस्मिक मौन का मूल कारण निहित थे ! आदेश हुआ कि मैं उन्हें उजागर भी करूं ! जो जो भाव जगे उन्हें निज क्षमता के अनुरूप शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ --
सर्व प्रथम जो सूत्र याद आया वह है :
इस धरती पर मनुष्यों से उनकी इस काया के द्वारा भूत काल में जो कार्य हुए हैं और जो कर्म वर्तमान काल में वे कर रहे हैं तथा जो कर्म उनसे भविष्य में होंने वाले हैं ,वे सब के सब ही इन जीवधारियों के "इष्टदेवों" की कृपा से ,"उनकी" आज्ञा से और "उनकी शक्ति" के द्वारा ही संचालित हो रहे हैं !
कृष्णभक्त "सूरदास" ने बंद आँखों से अपने कृष्ण की मनहर लीला निरखी , कैसे ? दीन हींन जन पर अहेतुकी कृपा करने वाले प्यारे प्रभु ने "सूर" को दिव्य दृष्टि दी ! और तब सूर ने गदगद कंठ से अति भावपूर्ण वाणी में अपने श्रीहरि की ऐसी चरन वन्दना की :
चरन कमल बन्दों हरि राई
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे अंधे को सब कुछ दरसाई
बहिरो सुने ,मूक पुनि बोले , रंक चले सिर छत्र धराई
सूरदास स्वामी करुनामय बार बार बन्दों तेहि पाई
सूरदास स्वामी करुनामय बार बार बन्दों तेहि पाई
चरन कमल बन्दों हरि राई
हे प्रभु !
मैं अकल खिलौना तुम खिलार !
तुम यंत्री , मैं यंत्र , काठ की पुतली मैं , तुम सूत्रधार !
तुम कहलाओ , करवाओ , मुझे नचाओ निज इच्छा नुसार !!
मैं कहूँ , करूं , नित नाचूँ , परतंत्र न कोई अहंकार !
मन मौन, नहीं , मन ही न प्रथक , मैं अकल खिलौना तुम खिलार !!
( भाईजी )
श्रीमद्भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी यही उपदेश दिया है कि सर्व शक्तिमान ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में यंत्री के रूप में विराजमान है और वह प्राणियों को यंत्र की भांति संचालित कर उनसे सब कर्म करवाता रहता है ! आपको याद होगा , उन्होंने कहा था
ईश्वर: सर्व भूतानां ह्रद्देशे अर्जुन तिष्ठति !
भ्रामयन सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया !!
(गीता अध्याय १८ , श्लोक ६१)
(गीता अध्याय १८ , श्लोक ६१)
फलस्वरूप मैं अपने जीविकोपर्जन के सभी साधन, "राम काज" समझ कर ,अपनी पूरी क्रिया शक्ति लगाकर सम्पूर्ण निष्ठां एवं समर्पण के साथ निर्भयता से करता रहा ! प्यारे प्रभु की अनन्य कृपा आजीवन मुझपर बनी रही और मैंने अपने आपको अपने किसी भी कर्म का कर्ता समझा ही नहीं ! जीवन में पल भर को भी यह भुला ना पाया कि वह "सर्वशक्तिमान यंत्री", मुझे संचालित कर रहे हैं ! इसी कारण कठिन से कठिन परिस्थिति में भी मैं सफल हुआ !
अनेक संदेशों में मैंने इस तथ्य का उल्लेख किया है और पुनः एक बार दुहरा रहा हूँ कि :
अपने किसी भी "कर्म" का "कर्ता" मैं नहीं हूँ
वास्तविक कर्ता "परमेश्वर" है
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यह निश्चित हुआ कि "मैं" कर्ता नहीं हूँ , तों फिर "मैं" हूँ क्या ?
मैंने इस प्रश्न का उत्तर अपने विभिन्न संदेशों में , भिन्न भिन्न शब्दों में दिया है ! कहीं मैंने अपने आप को "बंदर" और उस सर्वशक्तिमान को "मदारी" कह कर संबोधित किया है और कहीं स्वयं को "लिपिक" ( क्लर्क ) और उन्हें अपना "डिक्टेटर"-"मालिक" ( बौस ) कहा है और कहीं स्वयं को यंत्र और उन्हें यंत्री कहा है !
( शेष अगले संदेश में )
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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