सिया राम के अतिशय प्यारे,
अंजनिसुत मारुति दुलारे,
श्री हनुमान जी महाराज
के दासानुदास
श्री राम परिवार द्वारा
पिछले अर्ध शतक से अनवरत प्रस्तुत यह

हनुमान चालीसा

बार बार सुनिए, साथ में गाइए ,
हनुमत कृपा पाइए .

आत्म-कहानी की अनुक्रमणिका

आत्म कहानी - प्रकरण संकेत

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

संकल्प शक्ति - # ४ ० ९

प्रेम दीवानी मीरा
(अंक # ४०७ के आगे)

राजा रतन सिंह राठौर के महल में वह संत दुबारा यह मन बना कर या क़ि वह पने इष्ट श्रीकृष्ण की वह मूर्ति , (जिसकी उसने वर्षों जी लगा कर सेवा की है ), मूर्ति की वास्तविक अधिकारिणी - राजकुंवारि मीरा को समर्पित कर देगा ! और उसने निःसंकोच वैसा ही किया ! पेश्तर इसके कि राजा उससे कुछ कहते , संत ने उन्हें चिंतामुक्त कर दिया ,संत ने राजा को एक भिक्षुक संत के समक्ष हाथ फ़ैलाने से बचा लिया और उनके बिना मांगे स्वेच्छा से ही वह मूर्ति मीरा के हाथों पर रख दी !

मूर्ति ग्रहण करते समय , मीरा के प्रफुल्लित मुख मंडल पर दृष्टि पड़ते ही संत को जिस मधुर आनंद की अनुभूति हुई उसका एक पासंग भी उसे इसके पूर्व नहीं मिला था ! संत को ऐसा लगा जैसे मरुस्थल के तपते भूखंड पर सहसा सावन के कजरारे घन छा गए ,छम छमा छम एक दिव्य आनंद की शीतल वर्षा होने लगी और उसको तत्क्षण ही वह प्राप्त होगया जिसके लिए वह युगों युगों से तपश्चर्या कर रहा था !

संत ने मन ही मन उस "परमानंद" का अनुभव किया जो "ध्रुव" को गहन तपश्चर्या के बाद श्री हरि नारायण के दर्शन से मिला था ! पलक झपकते ही संत का मानव जीवन धन्य हो गया ! मूर्ति देते ही उसे मिला "हरि दर्शन" का अनमोल जवाबी तोहफा (आजकल जिसे रिटर्न गिफ्ट कहते हैं) ! यह वह अनुभूति थी जिसके लिए वह तरसता रहा था ! संत का रोम रोम उस नन्हीं सी देवी मीरा का ऋणी हो गया ! वह इस सोच में पड़ गया ,कि कौन है यह बालिका ? राधा है या रुक्मिणी ? अथवा है वह उन अनगिनत गोपिकाओं में से एक जिन पर बाल्यावस्था में बालगोपाल निहाल थे ! कहीं ये वह चंचला "ललिता" तो नहीं जो राधा-कृष्ण दोनों को ही उनकी रास लीलाओं में अकारण सताती रहती थी ?

और फिर न जाने क्या भाव उठा संत के मन में कि ,वह शून्य सा होगया और वास्तविकता की अनदेखी करके उसने स्थान काल वयस के भेद भुला कर ,समस्त राजपरिवार के समक्ष नन्हीं राज्कुंवरि मीरा के श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम किया ! सभी भौचक्के रह गए !

उन संत भक्त के विषय में अनेकानेक किम्वदंती हैं , अटकलों के आधार पर कहिये या साहित्यकारों तथा इतिहासकारों के कथनानुसार मानिये ,हम सब उन्हें ( संत ? दास) के नाम से जानते हैं ! मैं कोई नाम नहीं लूंगा ! जो कोई भी रहे हों वह , वह थे बड़े भाग्यशाली, जो मीरा जैसी प्रेम दीवानी के जीवन काल में जन्मे और मीरा के प्रेम-भक्ति मार्ग का अनुसरण किया !

और हाँ इधर ,राजमहल में एक अद्भुत आनंद की गंगा बह निकलीं ! चहूँ ओर आनंदोत्सव का माहौल छा गया ! उतनी खुशी मनाई गयी जितनी युवराजों के जन्म पर रजवाडों में मनायी जाती है ! डगर डगर में नौबत बाजी , घर घर बजी बधायी-

मीरा ने न केवल अपने इष्ट को पहचाना ,जाना और पा भी लिया ,उसने उनके साथ एक ऐसा सम्बन्ध जोड़ा जो हर प्रकार से अटूट था ! बालपन से लेकर अपने जीवन के अंत समय तक एक पल को भी मीरा ने उस मूर्ति को अपने से विलग नहीं होने दिया ! सदा उसे अपने अंग- संग रखा! वह उस मूर्ति के साथ ही उठती बैठती ,खाती -पीती ,घूमती फिरती ,सोती जागती, खेलती, गाती नाचती रही तथा उसीसे रूठती और उसे ही मनाती रही !

मीरा की भक्ति किसी पिटी पिटायी पन्थ की अनुगामिनी नहीं थी ! वह जानती थी केवल एक राह - "प्रेम प्रीति की राह" ! उसका पन्थ था समर्पण का ! उसका पन्थ था निर्मल मन से प्रभु-प्रेम के माधुर्य का आस्वादन करने का , अपने आपको अपने इष्ट में विलय कर देने का !
शेष क्रमशः
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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