सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

शनिवार, 26 मार्च 2011

अनुभवों का रोजनामचा # 3 2 9

अनुभवों का रोजनामचा 
आत्म कथा

काशी से आये चचेरे भतीजे जिन्हें उम्र में बड़े होने के कारण मैं 'बड़े भैया' सा आदर देता था  और उनके अन्य साथियों  के साथ पनकी में श्री हनुमान जी का दर्शन करके मैंने भी उन लोगों के साथ वहीं पनकी की कुछ औद्योगिक इकाइयों का भ्रमण किया !

तभी पड़ी मेरे भविष्य की वह 'करोड़ों' की "नींव" जो श्री हनुमंत कृपा से मुझे प्राप्त हुई !

उन दिनों मेरे बाबूजी ( पिता श्री ) विद्वान् ज्योतिषियों के मतानुसार ,"शनि देवता" के दोहरे प्रहार झेल रहे थे ! पहला प्रहार था "शनि की महादशा" का जो उन्हें १९३६ से दुखी कर रहा था  और दूसरा था "साढ़े साती" का जो अब उनके जले पर नमक जैसा प्रभाव छोड़ रहा था ! पिताश्री को "शनि" के उग्र प्रभाव ने एक विश्व विख्यात ब्रिटिश कम्पनी का स्थायी ऊंचा ओहदा , जिसपर वह निश्चिन्तिता से पिछले १० -१२ वर्षों से काम कर रहे थे ,एक झटके में छोड़ देने को मजबूर कर दिया ! 


चाटुकार मित्रों के बहकावे में आकर उन्होंने अपनी समस्त जमा पूंजी लगाकर अपनी ही दो लघु  इकाइयों की स्थापना की जिनमें नुकसान ही नुकसान हुआ ! यही नहीं उनकी कोई अतिरिक्त योजना भी सफल नहीं हुई ! मैं इतना छोटा था कि  चाह कर भी किसी प्रकार उनकी मदद नहीं कर पा रहा था ! मेरे सगे बड़े भइया,जो काशी से आये इन चचेरे भैया के हमउम्र थे , तब (१९४२-४३ में ) बम्बई  में रेडिओ इंजीनिरिंग की पढाई करने गये थे ! रेडिओ का कोर्स उन् दिनों उतना ही महत्वपूर्ण था जितना आज कल न्यूक्लिअर या इलेक्ट्रोनिक इंजीनिरिंग है ! साथसाथ क्योंकि वह देखने में बहुत आकर्षक थे और मधुर कंठ के धनी थे, वह बंबई के फिल्म जगत में भी अपना भाग्य आजमाते रहते थे !( पूरा विवरण पहले भी दे चूका हूँ ) ! इत्तेफाक से अन्तोगत्वा उनके हाथ भी कोई सफलता नही आई ! और पिताश्री हर तरफ से असफलता का ही सामना करते रहे ! इस प्रकार 'गुरु' की महादशा में  पूरा "राज योग" भोगने वाले परिवार को 'शनि महराज' ने निर्धनता के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया !
दुनिया वालों की नजर में पिताश्री को शनिदेव की कुदृष्टि के कारण कष्ट थे ! लेकिन वास्तव में उन्हें कोई कष्ट महसूस नहीं होता था ! वह अपने इष्टदेव श्री हनुमान जी की क्षत्रछाया में सदा आनंदित ही रहते थे ! जब कभी हम बच्चे और अम्मा तनिक भी दुखी दीखते वह हमें  समझाते और कहते थे कि, " बेटा जब "उन्होंने'" दिया हमने खुशी खुशी ले लिया , आज वापस मांग लिया तो हम दुखी क्यों हो रहे हैं ? मैंने किसी गलत तरीके से कमाई नहीं की थी ये बात 'उनसे' अच्छी तरह और कौन जानता  है ? हमे "उनकी" कृपा पर पूरा भरोसा है ! आप लोगों की भी सारी आवश्यकताएँ और उचित आकांक्षाएँ वह समय आने पर अवश्य पूरी करेंगे ! आप लोग भविष्य की सारी चिंता उन पर ही छोड़ दें !" 

प्यारे प्रभु ने कहा " वत्स ! अनुकरणीय है तुम्हारे पिताश्री की रहनी ! सुख एवं दुःख दोनों ही स्थिति में तुम्हारे पिता मेरे प्रति गहन अनुराग,विश्वास,अवलंब और भरोसा बनाये रहे किसी दशा में भी उनकी मेरे प्रति प्रीतिऔर निष्ठां  शिथिल नहीं हुई !जरा सोच कर देखो "   

"उनका" आदेश पालन करके मैंने सोचा और पाया कि सचमुच ही उतनी कष्टप्रद स्थिति में भी पिताश्री ने अपने कुलदेवता श्रीहनुमान जी का अवलम्ब  नहीं छोड़ा ! बुरे दिनों में भी वह नित्यप्रति  हनुमान चालीसा और अष्टक का पाठ उतनी ही भक्ति के साथ करते रहे  जितनी भक्ति से ओतप्रोत हो कर  वह अपने अच्छे दिनों में करते थे ! उनकी प्रार्थना में हमें  कभी भी किसी प्रकार का आक्रोश अथवा गिला शिकवा और पीड़ा की प्रतीति नहीं हुई ! वह पूर्ववत उसी विश्वास के साथ श्री हनुमान जी से कहते रहे :

कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नही जात है टारो
बेगि हरो हनुमान महा प्रभु जो कछु संकट होंयं हमारो 
को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तुम्हारो

सांसारिक दृष्टि में उनका जीवन कष्टप्रद था, क्योंकि जो व्यक्ति अनेको नौकर चाकरों से
घिरा रहता था, अब स्वयम हाथ में झोला लटका कर बाज़ार जाता था !जिसके घर में आने जाने वालों और भिक्षा देने के लिए ठेलों में लाद कर महीने भर का खाने पीने का सामान आया करता था उसके घर मे अब रसोई बनते समय गली की दूकान से सामान मंगवाना पड़ता था  !जो व्यक्ति मक्खन जीन के सूट पहनता था वह अब मोटी धोती और कुरता पहन कर सब जगह आता जाता था !उनकी विशेषता यह थी कि उनके चेहरे पर कभी कोई शिकन नहीं आई और उन्होंने कभी किसी व्यक्ति को अपनी उस दुर्दशा का कारण नही बताया ! उलटे परिवार के और सदस्यों को वह यह शिक्षा देते रहते थे कि ,शत्रु मित्र , मान अपमान ,सुख दुःख ,शीत एवं उष्णता में 'प्रभु विश्वासी' व्यक्तियों को सम रहना चाहिए ! गीता जी का यह श्लोक वह अक्सर हम सब लोगों को सुनाया करते थे ! 

समः शत्रो च मित्रे च तथा मानापमानयो:
शीतोष्णसुख दू:खेषु समःसंग विवर्जित:
(श्रीमद भगवद्गीता - १२/१८) 

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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला" 
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