अप्रत्यक्ष रूप में तो "कृष्णभक्ति" की दिव्य तरंगें रतन सिंह राठौर की हवेली में मीरा के गर्भस्थ होते ही आ गयीं थीं , परन्तु उस दिन उस संत के अचानक ही वहाँ आने के बाद सम्पूर्ण क्षेत्र का ही माहौल पूरी तरह से "कृष्णमय" हो गया ! संत ने नन्ही मीरा के सन्मुख ही अपने इष्टदेव "श्री कृष्ण" के विग्रह का बहुत ही प्रेम और श्रद्धाभक्ति सहित "सेवा पूजन आराधन" किया था और नन्हीं मीरा के द्वारा निर्मित भोग ही अपने इष्टदेव को निवेदित किया था !
यह सम्पूर्ण घटनाक्रम ,केवल उस गढी में ही नहीं वरन विश्व के इतिहास में शीघ्र ही आने वाले किसी शुभ संयोग की सूचना दे रहा था !
यह वह काल था, यह वह स्थान था जिसे हम एक विशिष्ट "प्रेमा भक्ति" परम्परा का जन्म समय और स्थान कह सकते हैं ! यह गंगोत्री-यमुनोत्री के समान पवित्र ,शुभ्र ,सुमधुर शीतल प्रेम भक्ति रसधार का वह उद्गम था ,जिसमे ,मज्जन करने वाला साधारण से साधारण व्यक्ति ,अति सुगमता से ऐसी ऐसी अनुभूतियाँ अर्जित कर लेता हैं जो बड़े बड़े विरागी संतों सन्यासियों तथा योगियों को दुर्लभ होती हैं !
धरती धन्य, धन्य वह बेला, जिसमे कोई संत पधारे
धन्य वंश वह जिसमे कोई दिव्यात्मा आकर तन धारे
(भोला)
नन्ही मीरा रो रही थी , लेकिन उसकी दिव्यात्मा हर्षित थी ! न जाने कब ,शायद हजारों वर्ष पूर्व उससे बिछडा उसका "मनमोहना",आज स्वतह, चलकर ,उससे मिलने के लिए उसके द्वार आया था और उसे पूरा विश्वास था कि उसका कान्हा थोड़ी देर के लिए ही उससे विलग हुआ है और बहुत शीघ्र ही वह नटखट करील के कुंजों से निकल कर पुनः उससे आ मिलेगा , अब उसे ऐसे विरह के गीत नहीं गाने हैं
प्यारे दर्शन दीजो आय तुम बिन रहो न जाय !!
क्यों तरसाओ अंतरयामी,
आय मिलो किरपा करो स्वामी,
मीरा दासी जनम जनम की पडी तुम्हारे पाय
प्यारे दर्शन दीजो आय तुम बिन रहो न जाय !!
नन्हीं मीरा वैसे तो संसार की नजरों में रो रही थी लेकिन उसकी दिव्य अंतर-आत्मा हर्षित होकर कह रही थी कि :-
जब मीरा को गिरिधर मिलिया दुःख मेटन सुख भेरी
रोम रोम साका भई उर में मिट गयी फेरा फेरी!!
इष्ट की लुक्काछुपी के खेल में ,अपने सखा कृष्ण का साथ दे रहा वह भोला संत अधिक समय तक उस नटखट कन्हैया का साथ नहीं निभा सका ! वास्तव में जब से वह रतन सिंह राठौर की हवेली से लौटा था , वह एक पल को भी कृष्ण प्रेमदीवानी नन्हीं मीरा की जिद और उसका करुण रुदन भुला नही पाया था ! उस बालिका का कृष्ण की उस मूर्ति के प्रति इतना लगाव ,आम बालिकाओं की मेले में गुडिया खरीदने की जिद से बहुत भिन्न थी !
संत ने निश्चय किया कि अगली सुबह ही वह एक बार पुनः ठाकुर रतन सिंह की हवेली पर जायेगा और भक्ति की साकार प्रतिमा ,"कृष्णप्रिया" उस नन्हीं राज कुंवरि के दिव्य दर्शन कर के अपना जीवन धन्य बनाएगा !
शेष अगले सन्देश में
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निवेदक :- व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
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2 टिप्पणियां:
भक्त कवयित्री मीराबाई की भक्ति के बारे में जितना पढें आनंद उतना बढता जाता है।
मीराबाई की भक्ति रस से परिपूर्ण यह कथा आनंद विभोर कर रही है|
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