सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

जागो सोने वालों जागो

ऐसे हैं हम ,ऐसे ही रहेंगे क्या ?


लगभग १० दिन हो गए , बहुत चाह कर भी मैं इस बीच कोई नया सन्देश नहीं लिख पाया !सच पूछो तो कुछ लिखना पढ़ना तो दूर ,मैंने पिछले कुछ दिनो में एक बार भी गाने बजाने के लिए अपने "केसियो कीबोर्ड" को "ओंन" तक नहीं किया और न "इलेक्ट्रोनिक तबला" और न तानपूरा ही छेडा ! ऐसा क्यूँ हो रहा है ?

आजकल हमारी मनोस्थिति कुछ कुछ वैसी ही हो रही है जैसी महाभारत के युद्ध के प्रारंभ में अर्जुन की हो गयी थी !आपको याद होगा कि तब ,विषाद में डूबे अर्जुन ने अति कातर ह्रदय से अपने सारथी योगेश्वर श्री कृष्ण को सम्बोधित कर के कहा था :

गांडीव हाथों से गिरा , जलता समस्त शरीर है
कैसे रहूँ मैं खड़ा मेरा मन भ्रमित व अधीर है !!
[श्रीमद भागवत गीता : अ.- १ , श्लोक - ३०]

कायर बना मैं ,भुला बैठा, स्वयम सत्य स्वभाव को
मति ने भ्रमित होकर भुलाया धर्म के भी भाव को !!
अब आ गया हूँ शिष्य बन ,मुझको शरण में लीजिए
औ कृपा कर कल्याणकारी राह दिखला दीजिये !!
[श्रीमद भगवत गीता : अ.- २ , श्लोक - ७]

मेरी इस बदहाली का मूल कारण तो केवल "वह" ही जानते हैं जिन्हें मैं कभी "प्रियतम" कभी "मदारी" , कभी "खिलाडी", कभी "यंत्री"और कभी 'डिक्टेशन' देने वाला "बॉस" कह कर पुकारता हूँ ?

याद होगा आपको,अपनी आत्मकथा में,मैंने कहीं, कुछ ऐसा कहा है :

करता हूँ केवल उतना ही , जितना "मालिक" करवाता है ,
"रचता-गाता" हूँ गीत वही जो "वह" मुझसे लिखवाता है !
मेरी रचना मत कहो इसे ,सब "उनकी" कारस्तानी है ,
यह मेरी आत्म कहानी है !
"भोला"

अस्तु मेरी वर्तमान चुप्पी के कारण चिंतित न हों ! प्यारे प्रभु की कृपा से ,मैं पूर्णतः स्वस्थ हूँ , भली भांति खाता पीता हूँ, चलता फिरता हूँ , और लेटे लेटे ,सारे दिन क्या ? , देर रात तक "टेलीविजन" पर भारत के समाचार ,सीरियल्स और सोप देखता रहता हूँ !

खेद केवल इसका है कि मेरी यह पार्थिव काया ,आजकल कोई निजी,"शब्द-स्वर-बद्ध" रचना नहीं कर पा रही है और मैं इस प्रकार अपनी वह "ईषोपासना" नहीं कर पा रहा हूँ जिसकी पैरवी मैं अपने संदेशों में करता रहता हूँ !

(भैया याद् रखियेगा, कि कोई भी 'सन्देश' मेरा नहीं हैं ,सबही "उनके" हैं ,मैं उनका लिपिक मात्र हूँ ! जी हाँ मेरा यह सन्देश भी "वह" ही लिखवा रहे हैं )

अब आप ही कहें अपनी इस वर्तमान अकर्मण्यता के लिए मैं अपने उस प्रियतम ,

"करता पुरुख , निरभउ निरवैर , अकालमूरति , मात-पिता,
सकल-समग्रीधारी ,गरीबनिवाज ,सच्चे बादशाह ,
अखंड ज्योतिस्वरूप --- "

के अतिरिक्त और किसे दोषी ठहराऊँ और किससे फरियाद करूं अपने इस असामयिक कायारपने से उद्धार पाने के लिए ?

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हाँ तो , मैं आश्चर्य चकित हूँ कि अपने जीवन के, अब तक के ८२ वर्षों में यथासंभव राजनीति और राजनीतिज्ञों से कोसों दूर रहने वाला मैं ,क्यूँ और कैसे ,अपने १८ फरवरी वाले सन्देश में ,लीक बदल कर ,आध्यात्मिक अनुभूतियों के स्थान पर ,देशवासियों से न जाने क्या क्या कह गया ! अंततोगत्वा मैंने उनसे चुनावों में 'वोट' डालने की अपील भी करदी !

अनायास ही , मेरे "बॉस" ने मुझे उस प्रातः ऐसा "डिक्टेशन" क्यूँ दिया था ,इसका कारण तो केवल "वह"ही बता पाएंगे ! पर इसमें कोई शक नहीं कि कोई न कोई गूढ़ रहस्य तो होगा ही , जिससे अवगत होकर "उन्होंने" वह सब मुझे डिक्टेट किया !

प्रियजन मुझे तो अब पक्का विश्वास हो गया है कि उन "ऊपरवाले", दयानिधान , परम पिता परमेश्वर को भी अब भारत वासियों पर दया आ रही है ! उन्हें अब भारतीयों पर पड़े भयंकर संकट का ज्ञान हो गया है और अब "दीनानाथ" के मन में भी भारतीयों के भविष्य के विषय में विशेष चिंता होने लगी है !

वह ,१८ फरवरी वाला सन्देश डिक्टेट कर देने के बाद मेरे "बॉस" ने मुझे "रेस्ट् एंड रिक्रीएशन" के लिये "कम्पलसरी फरलो" पर भेज दिया ?

प्रबुद्ध ब्लोगर बिरादरी ने मेरी [?] उस अनगरल वार्ता [?]पर कोई कमेन्ट नहीं दिया ! मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्यूंकि मैं भली भांति जानता हूँ कि बिरादरी का एक एक जागरूक विद्वान स्वदेश की वर्तमान दुर्गति के वास्तविक कारणों से अवगत है ,वह यह भी जानता है कि कौन "रिस्पोंसिबिल" है उनकी इस दुर्गति के लिए ! मुझे विश्वास है कि ,उन्होंने दोषियों को उचित सजा देने का मन बहुत पहले से ही बना लिया होगा और आज नहीं तो २०१४ तक तो वह अवश्य ही सम्पूर्ण देश को ऐसे बेईमान शाशकों से मुक्त करा लेंगे !

हाँ , इस विषय पर एक टिप्पडी मुझे एक अज्ञात व्यक्ति के "ई मेल" के जरिये , भारत से प्राप्त हुई ! प्रियजन ,उनके समग्र पत्राचार से मुझे ऐसा लगा जैसे भारत में "करप्शन" नामक महामारी का कोई अता पता ही नहीं है !

यह सज्जन अच्छे खासे अंग्रेजी पढे लिखे ,भारत की जमीनी स्थिति से पूरी तरह वाकिफ जान पड़ते हैं ! कदाचित वह किसी मल्टीनेशनल कम्पनी अथवा किसी प्रगतिशील भारतीय "बिजिनेस हाउस" से सम्बन्धित हैं ! जो भी हों , उनके विचार अति अनूठे हैं !

उनके समग्र पत्राचार से मुझे ऐसा लगा जैसे भारत में "करप्शन" नामक महामारी का कोई अता पता ही नहीं है ! उनकी दृष्टि में भारतीय संकट का मूल कारण करप्शन नहीं है !उन्हें लगभग डेढ़ लाख करोड का २ जी स्पेक्ट्रम घुटाला और हजारों करोड का राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना का घुटाला नजर नहीं आ रहा है ! इन्हें नगण्य बता कर वह चिंता कर रहे हैं , इसकी कि भारतीय नागरिक ,"पेपर नेपकिन' अथवा हेंड कर्चीफ़ " इस्तेमाल नहीं करते और बेख़ौफ़ निश्चिन्तता से , बेबाक सड़क के किनारे अथवा ,बड़ी बड़ी इमारतों की सीढियों में थूक देते हैं ! इसके अतिरिक्त उनका कहना है कि अधिकतर भारतीय "आयकर" चोर हैं ! उनका विश्वास है कि यदि सभी भारतीय अपने "कर" यथासमय अदा करते रहें तो अपना देश आर्थिक संकट से उबर जायेगा !

हमे ऎसी समझ वाले मनीशियों को उचित उत्तर देना है ! नहीं तो हम जैसे हैं वैसे ही बने रहेंगे सदा सदा के लिए !

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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

देशवासियों से एक अपील


स्वस्थ व्यवस्था का मोहताज 
हमारा प्यारा देश 
"भारत" 
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अपने पिछले किसी अंक में मैंने लिखा था कि बचपन - [१९३०-४०] में 
घर के संगीत गुरु 'श्री ग्रामाफोन जी महाराज' से ,हमने जो प्रथम गीत सीखा था वह था  पंडित नारायणराव व्यास का गाया हुआ स्वदेश प्रेम की भावना से भरपूर गीत :

 भारत हमारा देश है ,हित उसका निश्चय चाहेंगे 
[और]
 उसके हित के कारण हम कुछ न् कुछ कर जायेंगे 
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आज प्रातः ही भारत से एक पत्र मिला जिसमे ,अपने देश की 
वर्तमान दुर्दशा का सजीव चित्रण था !
अंग्रेजी भाषा में लिखित पत्र का शीर्षक था "अजब देश की गजब कहानी " 
उससे प्रेरित हो ,आपके इस दुखी हृदय मित्र के अवरुद्ध कंठ से 
  निम्नांकित शब्द फूट पड़े : 
 
हमारा देश - भारत
 
हम उस देश के बासी हैं - जिस देश में गंगा बहती है
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आधी से अधिक जहां की जनता झोपडियों में रहती है 
या शहरों के फुटपाथों पर बारिश औ सर्दी सहती है 
  
चावल चालीस का एक किलो - "सिम कार्ड" मुफ्त में मिलता है
 नीबू" औषधि को दुर्लभ है ,"वाशिंग मशीन्"  में पड़ता है 

नौ सौ ग्यारह की घंटी बजती है बजती रहती है  
औ पुलिस यहां घटनास्थल पर घंटे भर बाद पहुंचती है 
            
इस बीच नगर बस सेवा की बस चौराहे पर जलती है 
फायर ब्रिगेड की खाली टंकी पानी हेतु तरसती है 

  "पिज्जा" जल्दी आजाता है "एम्ब्युलेंस" पहुंच ना पाती है  
 होस्पिटल" पहंचने से पहिले रोगी की गति हो जाती है   

  जिए मरे कोई इसका गम नहीं किसी को होता है  
 फिक्र किसे है क्यू कोई भी फुटपाथों पर सोता है  
 
देर रात तक डिस्को-क्लब में मदिरा चलती रहती है 
 सुबह सबेरे फुट पाथों पर तेज 'फरारी' चढ़ती है 

दब कर मरते सोने वाले ,बच्चे अनाथ हो जाते हैं  
नेताओं के संरक्षण में दोषी फरार हो जाते हैं"

"भोला"
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प्रियजन 
 फिर भी इस निर्धन-पिछडों के देश में 
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    जूते "ए. सी " में बिकते हैं , सब्जी हाटो में सडती है
भारत के चोरों की सम्पति स्विस की धरती में गड़ती है 

अति आसानी से 'कारलोन' सस्ते दर पर मिल जाता है  , 
बारह प्रतिशत पर 'स्ट्डी लोन' अति भाग दौड से आता है

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प्रियजन !

हम तों बेबस हैं , देश से हजारों मील दूर , 
वयस और स्वास्थ्य जनित कठिनाइयों के कारण 
कुछ भी करने का सामर्थ्य  नहीं रखते ! परन्तु आप तों सक्षम हैं !
प्लीज़ कुछ करिये !
और कुछ नहीं तों कमसे कम् चुनावों में अपना बहुमूल्य वोट तों डालिए ही !
अच्छे ,ईमानदार, व्यक्तिओं को चुनिए !


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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
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रविवार, 12 फ़रवरी 2012

हमारी "संगीत शिक्षा"


 "भक्ति संगीत" से 
हमारी संगीत शिक्षा  
का श्रीगणेश 
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हमारे  " प्रेरणा स्रोत" -"प्यारे प्रभु" ने , मेरी  पिछली "संगीत" विषयक चर्चा का प्रारम्भ , "फिल्मी आयटम गीतों" से ही क्यूँ करवाया , इसका मूल कारण तो "वह"ही जाने ! इस विषय में मैं आपको ये साफ साफ बता देना चाहता हूँ कि १९५० के दशक के बाद मुझे जीविकोपार्जन के चक्कर में ,अधिक फिल्में देखने का मौका ही नहीं मिला !  आप ही अनुमान लगाएं , ऐसे में आयटम गीतों के विषय में मेरा ज्ञान कितना सीमित होगा और उन पर प्रकाश डालना मेरे लिए कितना कठिन होगा और कितना कठिन होगा मेरे लिए ऐसे विषय पर कोई सार्थक वक्तव्य देना ! फिर भी मजबूर था -

क्या करता ?  हूँ तों "उनका" मोल लिया गुलाम ! कैसे टालता आदेश "उनका" ? उनका  डिक्टेशन तों लेना ही था ! सो , जो भी "उन्होंने" बोला ,मैंने टंकित कर दिया !

सच्चाई यह है कि बहुत छुटपन से ही मुझे अश्लील शब्दों वाले गीत सुनना या स्वयं गाना अच्छा नहीं लगता था !    क्यूँ ?  

इसके कई कारण हो सकते हैं जिनमे सर्व प्रमुख है यह , जो मुझे अब - ८२ सर्दियाँ झेल लेने के बाद समझ में आया है - वह है  , "मेरे जीवात्मा"'  द्वारा जन्म जन्मान्तर से संचित किये प्रारब्ध एवं संस्कारो  का 'क्यूमिलेटीव' प्रभाव तथा मेरे इस जन्म की सारी कारगुजारी - अर्थात मेरी इस मानव काया द्वारा , इस जन्म में किये सभी उचित तथा अनुचित कर्मों का लेखा जोखा ]   !

सच पूछिए तों ,गुरुजनों एवं मातापिता के आशीर्वाद  ,उनकी सिखावन , उनकी बहुमूल्य दीक्षा [ जिन्हें हम अक्सर अधिक महत्व नहीं देते है ,वह ही ] , हमारे 'प्रारब्ध' तथा "पूर्वजन्म के संस्कारजनित" कुप्रभावों से आजीवन  हमारी रक्षा करते  हैं !  और हम हैं कि बेकार  के ढकोसलों में पड़े अपनी निजी मूर्खताजन्य असफलताओं के लिए काल,कर्म और ईश्वर को दोषी ठहराते रहते हैं ! तुलसी ने सत्य ही कहा है कि ऐसे असफल व्यक्ति :

सो परत्र  दुःख पावई  सिर धुन धुन पछताइ  
कालहि  कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाइ 

चलिए आगे की कथा सुन लीजिए ;-

१९३० के दशक के अंत तक भारत के कुछ बड़े नगरों में ही "रेडियो" की सुविधा  उपलब्ध थी ! टेलीविजन का तों कहीं नामोनिशान भी नहीं था ! समृद्ध घरों में मनोरंजन का एक मात्र साधन होता था "ग्रामाफोन" तथा उनपर बजने वाले 'कुत्ता छाप' - "एच एम् वी" के रिकोर्ड [तवे] !  प्रियजन , विश्व युद्ध [द्वितीय] से पूर्व के उन दिनों में ,तीस चालीस रुपयों में "हिज मास्टर्स वोयस" के 'ग्रामाफोन' और चार चार आने में तवे मिला करते थे !

हमारे  पिताश्री  एक ब्रिटिश फर्म के उच्चाधिकारी थे ! गर्मियों के सालाना वेकेशन के बाद इंग्लेंड से लौटने वाले उनकी कम्पनी के अँगरेज़ अधिकारी बाबूजी के लिए "क्वेकर्स ओट मील " की शीशियाँ और हम बच्चों के लिए  'मेड इन इंग्लेंड'- कम्पटे और "मोर्टन" ' की चोकलेट , तथा ब्रिटानिया बिस्किट कम्पनी के मीठे "डाइजेस्टिव बिस्किट" और खारे "क्रीम क्रेकर्स" के टीन के डिब्बे लाते थे ! अक्सर बाबूजी के मित्र - स्मिथ साहेब , इंग्लेंड में सुंदर 'पैकिंग' में भरी हुई  ,भारत की बेशकीमती 'चाय' वापस भारत में लाकर भारतीयों को ही भेट में देते थे !  मुझे याद है एक बार बड़े भैया के लिए वह छर्रों के साथ एक 'एयरगन' भी लाए थे !

मैंने जब होश सम्हाला ,४  - ५ वर्ष की अवस्था में [ १९३३ - ३४  ] मैंने ऐसे ही इंग्लेंड से आयातित एक "एच एम् वी '' का बड़ा वाला ग्रामाफोन अपने घर में देखा था !

उस ग्रामाफोन पर , घर के ,बड़े लोग [ हमारे बच्चन चाचा और ताऊजी के बेटे जगन्नाथ भैया , जो कोलेज की पढाई के लिए बलिया से आकर हमारे साथ ही रहते थे ], बाबू जी की गैर मौजूदिगी में , मौका मिलते ही उस ग्रामाफोन में चाभी भर कर ,रिकोर्ड बजाने लगते थे और हम बच्चे , दूर से ही ,कान लगाये हुए उस बाजे से निकलता संगीत सुना करते थे !

संयोगवश , शायद पूर्व जन्म के संस्कार एवं प्रारब्ध के कारण हमारे परिवार के बच्चों पर "वीणापाणी माँ सरस्वती" की असीम कृपा थी ! बड़े भैया , बड़ी दीदी  तो  गाते ही थे,मैं भी अपनी अस्फुट  बोली में उन रेकोर्डों के स्वर में स्वर मिला कर उनपर छपे गाने सीख लेता था ! अब सुनिए, हमारे तत्कालीन 'संगीत गुरु', "पंडित ग्रामाफोन जी महाराज" ने हमे तब क्या क्या सिखाया था ?

शुरू शुरू में उस ग्रामाफोन के साथ थोड़े से ही रिकोर्ड आये थे ! मुझे याद है उनमे दो सेट नाटक  के थे - [१] वीर अभिमन्यू / जयद्रथ वध , [२], बिल्वमंगल सूरदास ! टीन के दो रंगीन डिब्बों में ये तवे बहुत सम्हाल कर रखे गए थे !

इन दो 'ड्रामों' के अलावा थोड़े से संगीत के तवे भी थे ! एक जिसे हम बार बार सुनते थे वह था , उस जमाने के मशहूर संगीतज्ञ पंडित नारायण राव व्यास द्वारा गाये गीत का ! वह गीत उस छोटी उम्र में ही मेरा मन छू गया था , तभी तो आज ८० वर्ष बाद भी वह मुझे सस्वर याद है :[सुविधा मिलती तो गा कर सुना देता] अभी उसका मुखड़ा ही देख लीजिए -

भारत हमारा देश है , हित उसका निश्चय चाहेंगे -
और  उसके हित के कारण हम कुछ न कुछ कर जायेंगे 

 कितने उच्च विचारों से भरा हुआ है यह गीत ,आपही देखें !  


देश प्रेम के उस रिकोर्ड के साथ भक्ति रस के भी कई रिकोर्ड थे ! 
इन रेकोर्डों में ,बंगाल की किसी भद्र महिला गायिका के द्वारा गाये हुए 
श्रद्धा भक्ति से ओतप्रोत ,"मीराबाई" के चंद बड़े अच्छे भजन थे !

(१) मेरे तों गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई 
(२) राना जी ,मैं तों गिरिधर के घर जाऊं 
(३) प्यारे दर्शन दीजो आय 
(४) दरस बिना दूखन लागे नैन     


इनके अतिरिक्त ठाकुर ओंकार नाथ जी , पंडित विनायक राव पटवर्धन जी , पंडित डी. वी  पलुस्कर जी तथा बिस्मिल्लाह खां साहब के शास्त्रीय संगीत के भी तवे थे ! उनके गायन में शब्दों की न्यूनता के कारण बचपन में हम उनका उतना आनंद नहीं उठा पाते थे !

इस प्रकार मीरा बाई के उपरोक्त भजनों द्वारा हमारे प्रथम संगीत गुरु  'पंडित ग्रामाफोन जी महराज' ने हमारी कलाई पर पहला गंडा बाँधा !

इस संगीत शिक्षा का 'होम वर्क' प्रतिदिन  हमारी अम्मा हमसे करवा लेती थीं ! वह फुर्सत के समय हमसे मीरा के उपरोक्त भजन सुना करतीं थी ! इस प्रकार अम्मा को  भजन सुनाने से  हमारा संगीत का रियाज़ होता था और हमारी अम्मा का "नाम सिमरन" !

क्रमशः

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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

हमारा फिल्मी संगीत -

हिन्दुस्तनी फिल्मों में "गीतों" के बदलते स्वरूप 
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प्रियजन , ऐसा नहीं है कि अब मेरी "बच्चन खुमारी" उतर गयी है ! अभी ,कल मध्य रात्रि  ही सहसा बच्चन जी के एक अन्य गीत ने मुझे गुदगुदाकर जगाया ! जबरन पलंग छोड़ कर अपने "पोर्टेबल रेकोर्डर" पर , १९५०-६० में बनायी पुरानी धुन में गाकर रिकोर्ड कर लेने को मजबूर हो गया ! मध्य रात्रि की यह प्रेरणा "उनकी" ही ओर से आयी थी --

लेकिन प्रातः होने तक "मालिक" ने दूसरा फरमान जारी कर दिया !  इस बार जो सेवा "उन्होंने" मुझे सौंपी , वह अति कठिन है ! क्यूँ ?
 ,
मैं भली भांति जानता हूँ कि ,पेशे से ,जीवन के अधिकांश भाग में ,"ललित कलाओं" के नितांत विपरीत दिशा की "चर्मकारी" जैसे तथाकथित "अछूत"  व्यापर में लगी मेरी यह पंच भूतीय काया, "संगीत" जैसे पवित्र विषय पर ,अधिकार से कुछ भी कह पाने को सक्षम नहीं है ! सच पूछें तों मुझे यह लगता है कि अध्यात्म ,संगीत और साहित्य पर कुछ भी कहना मेरे लिए सर्वथा अनुचित एवं अनाधिकारिक चेष्टा है !

पर फिर भी वह अज्ञात शक्ति मुझे आज प्रातः से ही उकसा रही है ,कि मैं कुछ बोलूँ ! क्यूँ और क्या ? यह मैं  अभी नहीं कह पाउँगा !  इस प्रश्न का उत्तर तों 'वह" निराकार ,सर्वज्ञ , "सर्वरहित सब उरपुर-वासी" ही देगा जो इस "जंगली बानर (मुझ)" को प्रीति की डोरी से बांधकर , डंडा फटकार कर ,मुझसे , न जाने क्या क्या करवा रहा है !

मैं  दोषी नहीं, सुनो स्वजनों , है सारा दोष "मदारी" का 
"भोला" बानर , मैं  क्या जानू ,अंतर  मैका -ससुरारी का 
रस्सी थामे  मेरी ,मुझसे, "वह"   करवाता  मनमानी  है  
डुगडुगी बजा कर नचा रहा मुझको 'वह' चतुर मदारी है
(भोला)

मेरी तों आपसे केवल यह प्रार्थना है कि आप मेरी इस अनाधारिक चेष्टा - औकात से अधिक विद्वता दर्शाने के अहंकारिक प्रयास के लिए मुझे क्षमा करें!:
  
चलिए विषय विशेष पर आयें 
हमारी फिल्मों में "आयटम नम्बर्स "

बचपन से ,उच्च कोटि के गीतों के साथ साथ फिल्मों में "कोमर्शीयल सक्सेस"  के लिए उनमे जबरदस्ती डाले हुए 'आयटम नम्बर्स" सुनता और देखता आया हूँ !

१९३०-४० के दशक के साफ़ सुथरे , शिक्षा प्रद गीत अभी तक याद हैं :

चल चल रे नौजवान ,कहना मेरा मान मान ,
तू आगे बढे जा , आफत से लडे जा ,
आंधी हो या तूफान फटता हो आसमान,
रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान 
( शायद फिल्म "बंधन" से )

तथा 

मन साफ तेरा   है कि नहीं पूछ ले जी से ,
फिर जो कुछ भी करना है तुझे कर ले खुशी से,
घबडा न किसी से, 
सच्चे नहीं डरते हैं जमाने में किसी से,  
( शायद फिल्म -"स्वयंसिद्धा" से )

उपरोक्त गीत तथा उस काल के ऐसे सैकड़ों शिक्षाप्रद गीतों की शब्दावली मुझे अभी तक याद हैं लेकिन इसके साथ साथ विडम्बना यह है कि उन्ही दिनों फिल्माए अनेक आयटम गीतों को भी भुला नहीं पाया हूँ !  क्यूंकि उनदिनों १० - ११ वर्ष का मैं ,शुरू शुरू में [ बिना वैसे गीतों का सही अर्थ समझे ] उन्हें अक्सर ,गुनगुनाता रहता था ! [ बाद में अम्मा के टोकने और उन गीतों का वास्तविक अर्थ समझने पर मैंने स्वतः वैसे गीतों को तिलांजली दे दी ]  अब ऐसे गीतों में से एक आध् के मुखड़े ही याद हैं और सच बताऊँ, आज उन गीतों के मुखड़ों को भी लिखने में मुझे शर्म आ रही है !

फिर भी लिख रहा हूँ , यह बताने के लिए कि उस ज़माने के अश्लील से अश्लील गीत , इतने विषैले नहीं थे जितने आजकल के आयटम नम्बर हैं ! १९४० के आसपास "रेहाना" (?)  पर फिल्माया यह गीत  - "जवानी की रेल चली जाय रे" को मैंने उन दिनों बार बार सुना था पर एक दो बार ही उसे स्क्रीन पर देख सका  था  ! लेकिन आजकल के फिल्मों के आयटम नम्बर आपके बिना चाहे भी आपको  टेलीविजन के किसी न किसी चेनल पर हर घडी दिखाई दे जायेंगे !

पिछले १० वर्षों में हिन्दुस्तानी सिनेमा में आयटम नम्बर्स की बाढ सी आ गयी है ! दुःख होता है यह कहते हुए कि ,तब [१९३० - ४०] के दशक के मुकाबले ,आज के दशक में ऐसे  गीतों को  फिल्माने में कुछ अभिनेत्रियों द्वारा बे रोक टोक अंग प्रदर्शन और कभी कभी जान बूझ कर "टॉपलेस" होने की प्रक्रिया के  कारण आजके "आयटम नम्बर्स" ,पहले के गीतों से कहीं अधिक जहरीले हो गए हैं !

[ १ ]  २००६ की फिल्म - "चायना गेट " का  गीत " बीडी जलाइ ले "
[ २ ]  २०१० की फिल्म - "दबंग "  का  गीत  " मुन्नी बदनाम ---- "
[ ३ ]  २०१० की फिल्म - "तीसमार खां" का गीत "शीला की जवानी"
[ ४ ]  २०११ की फिल्म - "डबल धमाल" का गीत , " जलेबी  बाई "


पिछले चार पांच वर्षों में उपरोक्त गीतों ने , देश के हिन्दी भाषा भाषी युवक युवतियों का कितना शारीरिक ,मानसिक ,बौद्धिक ,नैतिक, तथा आध्यात्मिक कल्याण किया होगा आप प्रबुद्ध मनीषी  ब्लोगर बन्धु अवश्य आंक सकते हैं !


[ मैं बरसों से भारत नहीं गया , अस्तु मेरा उपरोक्त ज्ञान उन्हीं गीतों/फिल्मों तक सीमित है ,जिनके विषय में मैंने यहाँ पर अपनी  पोतियों से सुना है ]

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क्यूँ लिखवाया "उन्होंने" मुझसे यह सब ? मैं कैसे कहूँ ?  लेकिन इतना लिखवाकर "वह"
खामोश हो गए और मेरी कलम थम गयी ! आगे कब और क्या लिखवायेंगे ये तों "वह" ही जाने !  जैसे ही 'सिग्नल' मिलने लगेंगे मेरी 'ब्लोगिंग" पुनः चालू हो जायगी ! मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ आप भी थोड़ी प्रतीक्षा करें !

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निवेदक:   व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
   

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

"बच्चन जी" का गीत (३)

डॉक्टर हरवंश राय "बच्चन" 
पुण्यतिथि 
जनवरी १७, २००३ 
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 ५० - ६० वर्षों के बाद , इस जनवरी १७  को ही सहसा क्यूँ ,याद आये "बच्चन जी", इस विषय में स्वमति अनुसार ,अपने "इष्टदेव" की प्रेरणा से मुझे जो समझ में आया ,वह गत अन्कों में लिख चूका हूँ ! यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि मेरा "निजी" सम्बन्ध , बच्चनजी अथवा उनके परिवार के किसी व्यक्ति से कभी नहीं रहा ! पर यह भी सत्य है कि  मेरी सगी छोटी बहन माधुरी [ जिन्हें बचपन में ,मैं 'बच्चन' जी के गीत सिखाता था ] तथा उनके पतिदेव [मेरे बहनोई] (स्वर्गीय ) विजय बहादूर चन्द्रा जी के साथ "अमिताभजी " तथा "जया जी" का काफी घना सम्बन्ध था ! [ परिवार के एल्बमों में साक्षी स्वरूप अनेक चित्र उपलब्ध हैं ]!

न जाने कहाँ कहाँ भटक जाता हूँ , लीक से ! कथा चल रही थी बड़े वाले "बच्चन जी" की और मैं उनके पुत्र की बात छेड़ बैठा ! चलिए अपनी कथा आगे बढ़ाएँ :

गत शताब्दी के 'चालीस' की दशक में मैं काफी छोटा था लेकिन मेरा तरुण हृदय  तब भी  "मधुशाला" के मादक प्रभाव से अछूता नहीं बच सका था ! मैं कभी कभार उसकी एकाध चौपाई 'बच्चनजी' के ही अंदाज़ में गा लेता था [ तब तक "मन्नाडे" ने "मधुशाला" नहीं
गायी थी ] ! परन्तु उसके बाद , 'पचास' के  दशक में "इंटर-विध-साइंस" पास करके  इंजीनियरिंग या टेक्नोलोजी की डिग्री हासिल करना तथा आजीविका अर्जित करने के साधन जुटाने के प्रयास में दिन बीतने लगे  ! फलस्वरूप ,लगभग एक दशक के लिए , केवल बच्चन , रामकुमार वर्मा , महादेवी वर्मा , नवीन , सुमन आदि की रचनाओं को संजोये पुस्तकें ही नहीं वरन मिर्ज़ा गालिब और जफर के कलामों के हिन्दी संस्करण की किताबे भी घर की बुकशेल्फ की सजावट बन कर रह गईं !

फिर १९५० से ६० तक ,छोटी बहन माधुरी को आल् इंडिया रेडियो पर गवाने के लिए श्रेष्ठ गीतों की तलाश में "बच्चन जी" की "निशा निमंत्रण"  तथा अन्य कुछ पुस्तके [ सब के नाम अभी याद नहीं आ रहे हैं ] झाड पोंछ कर शेल्फ़ से निकाली गयीं ! पहली खोज में ही "बच्चन जी"  के निम्नांकित ये तींन गीत हाथ लगे ! स्वीकारता हूँ कि उन दिनों ,पूर्णतः   "गदहपचीसी" में स्थापित मेरा २४-२५ वर्षीय 'भोला भाला' हृदय ,इन गीतों की मधुरता से इतना प्रभावित हुआ कि, शब्दों के हाथ आते ही गीतों की धुनें [ स्वर रचना ] गंगोत्री की गंगा के समान मेरे कंठ से स्वतः प्रस्फुटित हुईं !

बच्चन जी के वे तींन गीत थे :

[१] दिन जल्दी जल्दी ढलता है
[२] क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
[३] आज मुझसे दूर दुनिया

आश्चर्यचकित न हों ! मेरे द्वारा "स्वर संयोजन" का यूं सहसा ही हो जाना कोई एकाकी घटना नहीं है ! कालांतर में जब सौभाग्य से मैं आकाशवाणी के प्रतिष्ठित संगीतकारों - मुजद्दिद नियाजी , विनोद चेटर्जी , रघुनाथ सेठ  आदि तथा फिल्म जगत के विख्यात  म्युज़िक डायरेकटर्स - मदनमोहन ,चितलकर रामचन्द्र , तथा नौशाद अली साहब आदि  से मिला तो मैंने उनसे जाना कि कैसे , उनकी भी सबसे लोकप्रिय धुनें इसी प्रकार सहसा ही "गंगावतरण" के समान शून्य से उतर कर उनके कंठ से अवतरित हुईं थीं ! प्रियजन , विस्तार से ये कथाएँ ,अवसर मिलने पर फिर कभी सुनाऊंगा,जब ऊपर से तरंगें आयेंगी!

स्वजनों, बिना मधुशाला गाए, जो "बच्चनजी"  की रचनाओं का यह "नशा", पिछले एक पखवारे से चढा है उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है ! सो जरूरी हो गया है कि मैं पहले यह "हैंगोवर" उतार लूँ  , नहीं तो चढ़ी ही रहेगी यह "बच्चन-खुमारी" अनंत काल तक और "भोला" की 'आत्मकथा' अधूरी ही  धरी रह जायेगी !

अस्तु स्नेही स्वजनों , अब सुन ही लीजिए अपने बूढे पोपट से ,उसके अवरुध्द कंठ द्वारा गाया बच्चनजी का यह तीसरा गीत :

आज मुझसे दूर दुनिया
भावनाओं से विनिर्मित , कल्पनाओं से सुसज्जित,
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनिया
आज मुझसे दूर दुनिया




Painting by our daughter in law - MANIKA  
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आज मुझसे दूर दुनिया 

 बात पिछली भूल जाओ , दूसरी नगरी बसाओ,
प्रेमियों के प्रति रही है हाय कितनी क्रूर दुनिया 
आज मुझसे दूर दुनिया 

वो समझ मुझको न पाती और मेरा दिल जलाती,
है चिता की राख कर में, मांगती सिदूर दुनिया 
आज मुझसे दूर दुनिया 

(बच्चन)
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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला "
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
एवं 
श्रीमती  मणिका  श्रीवास्तव  
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