बुधवार, 10 नवंबर 2010

JAI JAI JAI KAPISUR # 2 1 5




हनुमत कृपा - अनुभव 


प्रायः ह्म यह शिकायत करते हैं क़ि हमे वह नहीं मिला जिसे पाने की पूरी योग्यता ह्ममें है ! दुखों से घबडा कर कभी कभी ह्म भगवान पर भी दोषारोपण कर देते हैं ! ह्म उनसे यह जानना चाहते हैं क़ि ह्म को ही क्यों इतने कष्ट मिल रहे हैं ,हमने तो इस जन्म में ऐसा कोई पाप नहीं किया जिसकी सज़ा मुझे अभी मिल रही है !  


प्रभु की कृपा से प्राप्त सत्संगों में गुरुजनों से सुने श्रीमद्भागवत गीता के प्रवचनों से हमे यह ज्ञान हुआ क़ि जीव अपने पिछले जन्म में जो भी शुभ -अशुभ कर्म करता है उनके फल स्वरूप ही उसके अगले जन्म के कर्मों का चयन होता है !इसके अतिरिक्त पिछले जन्म का अपना शरीर छोड़ते समय उसके मनमें जो भाव शेष रहते हैं (जिन्हें वह अंत तक छोड़ नहीं पाता ), उन्ही वासनाओं और अतृप्त तृष्णाओं को अपने मन में संजोये हुए  जीव अपने अगले नये शरीर में प्रवेश करता हैं !


अंतिम समय तन त्यागता जिस भाव से जन व्याप्त हो 
उसमे  रंगा  रह  कर  सदा ,      उस  भाव  ही को प्राप्त हो !! (गीता-अ-.८ श्लोक -६ ). 


उपरोक्त सूत्र एकदम सत्य है ! हमे भी अपने पूर्व जन्मों के संचित कर्मों और अंतकालींन   भावनाओं के अनुरूप इस जन्म में एकतरफ जीवनयापन के लिए "चर्म शोधन" का कर्म मिला और  दूसरी तरफ ,जन्म जन्मान्तर के संचित पवित्र संस्कारों के कारण हमें इस जन्म में ईश्वर भक्ति ,गायन संगीत,साहित्य स्रजन ,शेरोशायरी आदि विरासत में मिले !


हमारी माँ बिहार की थीं और उनकी रहनी सहनी बंग प्रदेश की कलात्मक -संस्कृति से बहुत प्रभावित थीं! बिहार के भोजपुरी गीत और बंगाली भाषा में रबिन्द्र संगीत और "बाउल" के भक्ति गीत एवं "मीराबाई" के भजन वह बहुत शौक से गाती थीं!  हमने माँ से बहुत बचपन में सुना था टैगोर का यह प्रेरणा दायक गीत  "जोदी तोमर डाक शुने केउ ना आशे तोबे एकला चलो रे " यह वह गीत था जिसने राष्ट्र पिता "बापू" को सत्याग्रह में अकेले ही जूझ पड़ने की प्रेरणा दी थी ! 


अम्मा की ममतामयी गोदी में खेल खेल कर ह्म चारोँ भाई बहेन,जन्म से ही कला की विविध विधाओं -लेखन, चित्रान्कन ,गायन, नर्तन आदि के उपासक बने ! हमारे बड़े भैया उस जमाने के प्रसिद्ध गायक "के .एल सहगल " के और बड़ी बहेन "कानन देवी" की दीवानी थीं ! दोनों स्वयं भी बहुत सुंदर गाते थे !भाई साहेब की आवाज़ बिलकुल "सहगल"  जैसी थी और दीदी की  आवाज़ "कानन" जैसी  ! भाईसाहब "न्यू थीएटर" की १९३५ वाली पुरानी फिल्म "देवदास" के  गीत ," दुःख के अब दिन बीतत  नाहीं "और "बालम आये बसों मोरे मन में " बड़े भाव से ,इतना सुंदर गाते थे क़ि सुनने वाले रो पड़ते थे!  कहते हैं क़ि यदि वह पर्दे के पीछे से गाते तो लोगों को "सहगल" का भ्रम हो जाता था! 


मुझे १९८८ - ८९ की एक घटना याद आ रही है ! १९८५ में भाई साहब का स्वर्गवास हुआ ! ३-४ वर्ष बाद मैं एक बार इंग्लॅण्ड गया,! वहां उच्चायुक्त के एक अधिकारी (जो  हमारे रिश्तेदार भी थे)  हमे लेने एयर पोर्ट आये ! लम्बी ड्राइव थी इस लिए उन्होंने अपनी कार में "सहगल" के गानों का एक केसेट बजाया ! बीच में एक गाना बजा  "तडपत बीते दिन रैन"!  पुराने गाने मुझे भी अच्छे लगते हैं !मैं ध्यान से सुनता रहा !उन्होंने पूछा " भैया बताएं किसने गाया है यह ?" मैंने सहजता से उत्तर दिया "के .एल .सहगल और कौन ?"!   वह खिलखिला कर हंसते हुए बोले "भैया आप भी धोखा खा गये ,नहीं पहचाना ,ये आपके बड़े भैया की आवाज़ है! में जब १९८३ में भारत गया था मैंने टेप करके इसे " सहगल" के ओरिजिनल गानों की टेप के बीच में उतार लिया!आप ही नहीं सभी धोखा खा जाते हैं "!  ह्मारे भाई साहेब वर्षों तक आकाश वाणी के सुगम संगीत कार्यक्रमों में भाग लेते रहे !


ह्म क्या बनना चाहते हैं क्या बन जाते हैं ,आगे देखें ......क्रमशः


निवेदक :वही. एन. श्रीवास्तव "भोला" ..
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