बुधवार, 3 नवंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 0 9

हनुमत  कृपा
पिताश्री के अनुभव


नहीं कह सकता आपको मेरे इस कथन पर अब तक विश्वास हुआ क़ि नहीं क़ि हमारी हर एक सफलता के पीछे एक अनदेखी शक्ति का हाथ होता है ! किसी किसी सौभाग्यशाली प्रभु के प्यारे व्यक्ति विशेष को उस अदृश्य शक्ति का दाता कभी कभार नजर भी आ जाता है !लेकिन प्राय: ऐसा होता है क़ि लोग अपनी सफलता के उल्लास  में विजय का समूचा श्रेय स्वयं को दे देते हैं और उस अदृश्य "शक्ति दाता" को बिल्कुल ही भुला देते हैं.!


परन्तु  पिताश्री उस देवपुरुष को जिनके मार्गदर्शन ने  उनका जीवन संवारा था आजीवन  भुला नहीं पाए ! तभी तो उन्होंने उस घटना के होने के लगभग ३० - ३५ वर्ष बाद १९५० में पहली बार अपनी वह "हनुमत- कृपा-अनुभव -कथा"  सुनायी !प्रियजन वह कथा सुनाते समय वह इतने भाव विभोर हुए क़ि उनका कंठ रुंध गया ,उनकी आँखें भर आयीं ! उस समय मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी परम हनुमंत भक्त का प्रवचन सुन रहा हूँ!


पिताश्री के श्री मुख से सुनी उनकी "हनुमत कृपा अनुभव कथा" से मुझे एक अद्भुत प्रेरणा मिली ! विश्वास करेंगे आप ? मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण ! क़ि उस कथा से प्राप्त मार्ग दर्शन ने मेरा व्यक्तित्व ,मेरे आदर्श ,मेरा जीवन दर्शन ,मेरी भावनाएं सबकुछ  समूल बदल डाला  ! 


दूसरे विश्व युद्ध के बाद सारे विश्व की अर्थ व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी थी ! भारत को बुरी तरह लूट कर और उसको  दो टुकड़ों में बाँट कर ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ कर जा चुकी थी ! युद्ध के समय जो बड़े बड़े कारखाने युद्ध में काम आने वाली सामग्री बनाने के लिए चालू हुए थे एक एक कर बंद हो गये थे ! शहरों में बेकारी और गाँव में भुखमरी मुंह बाए जन साधारण को त्रस्त कर रही थी !


और ऐसे में ,मैं  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कोलेज ऑफ़ टेक्नोलोजी से केमिकल इंजिनीअरिंग की डिग्री प्राप्त कर कानपूर आया और काफी दिनों तक बेकार (Job less) बैठा रहा ! पिताश्री तब एक कम्पनी के चेयरमेंन मेनेजिंग डायरेक्टर थे ! विश्व युद्ध के बाद इस कम्पनी का हाल भी बेहाल हो रहा था !  


पिताश्री के "कृपा अनुभव" से हम कैसे लाभान्वित हुए ,कैसे कुलदेवता हनुमान जी एक बार फिर पिताश्री की वाणी में सूक्ष्म रूप से प्रगट होकर मेरे मार्गदर्शक बने और जिस प्रकार उन्होंने पिताश्री का जीवन सम्हाला था "उन्होंने" हमारा जीवन भी संवार दिया, अगले संदेशों में पढिये ---


क्रमशः  
निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"

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