सोमवार, 25 जुलाई 2011

संकल्प शक्ति - # ४ ० ७

प्रेम दीवानी मीरा

हमारे गुरुदेव ब्रह्मलीन श्रद्धेय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने कहा है कि जिस प्रकार रेडियो टेलीविजन की सूक्ष्म तरंगों के द्वारा शब्द और रूप ,एक स्थान से दूसरे स्थान तक आकाश मार्ग से पहुंच जाते हैं , इसी प्रकार सच्चे उपासकों और प्रेमियों के दृढ़ संकल्प भी बड़ी से बड़ी दूरियां तय करके यथा स्थान पहुंचते रहते हैं !

बालिका मीरा के मन में श्रीकृष्ण की वह विशेष मूर्ति पाने का संकल्प बहुत ही दृढ़ और अटल था ! उस संकल्प की शब्दतरंगें भी सूक्ष्माकाश में तैरती हुईं संत के पीछे सारी रात मंडराती रहीं ! अंततः मीरा के संकल्प की दृढता ने संत को मजबूर कर दिया कि वह अपने आराध्य इष्टदेव की वह मूर्ति मीरा को सौंप दे !

संत को जहां एक ओर उसके आराध्य कृष्ण की मूर्ति से विछुड़ जाने का दुःख था ,वहीं दूसरी ओर उसे एक विलक्षण आनंद का अनुभव हो रहा था ! पर्वतों की कन्दराओं में की हुई उसकी कठिनतम साधना से जिस शांति की प्राप्ति उसे तब तक नहीं हुई थी , वह सुख , वह शांति वह संतुष्टि उसे उस नन्हीं प्रेम दीवानी मीरा के दर्शन मात्र से प्राप्त हो गयी थी !

बालिका मीरा का श्री कृष्ण की मूर्ति के प्रति वह अपूर्व प्रेम और उसके मन में उसे पाने की तड़प तथा एकनिष्ट भाव से उस मूर्ति के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण करने का भाव ,संत के हृदय को छू गया ! संत की समझ में आगया कि भक्ति-भाव का मूलाधार प्रेम है ! प्रेम के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती ! क्रमशः

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इस संदर्भ में मुझे अपने जीवन की एक घटना याद आ रही है ! नवंबर १९५६ में हमारा विवाह सम्पन्न हुआ ; हम दोनों ने बड़े चाव से अपने कमरे में लगाने के लिए गीताप्रेस गोरखपुर में मुद्रित देवी देवताओं के चित्रों में से दो चित्र चुने ,एक रामजी का और दूसरा कृष्ण का ! हमने उन्हें अपने बेड रूम के निजी मंदिर में बड़े प्रेम से प्रस्थापित भी कर दिया !कुछ माह उपरान्त एक अद्भुत घटना घटी :

मैं उन दिनों कानपूर में कार्यरत था और बहुत सबेरे घर से निकल कर देर शाम तक घर लौटता था ! जब की यह घटना है उन दिनों मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी भी एम् ए की परीक्षा में बैठने के लिए ग्वालियर - अपने मायके गयी हुईं थीं !

एक दिन मैंने फैक्ट्री से वापिस आकर देखा कि हमारे बेड रूम के मंदिर में श्रीकृष्ण का वह चित्र नहीं है ! पूछताछ करने पर मेरी भाभी ने बतलाया कि उस दिन दोपहर में बेवख्त ही घर के द्वार पर दस्तक हुई ! द्वार खोला तो देखा कि एक अपरिचित महिला बहुत सकुचायी और डरी हुई दरवाजे पर खड़ी थी ! उसके साथ उसका एक चार पांच वर्ष का बहुत ही सुंदर बालक था ! बच्चा महिला का पल्लू पकडे हुए खड़ा था ! दोनों ही देखने में किसी धनाढ्य , भद्र वणिज ,परिवार के लगते थे !

भाभी ने आगे कहा कि, अभी उसकी माँ अपना परिचय दे ही रही थी कि वह बालक माँ का हाथ छुड़ा कर घर के अंदर ऐसे घुसा जैसे कि बहुत पहिले से हमारे घर के चप्पे चप्पे से अच्छी तरह से वाकिफ हो ! घर के अंदर घुस कर वह सारे खुले हुए कमरे छोड़ कर ,सीधे हमारे बंद बेड रूम की ओर ही गया ! घर के सभी सदस्य आश्चर्य चकित थे कि वह बालक बंद कमरे की ओर ही क्यों गया ? उसने जबरदस्ती हमसे तुम्हारे कमरे का ही ताला क्यों खुलवाया ?और ताला खुलते ही वह सीधे उसी ओर ही कैसे चला गया जहां मंदिर में श्रीकृष्ण जी का वह चित्र लगा हुआ था ? मंदिर के निकट पहुंच कर ,बिना मुंह से कुछ बोले , केवल संकेत से ही उसने श्री कृष्णजी के उस चित्र विशेष को पाने के लिए जिद करना चालू कर दिया ! जब तक उसने वह चित्र अपने हाथ में थाम नहीं लिया तब तक वह शांत नहीं हुआ!उसे पा लेने पर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा ; उसने एक पल को भी उस चित्र से अपनी नजर नहीं हटायी , वह अपलक एक टक बड़े आनंद से कृष्णजी की मनमोहिनी छवि को अतीव श्रद्धा से निहारता रहा !

शेष कल

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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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