उम्र की मार से मजबूर हो खामोश रहा
ये लम्हे कैसे कटे ,यार नहीं याद मुझे
आज जब होश में आया हूँ तो मुश्किल ये है
इब्तदा कैसे हो ,जब अंत नहीं याद मुझे
होश में हूँ मगर बेहोश ही समझो मुझको
चंद नामों के सिवा ,कुछ भी नहीं याद मुझे
"भोला"
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प्रेम दीवानी मीरा
"ना मैं जानूँ आरती वंदन ,ना पूजा की रीति"
(गतांक से आगे)
अगले दिन ,अपनी कुटी से, राजप्रासाद की ओर जाते हुए , संत विचार कर रहा था कि "मैंने आजीवन अपने गोपालजी की सेवा पूरी निष्ठां और विश्वास के साथ विधि पूर्वक की है फिर क्या कारण है कि मेरे गोपालजी ने आज तक मेरी सेवाओं को , इतने उत्साह से नहीं ग्रहण किया जितनी तत्परता से ,जितने उल्लास और जितनी रूचि से उन्होंने नन्हीं मीरा के हाथ से निर्मित प्रसाद ग्रहण किया !मेरी आराधना में अवश्य ही कोई बडी कमी है ,मेरे निवेदन में निश्चित ही कोई भयंकर चूक हो जाती है जिससे मेरे इष्टदेव मुझ पर आज तक एक बार भी इतना प्रसन्न नहीं हुए जितना वह रतन सिंह राठौर की बिटिया द्वारा अर्पित भोग ग्रहण करके हुए !
प्रियजन ,जैसे जैसे वह संत ,राजा रतन सिंह के महल के निकट आ रहा था उसके हृदय की गति बदल रही थी ,उसमें मन में एक विशेष तरंग उठ रही थी ,एक भिन्न ही भावना जागृत हो रही थी ! ( प्रियजन सच कहता हूँ यदि उसकी जगह मैं होता तो राह चलते चलते अवश्य ही यह गुनगुना रहा होता : ना मैं जानूँ आरती वंदन ना पूजा की रीति :)
इधर ,दूर से ही संत को महल के निकट आते देख कर द्वारपालों में अफरातफरी मच गई ! एक ने भाग कर महल के अंदर जाकर सूचना दी कि वह संत जिसकी झोली में वह दिव्य खिलौना था , जिसे पाने के लिए राज कुंवरि मीरा कल प्रातः से बेचैन है , वह संत जिसकी तलाश कल से हो रही थी और जो कल की खोज में राज्य की सीमा में दूर दूर तक कहीं नहीं दिखा था , वह झोली वाला संत आज प्रातः आपसे आप ही महल की ओर चला आ रहा है !
प्रातः से ही किसी दिव्य अन्तः प्रेरणा से नन्हीं मीरा कल की तरह ही अपनी अनुरागिनी माँ के पीछे पड़कर महल की रसोई में अपने प्यारे गिरिधर गोपाल के लिए कलेवा तैयार करने में जुटी थी !तीन वर्ष की उस नन्हीं बालिका के मुखारविंद पर अंकित भावभंगिमा ,प्रत्यक्ष रूप में , कृष्णा के प्रति उसकी चिरस्थायी अति पुरातन प्रेम की तन्मयता प्रदर्शित कर रही थी ! अप्रत्यक्षता से उनमे अंकित थी उसकी ,जन्म जन्मांतर से उससे बिछड़े उसके प्यारे गिरिधर गोपाल के विरह की गहन वेदना ,गहरी पीड़ा !
रणछोड दास के मंदिर में , सशरीर अपने प्रियतम द्वारकाधीश की मूर्ति में विलीन हो जाने के लगभग एक शताब्दी बाद संकलित मीरा के हृदय ग्राही पदों में तथा बीच के इन पांच सौ वर्षों में विक्रत अथवा संशोधित आधुनीकृत स्वरूपों में कौन से असली (वास्तविक) मीरा के हैं कौन नकली हैं यह तो शोध का विषय है , उस पचड़े में न पड़ कर चलिए मीरा के मन के उस भाव को पढ़ें जो उसके मुख पर तब अंकित था जब वह संत दुबारा राज महल में पहुंचा !
बालिका मीरा का मुख मंडल , प्रेम , प्रेम ,एकमात्र पेम - कृष्ण प्रेम रस में सराबोर था -उसका समग्र चोला (मीरा के ही एक पद में वर्णित भाव के अनुसार) कभी न कभी कृष्ण के मनहर स्वरूप में विलय की प्रतीक्षारत था
पच रंग चोला पहिर मैं , झिर्मिट खेलन जाती
ओहि झिर्मिट माँ मिलो सावरो , खोल मिली तन गाती
सैयां मैं तो गिरिधर के रंग राती
मीरा के उस दिव्य स्वरूप को देखते ही संत ने मन ही मन में यह संकल्प किया कि अब
उसे आराधना के कठिन परम्परागत औपचारिकताओं का परित्याग कर के अपने आप को ,प्यारे गोपाल जी के श्री चरणों पर ,अति निर्मल मन से (मन की सभी वासनाओं, दुर्गुणों और कुभावनाओं को त्याग कर ) ,अतिशय प्रीति के साथ पूर्णतः समर्पित कर देना है !
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क्रमशः
परमप्रिय पाठकगण , दुआ करें कि मैं कल भी आपकी सेवा में सन्देश भेज सकूं
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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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2 टिप्पणियां:
काका और काकी जी को सादर प्रणाम . बहुत दिनों की व्यस्तता के बाद अब कुछ मुक्त अनुभव कर रहा हूँ. और सबसे पहले आप के ब्लॉग पर ही अंगुली फिर गयी ! इसे क्या कहे ! दिल वाले ही जाने ! पहले के पोस्ट को भी पढ़ा ! मीरा के बारे में बहुत ही सुन्दर प्रेम भक्ति की प्रस्तुति , आप की अंगुलियों और अनुभव के फल ही है ! बहुत भाव पूर्ण , एक बार फिर आप को प्रणाम !
मीरा के बारे में बहुत ही सुन्दर प्रेम भक्ति की प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद|
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