शनिवार, 16 जुलाई 2011

प्रेम दीवानी मीरा - # ४ ० 3


हरि दर्शन की प्यासी मीरा
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ठुमुकठुमुक ,अंगनैया, नाचे है, राजकुँवरि.
वाको मनभाय गयो ,कुंवर कन्हैया है !!
मरुथलमें ,छाय गई , हरियारी ,गोकुल की,
महारास मधुबन में कान्हा रचवैया हैं !!
भोला कर जोर कहे वेगि चलो गोपीजन,
देखऊ तनि, ढीठ लंगर, कैसो नचवैया है!!

"भोला"
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शताब्दी के अंत (१४९८) में , मीरा के जन्म से ही राठौरों की उस गढी में प्रेमाभक्ति की दिव्य तरंगें स्पंदित हो रहीं थीं ! गढी के प्राचीर, गुम्बद , नक्काशीदार काष्ट के द्वार ,ऊंचे ऊंचे खम्भे सारे समवेत स्वरों में हरि "नाम" उच्चारने लगे थे ! परिवार के सदस्य ,रात्रि की नीरवता में कभी कभी रेगिस्तानी हवा के झोंकों में गूंजती "श्यामा श्याम" की "धुन" साफ साफ सुनते थे! हवेली का ही नहीं अपितु सारे राजमहल का वातावरण कृष्णमय हो गया था !

माता तो पुत्री मीरा के जन्म के पहले से ही, अपनी कोख में गर्भस्थ शिशु के हृदय में स्पंदित "कृष्ण कृष्ण" की ध्वनि सुनती रहती थी ! मीरा के जन्म के चार पांच मास पूर्व से ही माता के उदर में शिशु के नन्हे नन्हे पावों की ठोकरों में निहित "गोकुल के कृष्ण" की महारास में ठुमकती उनकी प्रिय सखी ललिता के पद चाप का आभास होता था (तभी तो मीरा की कुछ प्रिय सखियाँ उसे कभी कभी "ललिता सखी" कह कर चिढ़ाती थीं )

मूर्ती के लिए रोती बिलखती मीरा को महारानी जबरदस्ती उठा कर महल के अंदर ले तोआयीं लेकिन वह किसी प्रकार भी उसको चुप न करा सकीं ! मीरा का रोना थमा ही नहीं ! माता ने अनेकानेक प्रलोभन उसे दिए ! पिता ने जोधपुर के जौहरियों और स्थानीय कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित भांति भांति की रत्नजडित सुवर्ण ,रजत ,कांस्य ,ताम्र ,संगमरमर में गढी श्री कृष्ण की मूर्तियां मंगवाई पर मीरा को उनमे से एक भी नहीं भाई ! मीरा अपनी जिद पर अडी रही और यह साफ़ हो गया कि मीरा को ,उस संत की झोली में पडी श्रीकृष्ण की उस कांस्य मूर्ति के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु शांत नहीं कर पाएगी !

थक हार कर , ठकुरानी ने ठाकुर को समझा बुझा कर राजी किया कि जैसे भी हो ,मीरा को मनाने के लिए संत के पास से "कृष्ण" की वह मूर्ति हासिल करनी ही होगी ! उनकी खोज में सिपाही चारों तरफ दौड़ाये गए ! लेकिन तब तक वह संत नगर की भीड़ भाड़ में कहीं लुप्त हो गये थे ! सिपाही खाली हाथ लौट आये !

इधर ३ वर्ष की नन्हीं मीरा ने व्रत ले लिया कि वह उस समय तक अपने मुख में अन्न का एक दाना भी नहीं डालेगी जब तक वह अपने हाथों से अपने जन्म जन्म के स्वामी श्रीकृष्ण की उस मूर्ति विशेष को भोग निवेदित नहीं कर लेती ! प्रियजन , मीरा का वह व्रत कुछ कुछ वैसा ही था जैसा भारत के पूर्वांचल की नव विवाहिता कन्याएं "छठ" के दिनों में करती हैं , जैसी पछाहं की बधुएं "तीज" तथा "करवा चौथ"के दिन करतीं हैं ! हवेली ही नहीं राठौरों का वह पूरा इलाका ही छोटी सी मीरा की इस कठिन प्रतिज्ञा की बात सुन कर दंग रह गया !

कुछ पाठकों को उत्कंठा है यह जानने के लिए कि आत्मकथा लिखते लिखते भोला जी कहाँ भटक गए ? पाठकगण मेरे जैसे साधारण गृहस्थ साधक के लिए जिसको साधना के क्षेत्र में अपने इष्ट देव को रिझाने के लिए कीर्तन भजन गायन का ही एकमात्र अवलम्ब मिला है , "प्रेम- भक्ति" परम्परा की सर्वोच्च साध्वी "मीराबाई" से उत्तम और कौन सा उदाहरण है ! मीराबाई द्वारा अपने इष्ट के प्रेम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना तथा डंके की चोट पर यह एलान कर देना कि --

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई
मीरा हरि लगन लगीं होंन हो सो होई

--मीरा की ये पंक्तियाँ उनकी एकनिष्ठता प्रकाशित करती है ! मीरा की श्री कृष्ण प्रीति तथा उनका सम्पूर्ण समर्पण भाव मेरे प्रिय पाठकों सर्वथा अनुकरणीय है ! महापुरुषों से सुना है 'प्यारे प्रभु के प्रति हमारी परम प्रीति ही प्रगाढ होकर भक्ति बन जाती है '! हमारे स्वामी जी महाराज ने भी कहा है कि "भगवान से प्रीति करो ! अपना कर्म न त्यागो ,काम करते रहो और पूरी श्रद्धा के साथ "नाम" भी जपते रहो" :-

प्रीति करो भगवान से , मत मांगो फल दाम ,
तज कर फल की कामना भजन करो निहकाम !!

(स्वामी सत्यानंद जी महाराज)

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क्रमशः
निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
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2 टिप्‍पणियां:

Shikha Kaushik ने कहा…

रोचकता के साथ प्रस्तुत मीराबाई की भक्ति रस से परिपूर्ण यह कथा आनंद विभोर कर रही है ,आभार .

Shalini kaushik ने कहा…

भोला जी ये भटकना थोड़े ही है हम जिनके प्रति श्रृद्धा रखते हैं वे सब भी हमारे जीवन में सम्मिलित होते हैं और आप भी अपने जीवन में सम्मिलित महापुरुषों का ब्यौरा दे रहे हैं जो हमारे लिए संग्रहणीय है.आभार