मंगलवार, 2 नवंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 8

हनुमत कृपा 
पिताश्री के अनुभव 
प्रियजन ! आपको याद होग़ा ,निज अनुभवों के वर्णन में, मैंने साउथ अमेरिका की एक  घटना आपको सुनायी थी जिसमें १९७६ में  एक सम्भावित हवाई- हादसे में संकटमोचन  श्री हनुमान जी ने मेरी जीवन रक्षा की थी ! उसी स्थान पर "उन्होंने" एक बालक के रूप में अचानक ही आकर ,मुझे "गऊ हत्या" जैसा हिंसक दुष्कर्म करने से बचा लिया था ! इसके अतिरिक्त ह्मारे परिजनों पर,ह्मारे अपने दादा परदादा पर भी उन्ही महाबीर जी नें ,विविध स्वरूपों में प्रगट होकर अनंत कृपाएं कीं ,जिनका विस्तृत वर्णन मैंने अपने पिछले २०७ संदेशों में किया है ! 

मेरे परिजनों और मुझ पर जो "हनुमत कृपा" हुई उनकी कहानियों की सत्यता पर आज के वैज्ञानिक युग के कतिपय मनीषियों का अविश्वास करना स्वाभाविक ही है !वे बहुधा यह प्रश्न करते हैं क़ि हम अपने मान-सम्मान एवं जीवन रक्षा अथवा प्रत्येक प्राप्ति एवं  उपलब्धि का सम्पूर्ण श्रेय केवल अपने इष्ट देव श्री ह्नुमान जी को अथवा किसी अन्य देवी देवता को ही क्यों देते हैं? ह्म आज इस प्रश्न पर ही विचार करने जा रहे हैं !.

तर्क करने वाले तर्क करते रहते  हैं लेकिन वे व्यक्ति जिन्होंने उस "परम" की अदृश्य शक्ति का अनुभव अपने दैनिक जीवन की गतिविधियों में किया है वे भली भांति जानते हैं क़ि भगवत्कृपा अनुभवगम्य है! हमे तो पूरा विश्वास है क़ि श्री ह्नुमाजी ने   मेरे जीवन में ,एकबार सुबुद्धि और विवेक का सूक्ष्म रूप धर कर ,हवाई अड्डे के Air Traffic Cotroller को सही दिशा दिखाकर हमारी जीवन रक्षा की और दूसरी बार बालक रूप में प्रगट हो कर ह्मारे मान सम्मान की रक्षा की! 

प्रियजन ! कहते हैं कि जिनको अनुभव हुआ है वह ही इस तत्व को जानते हैं ! पर सच तो यह है कि उस "परम" की कृपा सारे चर अचर जगत को-सम्पूर्ण मानव समाज को पल पल प्राप्त हो रही है ! सब प्राणी उसका अनुभव कर रहे हैं उससे लाभान्वित हो रहे हैं पर बिरले ही ऐसे मिलेंगे जो अहंकार मुक्त हो अपनी प्रत्येक उपलब्धि को प्रभुप्रदत्त स्वीकारने को तैयार हों ! इसमें उनकी भूल नहीं  है,समझ तो वही जन पायेंगे जिन्हें  "वह "बताना चाहेंगे !गोस्वामी जी ने मानस में कह है ,मेरे राम ! जान तो वही पाएंगे जिन्हें तुम जनाना चाहोगे :

सो जानहिं जेहि देहु जनाई, जनत तोही तुम्हीं होइ जाई 

बहुधा व्यक्ति स्वयं को तो कर्ता के रूप में देखता है जानता है और पहचानता है पर उस अदृश्य "परम" को जो कभी सूक्ष्म रूप मे और कभी साकार होकर ,कभी यन्त्र तो कभी "यंत्री" बन कर उस व्यक्ति के कार्यों में हाथ बटाता है और कभी विभिन्न स्वरूपों में प्रगट होकर स्वयं उसकी सेवा करता है ,देख कर भी पहचान नहीं पाता !

ह्म मनुष्यों की तो छोडिये, जगत जननी जानकी जी अशोकवाटिका में राम दूत श्री हनुमान जी का बाह्य कपि रूप देख कर उनका देवत्व और उनकी अतुलित क्षमताओं को नहीं पहचान पायीं ! ह्म सब जानते ही हैं क़ि माता सीता को अपने देवत्व पर विश्वास दिलाने के लिए हनुमान जी को क्या क्या करना पड़ा !


अशोकवाटिका में हनुमानजी  सीताजी के समक्ष सर्व प्रथम सूक्ष्म रूप में प्रगट हुए और
फिर माँ को यह विश्वास दिलाने के लिए कि वह राम काज करने की पूरी क्षमता और
योग्यता रखते हैं उन्होंने वही शत्रुओं के गढ़ में विकट रूप धारण किया और सम्पूर्ण
लका को जला कर तहस -नहस कर दिया !


सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा बिक्ट रूप धरि लंक जरावा !!
भीम  रूप  धरि    असुर  संहारे ,    रामचंद्र  के काज संवारे!!
लंकावासी भयभीत हो चीत्कार कर उठे : 

ह्म जो कहा यह कपि नहि होई ,वानर  रूप  धरें  सुर कोई !! 
सुग्रीव का कार्य सवांरने के लिए हनुमानजी ने विप्र का रूप धारण किया    -

बिप्र रूप धरि कपि तहाँ गयहु,माथ नाय पूछत अस भयऊ !!
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा ,    क्षत्री रूप फिरहु बन बीरा !!

प्रियजन यदि "बड़ देवन" का काज करने के लिए हनुमान जी विप्र,सूक्ष्म,लघु,विकट
और भीम आदि विविध रूप धारण कर लेतें हैं तो क्या साधारण विश्वासी प्राणियों के 
सहायतार्थ वह अपना रूप परिवर्तित नहीं कर सकते ! 


क्रमशः 
निवेदक:  व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"


 

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