मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई
मीरा हरि लगन लागी होंनि हो सो होई
५ जुलाई २०११ से प्रेम दीवानी "मीरा" की कथा चल रही थी ! अकारण ६ जुलाई से ही इतनी रुकावटें आई मीरा के दिव्य प्रेम की कहानी के तार जगह जगह से टूट गये और कथा रुक गई ! स्वभाववश बहुत छटपटाया ! कम्पयूटर का अनाड़ी खिलाडी होने के कारण स्वयम कुछ भी न कर पाया ! अस्तु जानकार कम्प्यूटर गुरुजनों के दरवाजे खटखटाये ! स्वयम सेवी हिंदी ब्लॉग के गुरु प्रियवर राजीव कुल्श्रेष्ठ जी , प्रिय पुत्र राघवजी , रानी बेटी श्रीदेवी तथा पौत्री मोहिनी बिटिया की मदद से अब काम बन गया है ! सब मददगारों को मेरा हार्दिक धन्यवाद !
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प्यारे प्रभु की कृपा से लगभग एक सप्ताह के बाद आज स्थिति काबू में आगयी लेकिन जुड़े हुए तार में जो गांठें पड़ गयीं वो आगे बढने ही नहीं दे रही हैं ! दो दिनों से लग कर कोशिश कर रहा हूँ ! कलम तो चलती है ,पर मूल प्रसंग आगे बढ़ाने के बजाय , कुछ और ही लिख जाता है ! शायद "ऊपर" से ही कोई रोक लग रही है ! " परवश को नहि दोष गुसाईं "सो क्षमा मांगता हूँ ! हाँ प्रियजन , इस बीच मूल विषय को छोड़ कर काफी कुछ लिखा जो समय आने पर धीरे धीरे आपकी सेवा में प्रेषित करूँगा !
अभी एक बार फिर उस प्यारी प्यारी नन्ही गुडिया सी राजकुमारी मीरा की कहानी आपको सुनाने का प्रयास करूं , सफलता के लिए आपकी शुभ कामनाएं आपेक्षित हैं , कृपा करिये !
प्रेम दीवानी मीरा
संत के झोंले से निकली उस मनमोहनी मूर्ती को देखते ही नन्ही राजकुमारी मीरा के मन में उसके जन्म जन्मान्तर के प्रियतम श्री कृष्ण की स्मृति जागृत हो गयी ! वह ,वहीं संत के निकट बैठ कर उस संत द्वारा की हुई उसके उपास्य गिरिधर गोपाल की सेवा के दृश्य देखती रही ! कितनी श्रद्धा-भक्ति से उस संत ने राजमहल से मिला व्यजन ,स्वयम न खा कर पहले अपने इष्ट के श्री विग्रह को अति प्रेम युक्त आग्रह से निवेदित किया यह , देखते बनता था ! बालिका मीरा मंत्र मुग्ध सी एक टक उधर देखती रही !
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प्रियजन , अनुकरणीय है , पुरातन काल से भारत भूमि में प्रचिलित यह प्रथा - यह रिवाज़ ! स्वयम भोजन पाने से पहले , द्वार खड़े आगन्तुक को खिलाना , और आगन्तुक द्वारा भी प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व उसे अपने अन्नदाता - इष्ट को सादर निवेदित कर देने की !
श्रीराम शरणम के सत्संगों में इस प्रथा को पूर्णतः निभाया जाता है ! स्वामी जी महराज ने भोजन पाने से पूर्व और भोजन कर लेने के बाद बोलने के लिए ,सरल हिन्दी भाषा में , दो मंत्रों की रचना की - जो इस प्रकार हैं -
भोजन से पूर्व :-
अन्नपते शुभ अन्न है तेरा दान महान ,
करते हैं उपभोग हम परम अनुग्रह मान !!,
अन्नपते दे अन्न शुभ देव दयालु उदार ,
पाकर तुष्टि सुपुष्टि को करें कर्म हितकार!!
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भोजन के बाद
धन्यवाद तेरा प्रभु तू दाता सुख भोग
सारे स्वादुल भोग का रसमय मधुर सुयोग
विविध व्यंजन भोज सब तू देवे हरि आप ,
खान पान आमोद सब तेरा ही सुप्रताप !!
स्वामी जी महराज से नाम दीक्षा मिलने के बहुत पहले १९५७ में ही मैंने अपनी ससुराल में पहली बार उपरोक्त मंत्रों का उच्चारण सुना ! वहाँ परिवार के मुखिया, मेरी धर्म पत्नी कृष्णा जी के बड़े भाई ,परम भक्त , गृहस्थ संत, भू .पू.चीफ जस्टिस शिवदयाल जी , सपरिवार भोजन करते समय इन मंत्रों का उच्चारण स्वयं भी करते थे और परिवार के सभी छोटे बड़े सदस्यों से करवाते थे !
राज कुंवरि मीरा की दृष्टि उसके प्रीतम श्रीकृष्ण की उस मूर्ति से एक पल को भी नहीं हटी !उस मूर्ति को पाने के लिए उसने रो रो कर धरती आकाश एक कर दिए ! हंगामा मचा दिया ! महारानी उसे मनाने के लिए उठा कर अंदर महल में ले गयीं ! पूरा राज महल उसके करुण रुदन से दहल गया !
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इधर छक कर प्रसाद पाने के बाद समुचित दक्षिणा ग्रहण कर के , राजपरिवार पर अपने आशीर्वाद की वर्षा करते हुए वह संत अपने झोले में श्री कृष्ण जी की मूर्ति डाल कर, उठ कर वापस चला गया !
अभी दुआ कर रहा हूँ कि यह संदेश आप तक पहूँच जाये ! अधिक रिस्क नहीं लूंगा , शेष कथा कल सुनाऊंगा :
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निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
टेक्निकल सहयोग : श्री. राजीव कुल्श्रेठ जी (भारत)
श्रीमती श्रीदेवी कुमार (चेन्नई)
श्री. राघव रंजन (Andover USA )
सुश्री कुमारी मोहिनी श्रीवास्तव (Boston USA)
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3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रेरणादायक लेख| धन्यवाद|
काका जी,
बहुत अच्छा हुआ जो आप की परेशानी दूर हो गयी और हमें हमारी मीरबाई वापस मिल गयी आपके सभी सहयोगियों का हम भी हार्दिक धन्य वाद करते हैं और आपसे इस तरह की शानदार प्रस्तुतियों के लिए बार बार आग्रह करते हैं.
बहुत अच्छी प्रस्तुति .आभार
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